|  मुझे 
                    लगा कि सिर पर कोई कड़ी चीज़ ठक्क से टकरा गई है। दीदी के मुँह 
                    से ऐसे शब्द! मैं विमूढ़ की तरह उनका मुँह ताकने लगा, तब चारू 
                    आगे बढ़ी। वह बोलती कम थी, काम ज़्यादा करती रहती थी। 
                    ''दीदी, मैं सामान उतरवाने जा 
                    रही हूँ।'' ''इस बार टैक्सी से आई हूँ 
                    चारू, सामान उतार कर वह चला गया था। बरामदे से उठवा लो।''दीदी फिर चुप।
 वह कुछ बोले, इसलिए मैंने 
                    छेड़ा, ''दीदी, आज क्या पहेलियों की पिटारी लेकर आई हो?'' दीदी ने मुझे उत्तर न दिया और 
                    न मेरी ओर ही देखा। मैं समझ गया कि वह अपनी आँखें छिपा रही है। ''चारू, एक प्याला चाय लाओ न। 
                    चारू को राहत मिली, वह चौके की ओर जल्दी-जल्दी चली गई। दीदी को 
                    मेरे प्रति जितनी आत्मीयता थी, चारू के साथ नहीं। उसके जाते ही 
                    दीदी ने मेरी ओर चेहरा घुमाया। उनके सुन्दर चेहरे की त्वचा अब 
                    भी चिकनी थी, लेकिन पिछली मुलाकात में दीए-सी जलती आँखों में 
                    जो लौ मचल-मचल कर हँसती थी, वह बुझ-सी गई थी और शायद इसीलिए 
                    आँखों के नीचे काली-काली झाइयाँ गहरा आई थीं। एक क्षण में 
                    मैंने दिखलाई देने वाला इतना परिवर्तन देख लिया था, लकिन इस 
                    परिवर्तन की जड़ को उनके बगैर बतलाए जीवन भर भी खोजना मेरे बस 
                    की बात न थी। ''क्यों नन्दू, तुम तो 
                    अमेरिका हो आए हो। कैसी जगह है?''''अच्छा, तो यह बात है! अमेरिका जा रही है तो उसमें ऐसे परेशान 
                    होने की क्या बात है? राजीव वहाँ है ही, यहाँ से प्लेन पर हम 
                    बिठला देंगे।''
 ''लगता है अब जाना ही 
                    पड़ेगा।'' फिर लम्बी सांस लेकर वह बोली तो मुझे चिढ़-सी आने 
                    लगी। ज़रा-सी बात को इतनी चढ़ा-बढ़ाकर मुझे क्यों त्रास दे रही 
                    है।'' ''क्यों, क्या राजीव ने टिकट 
                    भेज दिया है?'' ''नहीं, वह क्यों भेजेगा? 
                    क्या वह जानता नहीं कि मैं अपनी गृहस्थी छोड़ कर कहीं चैन नहीं 
                    पाती हूँ। फिर इतनी दूर वह क्यों बुलाएगा?'' ''तो फिर?'' ''तुम टिकट की चिन्ता क्यों 
                    करते हो? बताओ न, अमेरिका कैसी जगह है?'' दीदी की इस व्याकुल-सी आवाज़ 
                    ने मेरे अन्तर में तरह-तरह की शंकाओं को जन्म देना शुरू कर 
                    दिया। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था, मानो उनके अन्दर कोई दुर्बलता 
                    है जो उन्हें अपाहिज बना रही है और वह सहारा लेने के लिए हाथ 
                    बढ़ाती-बढ़ाती रुक रही है, तब भी अमेरिका से इसका क्या 
                    सम्बन्ध! राजेश के अमेरिका जाने के पहले भी ऐसे ही पूछा करती 
                    थी - अब कौन जा रहा है। अमेरिका के विषय में उत्सुकता छोड़ कर, 
                    यों भी वह इतनी बदली-सी दीखती है कि भय-सा लगने लगता है। जो 
                    अनहोना-सा था, कुछ-कुछ वैसा ही हो रहा था। क़रीब-क़रीब रोज़ ही आजकल उनके लिए जीजाजी का पत्र आता था। हर 
                    रोज़ हम सोचते, शायद आज वह बेचैन होकर अपनी गृहस्थी की दुहाई 
                    देती हुई रिजर्वेशन कराने के लिए कहेगी। तब सिर्फ़ अधिक से 
                    अधिक इतना ही होता कि हर पत्र के आते ही वह उदास हो जाती। 
                    धीरे-धीरे दो महीने बीत गए। इतनी लम्बी अवधि तक वह हमारे पास 
                    कभी नहीं रही थी। अब चारू भी किसी न किसी तरह दीदी के जाने की 
                    तिथि के विषय में पूछने लगी थी। इतने दिनों में मेरे अन्दर भी 
                    प्रश्नों के अम्बार लग गए थे। शंकाओं के समाधान के लिए मैं हर 
                    समय उपयुक्त अवसर की तलाश में रहने लगा था। दीदी अपनी सारी 
                    शक्ति के साथ कुछ छिपा रही थी। मुझे लगता था, वह दिन अब अधिक 
                    दूर नहीं, जब दीदी स्वयं सब कुछ बता देगी।
 आखिर वह दिन भी आ ही गया। मैं 
                    ऑफ़िस से लौटा तो वह अपने कमरे के सामने बरामदे में बैठी थी। 
                    उसकी गोद में वही परिचित नीले काग़ज़ का पन्ना था। उसका चेहरा 
                    देखकर मेरे पैर वहीं ठिठक गए। चेहरा ऐसा सपाट, वीरान लग रहा 
                    था, मानो कोई बाढ़ आकर सब कुछ बहा कर, पोंछ-पाँछ कर ले गई हो। 
                    मेरे मन में बहुत सारी शंकाएँ उभरने लगीं और हृदय के किसी कोने 
                    में दबा प्रश्न होठों पर आ ही गया, ''क्या हुआ दीदी?'' ''आओ, बैठो। मैं यही मना रही 
                    थी कि चारू के आने के पहले तुम आ जाओ। मैं अपने दु:खों की छाया 
                    भी तुम पर पड़ने नहीं देना चाहती थी, लेकिन अब तुम्हें बताए 
                    बिना चलेगा नहीं।'' लम्बी-सी सांस उनके अन्तर्मन से निकली। ''बोलो न दीदी। जब से आई हो 
                    मुझे तो तभी से कुछ अजीब-सा लग रहा था।'' ''क्या बताऊँ...'' उन्होंने 
                    शून्य दृष्टि से देखा, ''तुम्हें तो मालूम ही है कि कैसी सुखी 
                    गृहस्थी थी मेरी। तेरे जीजा-जैसा पति, राजेश, रुचिका जैसे 
                    बच्चे और ऐसी सम्पन्नता पा कर, किसी की और क्या इच्छा हो सकती 
                    है। रुचिका की शादी के बाद जब राजीव ज़िद करके अमेरिका चला गया 
                    तभी से मानो जीवन में नया मोड़ आ गया। तुम्हारे जीजा जी ने 
                    राजीव के लिए एक नया काम शुरू किया था, राजीव के जाने के बाद 
                    उन्हें स्वयं ही वह सम्भालना पड़ा। उनके हाथ के जादुई स्पर्श 
                    से इस नए काम में भी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होने लगी। 
                    घर में सम्पन्नता बढ़ती जा रही थी। वह बहुत व्यस्त रहने लगे। 
                    बाहर के दौरों की भी संख्या बढ़ गई। बात करने तक का समय नहीं 
                    मिलता उन्हें। मिलने आने-जाने वालों में ही बहुत-सा समय निकल 
                    जाता, उनके सत्कार में मैं व्यस्त रहने लगी, इस तरह मुझे 
                    गृहस्थी से समय नहीं मिलता, और उन्हें व्यापार से।  उस दिन भी वह रोज़ की तरह 
                    सहजरूप से घर आए, चाय अपने कमरे में पी थी, तब मेरे पास आए। 
                    मैं अकेली अपनी चाय लिए बैठी खीज रही थी। यों तो हम अब शायद ही 
                    कभी साथ बैठते थे, क्यों कि हमेशा कोई न कोई आया ही करता था, 
                    लेकिन उनका स्टडी रूम में अकेले बैठ कर चाय पीना अखर रहा था। 
                    मैं गूँगी-सी बैठी चाय की ओर देख रही थी और सोच रही थी कि 
                    स्टडीरूम में जाऊँ, तब तक वह आ गए थे। मैं कुर्सी पर बैठी थी, 
                    वह बाग की ओर खुलने वाले दरवाज़े पर खड़े हो कर देखने लगे। 
                    मेरी ओर पीठ किए वह खोये-खोये से बोले - ''चन्दा, तुम एक साल 
                    के लिए अमेरिका हो आओ।'' मैंन हँस कर पूछा, ''और मेरी 
                    गृहस्थी कौन सम्भालेगा?'' उन्होंने प्रश्न का उत्तर न 
                    देकर पूछा, ''इस गृहस्थी में अब रहा क्या है? सामान और नौकर। 
                    क्या तुम उनका मोह नहीं छोड़ सकती?'' मैं पहिले जैसी चंचल तरुणी 
                    होती तो छिटक कर कुर्सी से उठती और उनके गले में बाँहें डाल कर 
                    चौंकाती हुई कहती, ''सामान, नौकर से मेरी गृहस्थी नहीं बनी है। 
                    मेरे लिए तो तुम ही गृहस्थी हो।''  दीदी को शायद लगा कि वह कुछ 
                    ज़्यादा ही कह गई है। कुछ देर रुकी वह और कुछ याद करती-सी बैठी 
                    रही। फिर धीरे-धीरे बोलने लगी, उन्होने मेरे चेहरे की ओर देखा, 
                    पर लगता था जैसे कहीं और देख रहे हों। सामान और नौकरों से मोह 
                    वाली बात इस बार चुभ गई, और साथ ही वह सब कुछ याद आ गया, जिसका 
                    कई महीनों से मुझे धीमा-धीमा आभास हो रहा था। मै उठ खड़ी हुई 
                    और उपेक्षा पर क्रोध प्रगट करने के लिए कह बैठी, ''राजीव, 
                    रुचिका की शादी के बाद से मुझे किसी से मोह नहीं रह गया है। वह 
                    घर-बार, साज-समान उन्हीं की धरोहर है वह पल्टे और मेरे बेजान 
                    से झूलते हाथों को अपनी गरम हथेलियों से पकड़ कर झकझोरते हुए 
                    बोले, ''चन्दा, तुमने मुझे जिता दिया।'' मैं उनके चेहरे पर 
                    एकाएक फूट पड़ी खुशी को देख कर चकित रह गई। लगा कोई नया ही 
                    आदमी सामने खड़ा है। सैतालीस की उम्र में उनका चेहरा राजीव 
                    जैसा तरुण था। सहसा मुझे शीशे में से झाँकता अपना चेहरा याद आ 
                    गया। |