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					गाँव में अर्जुन और मोहन नाम के दो किसान रहते थे। अर्जुन धनी 
					था, मोहन साधारण पुरुष था। उन्होंने चिरकाल से बद्रीनारायण की 
					यात्रा का इरादा कर रखा था। अर्जुन बड़ा सुशील, साहसी और दृ़ढ़ 
					था। दो बार गाँव का चौधरी रहकर उसने बड़ा अच्छा काम किया था। 
					उसके दो लड़के तथा एक पोता था। उसकी साठ वर्ष की अवस्था थी, 
					परन्तु दाढ़ी अभी तक नहीं पकी थी। मोहन प्रसन्न बदन, दयालु और 
					मिलनसार था। उसके दो पुत्र थे, एक घर में था, दूसरा बाहर नौकरी 
					पर गया हुआ था। वह खुद घर में बैठा-बैठा बढ़ई का काम करता था।
					
 बद्रीनारायण की यात्रा का संकल्प किए उन्हें बहुत दिन हो चुके 
					थे। अर्जुन को छुट्टी ही नहीं मिलती थी। एक काम समाप्त होता था 
					कि दूसरा आकर घेर लेता था। पहले पोते का ब्याह करना था, फिर 
					छोटे लड़के का गौना आ गया, इसके पीछे मकान बनना प्रारम्भ हो 
					गया। एक दिन बाहर लकड़ी पर बैठकर दोनों बूढ़ों में 
					बातें होने लगी।
 मोहन—क्यों भाई, अब यात्रा करने का विचार कब है?
 अर्जुन—जरा ठहरो। अब की वर्ष अच्छा नहीं लगा। मैंने यह समझा था 
					कि सौ रुपये में मकान तैयार हो जाएगा। तीन सौ रुपये लगा चुके 
					हैं अभी दिल्ली दूर है। अगले वर्ष चलेंगे।
 मोहन—शुभ कार्य में देरी करना अच्छा नहीं होता। मेरे विचार में 
					तो तुरंत चल देना ही उचित है, दिन बहुत अच्छे हैं।
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