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'आज फिर आपको नींद नहीं आ रही क्या,' विभा ने बड़ी आत्मीयता से पूछा था, मेरा मन अभी भी एक अनकही उदासी से घिरा था, विभा से इस उदासी को बाँटा नहीं जा सकता, यह मैं भली प्रकार जानता था, मैंने आँखें बंद करके सोने का उपक्रम किया। पर नींद आ नहीं रही थी।

आज भी एकदम याद है मौरंग बालू डाला जा चुका था, मजदूर गिट्टी तोड़ने में जुटे थे, नई इंटों के लाल चट्टे लग गए थे - और बिलासपुरी लेबर रहने के लिए इंटों पर इंटें टिका कर अपनी कोठरियाँ बना रहे थे। पंडित जी ने भूमिपूजन का मुहूर्त दो दिन बाद निकाला था तो वह दो दिन मैंने ऋण लेने की कार्यवाही पूरी करने और बैंक के चक्कर लगाने में काटे थे। दो दिन बाद पूजन की सामग्री लिए जब वहाँ पहुँचे थे तो मेरी दृष्टि गिट्टी के बीचोबीच अपना नन्हा सिर उठाए पत्तियाँ हिलाते एक पौधे पर गई। चारों दिशाओं में चौड़ी चाकल पत्तियाँ फैलाए वह खड़ा था, पत्थरों को फोड़कर ऊपर उमगता-सा। हर पत्ती के बीच में एकदम सीधी लकीर-सी हरी उसकी डंडी जिसके एक ही बिंदु से दोनों ओर निकली पत्तियाँ हवा की हल्की हिल्कोर से ऊपर उठती और फिर पूरी पत्ती करवट लेती ऊपर उठती। रात पानी बरसा था अभी भी बीच की डंडी के नीचे की ओर पानी की बूँदे मोतियों की लड़ी-सी लटक रही थीं। आश्चर्य हुआ था मुझे इतनी हवा आँधी के बाद भी यह बूँदे टपकी क्यों नहीं।

भैय्या जी यह गुलमोहर है। बड़े जीवट का पेड़, गर्मी के झुलसते घाम में यह खिलता है, इसे देखकर अमलतास खिलती हैं। जब कहीं फूल नहीं होते तब यह फूलता है, इसे उखाड़ फेंकिए, नहीं तो चार दिन में आपकी बराबरी करने लगेगा। मजदूर ने उखाड़ फेंकने को हाथ बढ़ाया ही था कि मैंने जैसे पूरा दम लगा कर कहा था रहने दो रहने दो, उखाड़ो मत इसे। उस नन्हें धानी मस्ती से झूमते पेड़ के लिए बड़ी ममता-सी उमड़ आई थी। बड़े जतन से उसे वहाँ से उठा कर बहुत नाप जोख कर जहाँ - हमारी चाहर दीवारी होगी, उसके बाहर नाली के पार सड़क के किनारे हरी घास की पट्टी में एक गड्ढा खुदवा कर मैंने उसे रोप दिया।

मकान बनवाते छ: महीने कैसे सरक गए पता ही न चला मजदूर जब दीवारों की तरी करते तो उसे भी जैसे नहला देते, धुल कर हुलस उठता। कई बार आते-जाते उसकी नन्हीं कोमल पत्तियाँ छू जातीं किसी नन्हें शिशु की कोमल उंगलियों-सा स्पर्श मृदुल विश्वास भरा।

उस दिन छत पड़ रही थी ढोला बाँधा जा चुका था, गोल-गोल घूमती मशीन के गोल सिलिंडर से निकलते गिट्टी सीमेंट के घोल को तसलों में भर-भर कर मजदूर छत पर डाल रहे थे। मैं छत पर ही खड़ा था, गुलमोहर लंबा हो आया था। उसका भूरा हरा तना, तने की मुटाई बस किसी किशोर की बाँह-सी। देखता क्या हूँ - बड़ी बेफ़िक्री के आलम में भारी डील डौल वाली भैंसें पगुराती हुई चली आ रही थीं। कड्यों के सींगों में जंगली लतरों के मीटर दो मीटर के टुकड़े लटक रहे थे। दायें बांये हिलती डुलती कई आगे निकल गईं पर एक को शायद खुजली मची तभी। गुलमोहर के तने से सटकर जो उसने अपनी पीठ रगड़ी तो तना तो चरमराया कि बस अब टूटा तब टूटा, पूरा गुलमोहर झकोरे खा कर हिल रहा था। मैं एकदम नीचे भागा, महिषी को जैसे-तैसे खदेड़ा। तना जगह-जगह से छिल गया था। बस खरोंच ही लगी है यह कहो तुम्हारा फ्रेक्चर नहीं हुआ उसके तने पर हाथ फेरते हुए मैंने कहा, बच गए तुम। पूरा गुलमोहर सीधा होकर हिला जैसे उसने एक लंबी ठंडी सांस ली हो।

छत पर गिट्टी डालने की अफरातफरी मची थी, कोई भी तो खाली नहीं था। सुमेर आया था घर से विभा का संदेश लेकर कि लौटते समय अरुण की यूनिफ़ार्म दर्जी के यहाँ से अवश्य लेता आऊँ। मैंने उसे ही गुलमोहर के चारों तरफ़ इंटों की गोल जाली बनाने पर लगा दिया। शाम को सुमेर पर तो बेभाव की पड़ी मैं भी कहाँ बचा था विभा की पैनी दृष्टि से। यूनिफ़ार्म तो आने से रही, सुमेर को और ले बैठे।

'सुनो तो सही मेरी अच्छी विभा,' मैंने कितना प्यार उड़ेला था शब्दों में। इंटों का घेरा न बनता तो बच न पाएगा बेचारा, अभी तो बहुत छोटा है अकेला इस बेरहम दुनिया में, जो चाहे तोड़-मरोड़ डाले, नोच मारे।

'तुम तो हो न उसके सबसे बड़े सगे निकट संबंधी नज़दीकी रिश्तेदार!' कहती हुई विभा चाय बनाने चली गई थी।
मकान अपने निर्माण के सभी क्रमों को एक-एक करके पार कर रहा था, सामने लॉन में नल की फिटिंग चल रही थी, गुलमोहर सामने ही तो था। इंटों के ऊँचे गोल घेरे से उसकी पत्तियाँ बाहर झाँकने का प्रयत्न कर रहीं थीं जैसे कोई किशोर पंजों के बल उचक कर मुंडेर से बाहर झांकने की कोशिश कर रहा हो। 'बड़े हो रहे हो क्यों' मैंने एक वाक्य उसकी ओर उछाल दिया।

दीपावली पर ही गृह प्रवेश था, कुमकुम़ों के प्रकाश से सारा घर दिपदिप कर रहा था, माँ ने दिए भी जलाये थे। एक दिया मैंने गुलमोहर की जड़ के पास भी रख दिया, स्निग्ध प्रकाश से उसका तना जगमगा उठा। मैंने उसके तने पर हाथ फेरा। दोनों बंद हाथों जैसी बांये अगल-बगल दो डालें निकल आई थीं दाहिने बायें दो बाहों-सी। ऊपर गुंबद-सी गोल हरी कैनोपी एक सुंदर वृक्ष। तने पर हाथ फेरते ऐसा लगा जैसे उर्ध्वमुखी उर्जा बह रही हो स्पंदन-सी।

इस घर के निर्माण में तुम्हारा भी कितना सहयोग रहा है न। मज़दूर अपने अंगोछे गोल-गोल करके सिर के नीचे रखकर तुम्हारी छाँव में लेट लेते थे, उनके नंग धड़ंग मस्त बच्चे यहीं खेलते रहे। लोहार ने यही बैठकर कितनी सरियाँ मोड़ी और अपना झबरा मोती तो यहीं गोल घुंडी बना पड़ा रहता था। कितनी मज़दूरिनों ने तुम्हारे तने से टिक कर अपने आंचल में ढक कर गद्बदे बच्चों को दूध पिलाया और अपनी थकान उतारी, तुम छतरी-सा सबको ढके रहे।

अब सब विदा हो लिए। अब तो तुम अकेले रह सकते हो न। मैंने उसके तने पर फिर हाथ फेरा, हवा के हल्के झोंके से उसकी पत्तियाँ हिली, सरसराई जैसे कह रहा हो आप तो हैं न।

उस दिन का डरा सहमा चरमराता भूलुंठित-सा होता भीमकाय महिषी से जूझता वह नन्हा पेड़ आज सिर उठाए खड़ा था जैसे कोई बच्चा वयस्क होकर घर की सुरक्षित छत की छाँह का मोह त्याग खुले आकाश के नीचे हाथ पैर मारने के लिए निकल पड़ा हो।

फिर जीवन का चिरपरिचित क्रम, बच्चों के स्कूल होम वर्क कालिज, विश्वविद्यालय, प्रतियोगिताएँ जीतना हारना, अरुण का डाक्टर बनना, वरुण का इंजिनीयर, करुण को अपने व्यवसाय टिकाने में दिन रात की दौड़ धूप, मोनिका का एम बी. ए. करना, उसकी बारात। हर्ष पूरित आँसुओं से भीगी विदाई, एक-एक कर बहुओं का आना, एक भरे पूरे सरोवर से तीन धाराओं का तीन दिशा में निकल जाना, माँ का पूजा करते-करते महाप्रयाण, विभा का काजल से काले बालों का चाँदी की तारों में बदलना, गठिया का मेरे घुटने को थोड़ा टेढ़ा करना, एक लंबी यात्रा चौड़े राजमार्ग तो संकरी रपटती पगडंड़ियाँ, मलयानिल के मृदु स्पर्श से अहसास तो अंधड़ आंधियों के बवंडर, दंश मारने को आतुर सर्प फुफकात तो चुपचाप धरा अंचल में मिलती शेफाली से अनुभव, पूनम का चाँद तो तपता हुआ सूरज और सबका साक्षी बना चुपचाप खड़ा यह गुलमोहर।

बच्चों ने किलकारियों से घर भरा तो सुबह कुछ चाहा भी, उत्पात भी मचाया कई अप्रिय प्रसंगों में घसीटा पर यह गुलमोहर हिलती डुलती जालीदार धूप छाँह देते हुए घर के बाहर ही खड़ा रहा, सड़क के किनारे का एक पेड़। लॉन के पौधों को तो पानी भी मिला पर इसे तो हमने पानी भी नहीं दिया। इसके जड़ों ने धरती से ही रस लिया, घन बरसे तो अपनी हरी अंजुरियों से जल पिया, सूरज ने आग उगली तो जलती धूप को पत्तियों में समेट अपने नीचे धरती पर श्यामल शीतल छांह की प्रिंटेड चादर बिछा दी। पवन चली तो सरसराया, अंधड़ आया तो झकोरे खाए, हिला-झूमा-टिका सब अकेले ही करता रहा, चुपचाप हमारे घर को अपने नाम की पहचान देता- अच्छा वह गुलमोहर वाला घर।

पर शायद मैं अधिक ही भावुक हो रहा हूँ, इतना अकेला तो नहीं रहा। राह चलती धेनुएँ यहीं बैठ कर सुस्ताईं, अलस पड़ी गौओं ने उचक-उचक कर कूदते चोंचे घुमाते कौओं से अपने कान खुदवाए। न जाने कितने सब्ज़ी वाले यही ठेले खड़े करके सुस्ताए, न जाने कितनी कारें यहीं आकर रुकीं। बकरियाँ इसके तने के पास आकर मिमियाईं घास चरा उछलकूद मचाई और भाग खड़ी हुईं। न जाने कहाँ से वह चोट खाया आगे की दोनों बँधी टाँगों से उचकता घोड़ा भी इसी के नीचे आकर खड़ा हो जाता था। कितने कठफुडवे जैसे इसके द्वार खुलवाने को तने पर घंटो ठक-ठक करते रहे और चीटें-चीटियों की तो पूछिए मत बड़े अधिकार से इसके चारों तरफ़ अपनी छेद-सी बिलें बना कर रवे-सी दानेदार मिट्टी के गोल मनभावन घेरे बना डाले। जब पहली बार खिला था तो कैसे आठ दस अग्नि स्फुलिंग सुर्ख अंगारों से फूल इसकी घनी हरी पत्तियों के आँचल में चमक उठे थे। फिर तो हर वर्ष खिलाने लगा सर्वांग लाल फूलों के छापे वाली छतरी-सी लगाए। कभी-कभी तो पोर-पोर खिल उठता, रोम-रोम खिल उठता जैसे आकाश को लाल पीताभ फूलों का गुलदस्ता भेंट कर रहा हो।

विभा अपने बेटे-बहुओं, बेटी-दामाद, पोते-पोतियों नातियों के प्रसंग से ज़रा उबर चली थी पर खीझी-खीझी रहती। बस मैं और वह, उसका समय ही न कटता। घर झाड़ पोछ, सजा-सँवार कर रखती तो दूसरे दिन तक वैसे ही पड़ा रहता तो सारी खीझ गुलमोहर पर उतारती, लॉन तो बरबाद ही कर डाला है - सारे फूल झड़े पड़े रहते हैं कितना कचरा करता है। ज़रा भी सुगंध नहीं है इसके फूलों में। सारी धूप रोक लेता हैं, लॉन में घास तक नहीं उग पाती। जाड़ों में भी धूप नहीं मिलती, कितना बड़ा होता जा रहा है सारा घर ही ढक मारा है।

पर गुलमोहर बड़ा ही होता चला गया। ज़रा से वायु के झोंके से पूरी पत्तियाँ ऐसे धीरे-धीरे हिलतीं जैसे कोई गुरूग्रंथ साहब पर चँवर डुला रहा हो। पर कितनी देर क्षण भर को ही न। सड़क के पार अमलतास खिली पड़ी थी घंटियों झुमकों से पीले फूलों में हरे रंग का सजीला मीना ऐसे कर्णफूलों से पीले फूलों के गुच्छ के गुच्छ। गुलमोहर झूम-झूम कर उसे छूने को अकुलाता पर छू न पाता तब भी झाँक-झूँक तो करता ही रहता।

हमारे बगल के पड़ोसी सभासद हरिनाथ पांडे जी को पता नहीं क्या सूझी कि सभासद के कोटे में मिली सीमेंटी बेंचो की एक बैंच इसी के नीचे डलवा दी।
"यह आपने क्या किया पांडे जी, अरे क्यों परेशान हैं दो चार महीने यहीं रहने दीजिए। फिर तो अंदर रखना ही है।"

उस साल गर्मी ने जैसे सारे रिकार्ड तोड़ दिए, तपिश इतनी कि सीमेंट तड़क जाए धूप में। धूप में त्रस्त कितने लोग ठंडी छाँह में उस बेंच पर आकर बैठ जाते घना पेड़ अपने शीतल आँचल में ले लेता। इधर कुछ दिन से एक लड़का लड़की उस पर बैठकर घंटों बतियाते रहते, लड़की सहमी डरी-सी। लड़का उसे धीरज बँधाता-सा विभा बहुत तुनकती, अब लड़का लड़की बैठें हैं तो गीता का पाठ तो कर नहीं रहे होंगे। अब तो बरामदे में भी नहीं बैठ सकते, हर समय कोई न कोई बेंच पर चढ़ा बैठा है। एक दिन रात में लगा बेंच पर कुछ खटर-पटर हो रही है सबेरे देखा तो व्हिस्की की खाली बोतल हवा में लोट रही थी।

इधर के पड़ोसी कुशवाहा जी ने तो विरोध का परचम लहरा दिया। यह तो अड्डा बन जाएगा, आजकल के छोकरों को आप जानते नहीं। किसी तरह उन्हें शांत किया ही था कि एक निम्नमध्यवर्गीय दंपति यहीं आकर बैठने लगा, घर संसार की सारी बातें मान मनोबल प्यार मनौवल हालचाल डाँट डपट सब होती वहीं, लगता था घर में प्राइवेसी बिलकुल नहीं थी। एनीमिया से त्रस्त वही दुबली पतली औरत उससे सटी सो जाती। अब तो कुशवाहा आपे से बाहर हो गए, रोज़ ही लड़ते हैं यहाँ मियां बीबी की लड़ाई तो बड़ी छुतही बीमारी है, उड़ कर लगती है, पूरे मुहल्ले को ले डुबेगी। कटवाइये इस गुलमोहर को, न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी, पांडे जी तब कहाँ रख पाएँगे अपनी बेंच। इधर एक नया प्रसंग जुड़ गया। कालोनी भर की जमादारिने अपने लंबे झाडू बंदूक-सा उठाए आतीं और इसके तने से टिका देतीं, फिर चलती उनकी गोष्ठी तो पांडे जी क्या उनकी श्रीमती जी भड़क उठीं। पर जमादारिने किससे दबने वाली थीं। सड़क का पेड़ है, आपका पेड़ था तो अंदर लगातीं, अब तो आप सब लोग कमरों के अंदर पेड़ लगा लेते हैं, हम सब जानते हैं। इसकी छाया सबकी छाया, इसकी बेंच सबकी बेंच, जो बैठना चाहे बैठे। सब ठसके से बेंच पर बैठ रहतीं। श्रीमती पांडे तो बड़ा भुनभुनाती कहे देती हूँ यह बेंच घर में तो लाकर रखना मत।

हम सब लोग नोंक-झोंक करते रहते और गुलमोहर लहर-लहर हिलहिल कर धूप छाँह की टेपेस्ट्री बुनता, किसी को अपने नीचे बैठने से न रोकता। पर गर्मी तो कहर ढा रही थी। यदाकदा हमारे घर की कॉल बेल बज उठती। माता जी ज़रा ठंडा पानी पिला देतीं, होंठ एक दम सूख रहे हैं। विभा भुनभुनाती घर न हो गया प्याऊ हो गया, और पानी भी पिएँगे ओक से। ओक भी क्या चीज़ है पचास प्रतिशत पानी तो यों ही बह जाए, और चाहिए सबको ठंडा पानी। दिन भर फ्रिज में बोतलें ही भर-भर रखते रहो।

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