गुलमोहर की इस सारी हरकतों से
कई लोग नाराज़ हो चले थे। विभा तो प्रमुख थी ही, रोज़ कोई न
कोई शिकायत मुझसे होती गुलमोहर की। वह गुलमोहर जैसे बिलकुल बस
मेरा ही था। पर गुलमोहर मेरी क्या सुनता था, कुछ नहीं। सुने तब
न, इधर तो उसकी एकाध हरकत से मैं भी परेशान था। गुलमोहर के
पेड़ इधर तो मंझोले आने लगे हैं पर यह तो सिर ऊँचा उठाए ऊपर ही
उठता जा रहा था। बिजली, केबिल टेलीफ़ोन सबकी तारों को अपने
आगोश में भरता ऊँचा ही उठ रहा था। उसकी ऊपर की फुनगी हमारे
दुमंज़िले की छत से भी ऊपर निकलती थी। हवा चलती तो ऐसी झकोर
लेता जैसे कोई युवक अपने बालों को झटका दे रहा हो, पर यह
सौंदर्य कोई क्यों देखे। यहाँ तो तारें हिलती, शार्ट सर्किट
होता बिजली गुल, टेलिफ़ोन ख़राब रोज़ की यही शरारत, कोलोनी का
इधर का सारा क्षेत्र अंधेरे में डूब जाता। परीक्षा दे रहे
बच्चे शोर मचाते प्रिय धारावाहिक देखते लोग अकुलाते, रसोई में
मिक्सी चलाती गृहणियाँ बाहर झपटतीं, कटवाओ इस पेड़ को रोज़ का
झंझट। अब देखो बिजली कब आती है। घंटों लगेंगे, पता नहीं आएँगे
भी या नहीं बिजली वाले। भाई साहब इसे कटवाना ही पड़ेगा बड़ी
ग़लत जगह लगा है कोई छोटा-मोटा पेड़ होता तो ठीक था यह तो सिर
ही उठाए चला जा रहा है। इसे कटवाइए सब मुझे काटने को दौड़ते।
पूरा गुलमोहर कबीर की सूक्ति
निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाए मान कर लहराता झूमता ऊपर ही
उठा जा रहा था। जितना विरोधियों का स्वर तेज़ इतना ही उसका
सरसराना मुखर। गुलमोहर और मैं जुड़ गए थे। उसकी उधमबाजी की
सारी शिकायतें मेरे पास आतीं, मैं अकेला उसकी वकालत कहाँ तक
करता। कटवा दो भाई जिसे कटवाना हो। यों हरा पेड़ कटवाना कानूनी
अपराध है इतना आप सब समझ लीजिए।
पूरा पेड़ थोड़े न कटवा रहें
हैं कह कर पांडे जी और कुशवाहा जी ने दायीं बायीं दोनों मोटी
डालें उचड़वा दीं। जहाँ से डाले उचड़ी थीं वहीं लाल छौंहो से
गोल लंबोतरे घेरे से उभर आए थे पर कुछ दिन बाद वहाँ गाँठ-गाँठ
उभर आई और कोटर जैसे बन गए। एक खंजन का जोड़ा जो कई महीनों से
फुदक रहा था उसमें रहने लगा, एक बाहर आता तो दूसरा अंदर जाता,
उनका यही खेल हो गया। लॉन के पौधों पर दिन भर फुदकते कूदते
उड़ते रहते। दूसरी ओर एक गिलहरी आ बैठी कोटर से नुकीला मुँह
निकाले टिर्र-टिर्र करती सर्र से तने से नीचे उतरती, नीचे
ज़मीन पर दौड़ती, घास रौंदती फाटक फलांगती और सर्र से गुलमोहर
के ऊपर तक चढ़ जाती।
दो बड़ी डालें कट गईं पर
समाधान कुछ न हुआ, आए दिन वही बिजली गुल और गुलमोहर है कि ऊपर
ही उठा जा रहा है, ऊपर तो घना गुंबद-सा था ही, तारे फिर उलझीं।
इस बार कोलोनी के युवा वर्ग ने आव देखा न ताव इधर उधर की सारी
डालें काट मारीं। बिजली वालों को फ़ोन किया गया, जंक खाई - दो
पहियों वाली छोटी लोहे की रेढ़ी पर पच्चीस तीस मीटर लंबी सीढ़ी
लेकर खड़खड़ करते आ तो गए पर पेड़ काटना हमारा काम नहीं है, वह
दूसरा विभाग है वहाँ फ़ोन कीजिए। अरे भई पच्चीस पचास ले लो इधर
की दो चार डालें तो काट ही दो। जनता बड़े कष्ट में हैं -
रोज़-रोज़ बिजली जाती है बच्चे पढ़ाई करें भी तो कैसे।
इसे तो जड़ से कटवा दीजिए
वरना कुछ लाभ नहीं होगा, तने के पास खड़े होकर ऊपर देखते रहें,
इसे तो देखने के लिए सिर उठाना पड़ता हैं, चंद चार छ: पतली
डालें काट कूट कर इधर-उधर हजामत करके वे सब चले गए। पर पता
नहीं क्या हुआ उन्होंने कोई फेज़ बदल दिया था जो भी हो, बिजली
तो आ रही थी पर वोल्टेज एकदम कम। बिजली की राड जैसे लालटेन और
बल्ब जैसे खोमचे वाले की बुझती ढिबरी। फिर वहीं शिकायतें, भाई
साहब जब तक यह पूरा नहीं कटेगा ऐसे ही उत्पात मचता रहेगा। न
जाने सबके मस्तिष्क में एक तर्क ऐसा कुंडली मार कर बैठ गया था
कि मेरे लाख समझाने पर भी टस से मस नहीं हुआ कि गुलमोहर की
डालें और पत्तियाँ बिजली की तारों से सारी बिजली खींच लेते
हैं। गुलमोहर भ्रष्ट हो गया है सब मुझे घेरते सुनाते। सबने मिल
कर फिर गुलमोहर छाँट दिया, बस अब बीच का तना ही रह गया था।
नीचे से एकदम सीधा ऊपर जाकर
जहाँ पहली बार डालें उचेड़ी गई थीं वहाँ से अष्टवक्री होता ऊपर
गया था बस ऊपर की गोल घनी छतरी पत्तियों वाली बची जो अभी भी
फूलों से भरी थी।
मैं तब वाइरल बुखार से उठा ही
था, ज्वर ने जैसे सारा शरीर ही निचोड़ लिया था इतनी कमज़ोरी थी
कि चला तक नहीं जा रहा था जैसे - पैर घसीट कर उठाने पड़ते।
बाहर बरामदे में तख्त पर यों ही अलसाया-सा लेटा था। दिन
खिला-खिला था, आकाश धुला नीलाभ के अनंत विस्तार-सा और उसमें
नन्हें-नन्हें उजले बादल शावकों से दौड़ते कुलांचे भरते।
गुलमोहर के फूल लगभग समाप्त प्राय: थे पर अभी भी हरे आँचल में
कहीं-कहीं लाल सितारों से फूल टँके थे। हरी पत्तियों में
कत्थई-सी बड़ी पत्तियाँ बीजों से भरी तलवारों-सी लटक रहीं थीं।
उस हरीतिमा के विरल आँचल में कई पुष्प पत्र-विहीन सूखी टहनियाँ
वक्र टेढ़ी-मेढ़ी शून्य में विलीन होती जान पड़ती थीं। मैं
बहुत कमज़ोरी अनुभव कर रहा था, थका उदास-सा गुलमोहर को देख रहा
था। यह पेड़ भी पिछले पच्चीस साल से यहीं खड़ा है। सारी
डालियाँ काट दी गई हैं बस एक तना ऊपर तक उठता चला गया है, पर
कितना ऊँचा हो गया है न आजकल तो गुलमोहर छोटे ही होते हैं यह
तो जैसे आसमान छूना चाहता है। विभा मेरे लिए सूप लाई थी, यह भी
दिन भर मेरी सेवा में लगी रहती है, मैंने उसके हाथ से सूप और
समाचार पत्र दोनों ले लिए।
देखो -देखो मैं दिखाती हूँ कह
कर उसने समाचार पत्र लेकर बीच का पन्ना खोला, यह वास्तु
शास्त्र पर देखो कितना अच्छा लेख है। लिखा है घर के सामने ठीक
बीचों-बीच कोई पेड़ नहीं होना चाहिए, मंगलकारी नहीं होता बड़ा
अनिष्ट करता है। मैंने अचकचा कर विभा को देखा, लगा गरमा-गरम
सूप बेज़ायका हो गया है।
यदि यह गुलमोहर यहाँ न होता तो हम लागों ने और कौन से तीर मार
लिए होते। सभी बच्चे ठीक हैं, हम दोनों मजे में हैं, ठीक है
ऐसा क्या कष्ट है भला हम लोगों को।
अब जीवन में कुछ कष्ट दु:ख तो अनिवार्य है ही - होना भी चाहिए
ऐसा भी क्या कि कभी दु:ख का दर्द ही न भोगो क्यों?
पर विभा के पास कष्टों की
लंबी सूची थी और वह उन सारे कष्टों को गुलमोहर के खाते में लिख
रही थी। इधर जब से मोनिका का अपने पति से विवाद तलाक की अऱ्जी
लिए कोर्ट कचहरी के गलियारों में आगे पीछे घूम रहा है तब से तो
विभा ने वास्तुशास्त्र का बड़ा सहारा ले लिया है। पेड़ का घर
के सामने ठीक बीचों-बीच होना उसे अनिष्ट का साक्षात दैत्य लग
रहा है। कितना समझाया कि मोनिका बंगलोर के अपने फ्लैट में हैं
जहाँ पेड़ का नामोनिशान नहीं और इस गुलमोहर की तो एक पत्ती तक
नहीं वहाँ, पर विभा तो सुनने को तैयार ही नहीं थी, उन्होंने तो
स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि 'अब वह इसे कटवा कर ही रहेगी,
बेटी का दर्द माँ ही समझ सकती है, तुम क्या जानो।'
'ठीक है जो आपकी इच्छा हो करिए।' मैं चुप तख्त पर आँखें बंद
करके लेटा रहा, वह सूप का मग उठा कर अंदर चली गई।
मैंने गुलमोहर पर एक दृष्टि
डाली धीमी हवा में ऊपर की दो समानांतर डालियाँ हिल उठीं और एक
लाल पुष्प गुच्छ बीच में चमक उठा। मैंने कहा तुमने कुछ सुना
अभी तक तो व्यक्ति तुम्हारे विरुद्ध थे, फिर कालोनी तुम्हारी
विरोध में उठ खड़ी हुई अब तो शास्त्र भी तुम्हारे विरोध में हो
गए हैं फिर तुम तो जानते हो विभा एक बार जो ठान लेती है सही या
ग़लत कर के ही मानती है। इतने में क्या देखता हूँ कि उन दो
डालियों के पृष्ठभाग में एक बहुत ही उजला चमकता-सा बादल आ कर
टिक गया और दो डालियों के बीच एक उजले पटल का सुंदर श्वेत
फ्रेम-सा बन गया। उसके कोने में अग्निपुष्प से दो चार लाल फूल,
इधर लंबी मुड़ी हुई एक दो भूरी-कत्थई फलियाँ, सूखी पतली
टहनियाँ वक्र गोलाकार उर्ध्वमुखी क्षीण से क्षीणतर होती,
नुकीली होती, विलीन होती हुई और नीचे हरी धानी पत्तियाँ। एक
अत्यंत सुंदर मनभावन चित्र फ्रेम में सजा जो चीनी जापानी शैली
का एक उत्कृष्ट मास्टर पीस, बस दो चार स्ट्रोक्स। मन हुआ विभा
को बुलाऊँ अरे आकर देखो तो कितना सुंदर चित्र है पर वह आवारा
बादल तो आगे सरक लिया तिर गया, पलक झपकते सारा सजीला चित्र
विलीन छिन्न भिन्न।
गुलमोहर क्या तुम यही कहना
चाहते हो। तो क्या तुमने मेरा दर्द समझा है मेरी व्यथा को
भाँपा है।
मैं तुम्हें नहीं कटने दूँगा गुलमोहर, नहीं कटने दूँगा चाहे
कुछ हो जाए। मैंने ही तुम्हें यहाँ रोपा था ठीक घर के सामने
बीचों-बीच, इसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं तुम तो किनारे पर
ही उगे थे। पर तुम यहाँ नहीं होते तो क्या मोनिका का तलाक नहीं
होता। छोटे थे तो यदा-कदा कभी पानी दिया हो फिर हम लोगों ने
तुम्हारी क्या सार-संभार की। उन दिनों वास्तुशास्त्र का नाम
किसने सुना था, मैंने तो नहीं ही सुना था, नहीं तो बंधु मैं
तुम्हें कहीं किनारे कहीं सामने पार्क में ही लगा देता। खैर जो
हुआ सो हुआ। मुझे थकान लग रही थी करवट लेकर लेट रहा।
मोनिका तलाक के बाद उसी के
शब्दों में मुक्तिपर्व मनाने अपने दोनों बेटों के साथ आ रही थी
हमारे पास। और था ही कौन मुझे ही जाकर उसे स्टेशन से लाना
पड़ा। जैसे ही स्टेशन पहुँचा था बादल घिरने लगे थे - लौटते तो
आकाश घटाटोप बादलों से भर उठा। आकाश धरती के बीच सब सँवलाया
श्यामल हो उठा और ऊपर दैत्याकार गरजते टकराते मेघों की घन घोर
घटा। कार फाटक पर रोक कर अभी सबने बरामदे में पैर रखा ही था कि
बड़ी-बड़ी बूँदे, चना-ज़ोर-गरम की गोल चिक्कियों जितनी
छितरी-छितरी तेज़ पानी बरसने की तड़-तड़ करती आवाज़ पास आती जा
रही थी।
सामान अंदर रखते-रखते तो वह
ताबड़तोब मूसलाधार वर्षा कि चारों तरफ़ प्लास्टिक की पारदर्शी
झिलमिलाती-सी दीवार-सी उठ खड़ी हुई। घनघोर गर्जन-तर्जन, तड़कती
तड़ित नभ पर नसों के जालसी चमकती बिजली और फिर तो बिजली इतनी
चमकी गरजी, कि प्रकाश का एक तेजपुंज शोले-सा सारे बरामदे को
लहका गया।
"बड़े समय से आ गए आप सब।" विभा ने चैन की सांस ली वह तेज़
अंधड़ पेड़ों को तो दैत्य-सा झिंझोड़ रहा था, मेघों की भयंकर
टकराहट, जैसे पृथ्वी को नष्ट करने का अट्टाहास, झमाझम मूसलाधार
पानी। बिजली फिर कौंधी लपकता प्रकाश पूरे बरामदे को लहका गया।
सारे पेड़ झुक-झुक कर अंधड़ से पनाह माँग रहे थे गुलमोहर की
ऊपर की डालियाँ और पत्तियों की छतरी झकोरे खा रही थी।
बिजली एकदम गुल, घना अंधेरा,
लगता था पूरा शहर ही अंधेरे में डूब गया, घनघोर अंधेरा घुप्प
घना पानी की तड़तड़ाहट से हाँफता फुंफकारता कि तभी भयानक
चीत्कार-सा करता कोई पेड़ अड़बड़ा कर चरमराता टूट कर गिरा। कोई
मोटी डाल फाटक से टकराती गिर गई, बिजली फिर चमकी गुलमोहर टूट
कर गिर पड़ा था। पानी सारी रात बरसता रहा, अंधड़ कहीं सबेरे
जाकर थमा। सवेरे-सवेरे उठकर सबसे पहला काम गुलमोहर को देखना
था, बीचोबीच वहीं से टूटा था जहाँ सबसे पहले दायी बायीं
डालियाँ काटी गई थीं। पैंतालिस का कोण बनाता ऊपर का पूरा का
पूरा तना तारों से उलझ लिपटा फँसा सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा
था जैसे दंडवत कर रहा हो। चारों तरफ़ डालियों में तारें ही
तारें उलझी पड़ी थीं, इधर की डाल फाटक को बचाती हुई गिरी थी।
उसकी आखिरी पंत्तियों का गुच्छ कठिनाई से एक फीट की दूरी पर था
जहाँ मैंने कार खड़ी की थी। गुलमोहर ज़रा भी आगे बढ़ कर गिरा
होता तो कार तो चकना चूर ही हो जाती और अगर समूचा पेड़ जरा और
आगे की तरफ़ बढ़ कर गिरा होता तो घर की चाहर दीवारी फाटक सब
टूटते। मेरे घर और कार को बाल-बाल बचाता गुलमोहर का लंबा टेढ़ा
बांका तना भूलुंठित पड़ा था।
झुंड के झुंड कालोनी के सारे
लोग चारों तरफ़ इकठ्ठे होते जा रहे थे अब इसे जल्द से जल्द
हटवाइए नहीं तो बिजली कल तक भी नहीं आएगी। बिजली वालों को फ़ोन
कर दिया गया था, सारा शहर ही टूटे वृक्षों से पटा पड़ा है
देखिए कब तक आ पाते हैं। वह तो शाम तक ही आ सकते थे उसके पहले
ही न जाने कहाँ से महरियाँ-मजूरिनें-मज़दूर उनके अधनंग बच्चे
कुल्हाडियाँ, बाँके, दरातियाँ लेकर आ पहुँचे टिड्डी दल की तरह
और आनन-फानन में उसे काटने में जुट गए थे। डाल डाल काट रहे थे
- पत्ते नोच रहे थे, गठ्ठर बना रहे थे, डालियों को सड़क पर
घसीट रहे थे।
विभा अपनी वाणी में जितनी
कोमलता भर सकती थीं, भरकर बोली थी इन्हीं से नीचे का तना भी
कटवा देते हैं, अब क्या पनपेगा ये ठूँठ-सा खड़ा अच्छा नहीं
लगेगा।
मैंने अपनी पत्नी को मर्मभेदी दृष्टि से देखा था, लगा था अंदर
हुलस रही हैं कि बला टली। वास्तुशास्त्र के प्रमाण से अडिग
खड़ा अमंगल अपने आप ही टला जा रहा था। कहना सुनना क्या था चुप
रहा। पर सजल नेत्रों से मन ही मन मैंने गुलमोहर को प्रणाम किया
था बंधु तुमने मेरी कार और मेरे घर की चाहर दीवारी ही नहीं
बचाई, तुमने मुझे भी स्वयं इस तरह गिर टूट कर तुम्हें कटवाने
के निरंतर बढ़ते दबाव में तुम्हें कटवाऊँ या न कटवाऊं के
अप्रिय निर्णय की उहापोह से भी बचा लिया है। तुमने मुझे धर्म
संकट से उबारा है गुलमोहर। सबकी दृष्टि बचा कर मैंने अपनी
आँखें पोंछ ली थीं।
इस समय भी मेरी आँखें भर आईं
थीं, रात और उदासी के मिले-जुले अंधियारे में मैंने फिर अपनी
आँखें पोंछ लीं। |