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					 अर्जुन—दिन 
					तो अच्छे हैं, पर मकान को क्या करुँ! इसे किस पर छोडूँ? मोहन—क्या कोई सँभालने वाला ही नहीं, बड़े लड़के को सौंप दो।
 अर्जुन—उसका क्या भरोसा है।
 मोहन—वाह वाह, भला बताओ तो 
					कि मरने पर कौन सँभालेगा? इससे तो यह अच्छा है कि जीते जी सँभाल 
					लें। और तुम सुख से जीवन व्यतीत करो।
 अर्जुन—यह सत्य है, पर किसी काम में हाथ लगाकर उसे पूरा करने 
					की इच्छा सभी की होती है।
 
 मोहन—तो काम कभी पूरा नहीं होता, कुछ न कुछ कसर रह ही जाती है। 
					कल ही की बात है कि रामनवमी के लिए स्त्रियाँ कई दिन से तैयारी 
					कर रही थीं—कहीं लिपाई होती थी, कहीं आटा पीसा जाता था। इतने 
					में रामनवमी आ पहुँची। बहू बोली, परमेश्वर की बड़ी कृपा है कि 
					त्योहार बिना बुलाए ही आ जाते हैं, नहीं तो हम अपनी तैयारी ही 
					करती रहें।
 
 अर्जुन—एक बात और है, इस मकान पर मेरा बहुत रुपया खर्च हो गया 
					है। इस समय रुपये का भी तोड़ा है। कमसे-कम सौ रुपये तो हों, 
					नहीं तो यात्रा कैसे होगी।
 
 मोहन—(हँसकर) अहा हा! जो जितना धनवान होता है, वह उतना ही 
					कंगाल होता है तुम और रुपये की चिंता! जाने दो। मैं सच कहता 
					हूँ, इस समय मेरे पास एक सौ रुपये भी नहीं, परन्तु जब चलने का 
					निश्चय हो जायेगा, तो रुपया भी कहीं न कहीं से अवश्य आ ही 
					जाएगा। बस, यह बतलाओ कि चलना कब है?
 अर्जुन—तुमने रुपये जोड़ 
					रखे होंगे, नहीं तो कहाँ से आ जाएगा, बताओ तो सही।
 मोहन—कुछ घर में से, कुछ माल बेचकर। पड़ोसी कुछ चौखट आदि मोल 
					लेना चाहता है, उसे सस्ती दे दूँगा।
 अर्जुन—सस्ती बेचने पर पछतावा होगा।
 मोहन—मैं सिवाय पाप के और किसी बात पर नहीं पछताता। आत्मा से 
					कौन चीज़ प्यारी है!
 अर्जुन—यह सब ठीक है, परन्तु घर के कामकाज बिसराना भी उचित 
					नहीं।
 मोहन—और आत्मा को बिसारना तो और भी बुरा है। जब कोई बात मन में 
					ठान ली तो उसे बिना पूरा किए न छोड़ना चाहिए।
 
 ***
 
 अन्त में चलना निश्चय हो 
					गया। चार दिन पीछे जब विदा होने का समय आया, तो अर्जुन बड़े 
					लड़के को समझाने लगा कि मकान पर छत इस परकार डालना, भूसी बखार 
					में इस भाँति जमा कर देना, मंडी में जाकर अनाज इस भाव से 
					बेचना, रुपये संभालकर रखना, ऐसा न हो खो जावें, घर का परबन्ध 
					ऐसा रखना कि किसी परकार की हानि न होने पावे। उसका समझाना 
					समाप्त ही न होता था।
 
 इसके प्रतिकूल मोहन ने 
					अपनी स्त्री से केवल इतना ही कहा कि तुम चतुर हो, सावधानी से 
					काम करती रहना।
 
 मोहन तो घर से प्रसन्न मुख बाहर निकला और गाँव छोड़ते ही घर के 
					सारे बखेड़े भूल गया। साथी को प्रसन्न रखना, सुखपूर्वक यात्रा 
					कर घर लौट आना उसका मन्तव्य था। राह चलता था तो ईश्वर सम्बन्धी 
					कोई भजन गाता था या किसी महापुरुष की कथा कहता। सड़क पर अथवा 
					सराय में जिस किसी से भेंट हो जाती, उससे बड़ी नमरता से बोलता।
 
 अर्जुन भी चुपके-चुपके चल तो रहा था, परन्तु उसका चित्त 
					व्याकुल था। सदैव घर की चिंता लगी रहती थी। लड़का अनजान है, कौन 
					जाने क्या कर बैठे। अमुक बात कहना भूल आया। ओहो, देखू, मकान की 
					छत पड़ती है या नहीं। यही 
					विचार उसे हरदम घेरे रहते थे यहाँ तक कि कभी-कभी लौट जाने को 
					तैयार हो जाता था।
 
 ***
 
 चलते-चलते एक महीना पीछे वे पहाड़ पर पहुँच गए। पहाड़ी बड़े अतिथि 
					सेवक होते हैं अब तक यह मोल का अन्न खाते रहे थे। अब उनकी 
					खातिरदारी होने लगी।
 
 आगे चलकर वे ऐसे देश में 
					पहुँचे, जहाँ दुर्घट अकाल पड़ा हुआ था। खेतियाँ सब सूख गई थीं, 
					अनाज का एक दाना भी नहीं उगा था। धनवान कंगाल हो गए थे धनहीन 
					देश को छोड़कर भीख माँगने बाहर भाग गए थे।
 
 यहाँ उन्हें कुछ कष्ट हुआ, अन्न कम मिलता था और वह भी बड़ा 
					महँगा। रात को उन्होंने एक जगह विश्राम किया। अगले दिन चलते 
					चलते एक गाँव मिला। गाँव के बाहर एक झोंपड़ा था। मोहन थक गया 
					था, बोला—मुझे प्यास लगी है। तुम चलो, मैं इस झोंपड़े से पानी 
					पीकर अभी तुम्हें आ मिलता हूँ। अर्जुन बोला—अच्छा, पी आओ। मैं 
					धीरे धीरे चलता हूँ।
 
 झोंपड़े के पास जाकर मोहन ने देखा कि उसके आगे धूप में एक 
					मनुष्य पड़ा है। मोहन ने उससे पानी माँगा, उसने कोई उत्तर नहीं 
					दिया। मोहन ने समझा कि कोई रोगी है।
 
 समीप जाने पर झोंपड़े के 
					भीतर एक बालक के रोने का शब्द सुनायी दिया। किवाड़ खुले हुए थे। 
					वह भीतर चला गया।
 
 ***
 
 उसने देखा कि नंगे सिर केवल एक चादर ओढ़े एक बुढ़िया धरती पर 
					बैठी है, पास में भूख का मारा हुआ एक बालक बैठा रोटी, रोटी, 
					पुकार रहा है। चूल्हे के पास एक स्त्री तड़प रही है, उसकी आँखें 
					बन्द हैं, कंठ रुका हुआ है।
 
 मोहन को देखकर बुढ़िया ने पूछा—तुम कौन हो? क्या माँगते हो? 
					हमारे पास कुछ नहीं हैं।
 मोहन—मुझे प्यास लगी है, पानी माँगता हूँ।
 बुढ़िया—यहाँ न बर्तन है, न कोई लाने वाला। यहाँ कुछ नहीं। 
					जाओ, अपनी राह लो।
 मोहन—क्या तुममें से कोई उस स्त्री की सेवा नहीं कर सकता?
 बुढ़िया—कोई नहीं। बाहर मेरा लड़का भूख से मर रहा है, यहाँ हम 
					भूख से मर रहे हैं।
 
 यह बातें हो ही रही थीं 
					कि बाहर से वह मनुष्य भी गिरता पड़ता भीतर आया और बोला—काल और 
					रोग दोनों ने हमें मार डाला। यह बालक कई दिन से भूखा है क्या 
					करुँ—यह कहकर रोने लगा और उसकी हिचकी बँध गई।
 मोहन ने तुरन्त अपने थैले में से रोटी निकालकर उनके आगे रख दी।
 बुढ़िया बोली—इनके कंठ सूख गए हैं, बाहर से पानी ले आओ। मोहन 
					बुढ़िया से कुएँ का पता पूछकर बाहर गया और पानी ले आया। सबने 
					रोटी खाकर पानी पिया, परन्तु चूल्हे के पास वाली स्त्री पड़ी 
					तड़पती रही। मोहन गाँव में जाकर 
					कुछ दाल, चावल मोल ले आया और 
					खिचड़ी पाकर सबको खिलायी।
 
 ***
 
 तब बुढ़िया बोली—भाई, क्या सुनाऊँ, निर्धन तो हम पहले ही थे, 
					उस पर पड़ा अकाल। हमारी और भी दुर्गति हो गई। पहले पहल तो पड़ोसी 
					अन्न उधार देते रहे, परन्तु वे क्या करते। वे आप भूखों मरने 
					लगे, हमें कहाँ से देते।
 
 मनुष्य ने कहा—मैं मजूरी करने निकला, दो तीन दिन तो कुछ मिला, 
					फिर किसी ने नौकर न रखा बुढ़िया और लड़की भीख माँगने लगीं। अन्न 
					का अकाल था, कोई भीख भी न देता था। बहुतेरे यत्न किए, कुछ न बन 
					सका। भूख के मारे घास खाने लगे, इसी कारण यह मेरी स्त्री 
					चूल्हे के पास पड़ी तड़प रही है।
 
 बुढ़िया—पहले कई दिनों तक 
					तो मैं चल फिर कर कुछ धंधा करती रही, परन्तु कहाँ तक? भूख और 
					रोग ने जान ले ली। जो हाल है, तुम अपने नेत्रों से देख रहे हो।
 
 उनकी बिथा सुनकर मोहन ने विचारा कि आज रात यहीं रहना उचित हैं 
					साथी से कल मिल लेंगे।
 
 परातःकाल उठकर वह गाँव में गया और खाने पीने की जिन्स ले आया। 
					घर में कुछ न था। वह वहाँ ठहरकर इस तरह काम करने लगा कि मानो 
					अपना ही घर है। दो तीन दिन पीछे सब चलने फिरने लगे और वह 
					स्त्री उठ बैठी।
 
 चौथे दिन एकादशी थी। मोहन 
					ने विचारा कि आज सन्ध्या को इन सबके साथ बैठकर फलाहार करके कल 
					परातःकाल चल दूँगा।
 
 वह गाँव में जाकर दूध, फल सब सामग्री लाकर बुढ़िया को दे, आप 
					पूजापाठ करने मन्दिर में चला गया। इन लोगों ने अपनी जमीन एक 
					जमींदार के यहाँ गिरवी रखकर अकाल के समय अपना निवार्ह किया था। 
					मोहन जब मन्दिर गया, तब किसान युवक जमींदार के पास पहुँचा और 
					विनयपूर्वक बोला—चौधरी जी, इस समय रुपये देकर खेत छुड़ाना मेरे 
					काबू के बाहर है। यदि आप इस चौमासे में मुझे खेत बोने की आज्ञा 
					दे दें, तो मेहनत मजदूरी करके आपका ऋण चुका दे सकता हूँ।
 
 परन्तु चौधरी कब मानता था? वह बोला—बिना रुपये दिए खेत नहीं बो 
					सकते जाओ, अपना काम करो। वह निराश होकर घर लौट आया। इतने में 
					मोहन भी पहुँच गया। जमींदार की बात सुनकर वह मन में विचार करने 
					लगा कि जब यह जमींदार खेत 
					नहीं बोने देता, तो इन किसानों की प्राणरक्षा क्या करेगा! यदि 
					मैं इन्हें इसी दशा में छोड़कर चल दिया, तो यह सब काल के कौर बन 
					जायेंगे कल नहीं परसों जाऊँगा।
 
 मोहन अब बड़ी दुविधा में पड़ा था। न रहते ही बनता था, न जाते ही 
					बनता था। रात को पड़ा-पड़ा सोचने लगा, यह तो अच्छा बखेड़ा फैला। 
					पहले अन्नपानी, अब खेत छुड़ाना, फिर गाय और बैलों की जोड़ी मोल 
					लेना। मोहन तुम किस जंजाल में फँस गए?
 
 जी चाहता था कि वह उन्हें ऐसे ही छोड़कर चल दे, परन्तु दया जाने 
					न देती थी। सोचते सोचते आँख लग गई। स्वप्न में देखता क्या है 
					कि वह जाना चाहता है, किसी ने उसे पकड़ लिया है। लौटकर देखा तो 
					बालक रोटी माँग रहा है। वह तुरन्त उठ बैठा और मन में कहने 
					लगा—नहीं, अब मैं नहीं जाता। यह स्वप्न शिक्षा देता है कि मुझे 
					इनका खेत छुड़ाना, गाय बैल मोल लेना और सारा परबन्ध करके जाना 
					उचित है।
 
 परातःकाल उठकर जमींदार के पास गया और रुपया देकर उनका खेत छुड़ा 
					दिया। जब एक किसान से एक गाय और दो 
					बैल मोल लेकर लौट रहा था कि राह 
					में स्त्रियों को बातें करते सुना।
 
 ‘बहन, पहले तो हम उसे साधारण मनुष्य जानते थे। वह केवल पानी 
					पीने आया था, पर अब सुना है कि खेत छुड़ाने और गायबैल मोल लेने 
					गया है। ऐसे महात्मा के दर्शन करने चाहिए।’ मोहन अपनी स्तुति 
					सुनकर वहाँ से टल गया। गायबैल लेकर जब झोंपड़े पर पहुँचा तो 
					किसान ने पूछा—पिताजी, यह कहाँ से लाये?
 मोहन—अमुक किसान से यह बड़े सस्ते मिल गए हैं। जाओ, पशुशाला में 
					बांधकर इनके आगे कुछ भूसा डाल दो।
 उसी रात जब सब सो गए, तो मोहन चुपके से उठकर घर से बाहर निकल 
					बद्रीनारायण की राह ली।
 
 तीन मील चलकर मोहन एक 
					वृक्ष के नीचे बैठकर बटुआ निकाल, रुपये गिनने लगा तो थोड़े ही 
					रुपये बाकी थे। उसने सोचा—
 
 इतने रुपयों में 
					बद्रीनाराण पहुँचना असम्भव है, भीख माँगना पाप है। अर्जुन वहाँ 
					अवश्य पहुँचेगा और आशा है कि मेरे नाम पर कुछ च़ावा भी च़ा ही 
					देगा। मैं तो अब इस जीवन में यह यात्रा करने का संकल्प पूरा 
					नहीं कर सकता। अच्छा, परमात्मा की इच्छा, वह बड़ा दयालु है। 
					मुझजैसे पापियों को निस्संदेह क्षमा कर देगा। यह विचार करके 
					गाँव का चक्कर काटकर कि कोई देख न ले, वह घर की ओर लौट पड़ा।
 
 गाँव में पहुँच जाने पर घर वाले उसे देखकर अति प्रसन्न हुए और 
					पूछने लगे कि लौट क्यों आये? मोहन ने यही उत्तर दिया कि अर्जुन 
					से साथ छूट गया और रुपये चोरी हो गए, इस कारण लौट आना पड़ा। घर 
					में कुशलक्षेम थी। कोई कष्ट न था।
 
 मोहन का आना सुनकर अर्जुन के घर वाले उससे पूछने लगे कि अर्जुन 
					को कहाँ छोड़ा उनसे भी उसने यही कहा कि बद्रीनारायण पहुँचने से 
					तीन दिन पहले मैं अर्जुन से पिछड़ गया, रुपया किसी ने चुरा 
					लिया, बद्रीनारायण जाना असम्भव था, मुझे लौटना ही पड़ा। सब लोग 
					मोहन की बुद्धि पर हँसने लगे कि बद्रीनारायण पहुँचा ही नहीं, 
					रास्ते में रुपये खो दिए। 
					मोहन घर के धंधे में लग गया, बात बीत गई।
 
 अब उधर का हाल सुनिए—
 
 मोहन जब पानी पीने चला 
					गया तब थोड़ी दूर जाकर अर्जुन बैठ गया और साथी की बाट देखने 
					लगा। सन्ध्या हो गई, पर मोहन न आया। अर्जुन सोचने लगा—क्या 
					हुआ, साथी क्यों नहीं आया? मेरी आँखें लग गई थीं। कहीं आगे न 
					निकल गया हो। पर यहाँ से जाता तो क्या दिखायी नहीं देता? पीछे 
					लौटकर देखूँ, कहीं आगे न चला गया हो, फिर तो मिलना ही असम्भव 
					है। आगे ही चलो, रात को चट्टी पर अवश्य भेंट हो जाएगी।
 
 रास्ते में अर्जुन ने कई 
					मनुष्यों से पूछा कि तुमने कोई नाटा, साँवले रंग का आदमी देखा 
					है? परन्तु कुछ पता न चला। रात चट्टी पर भी मोहन से भेंट न 
					हुई। अगले दिन यह विचार कर कि वह देवप्रयाग पर अवश्य मिल 
					जाएगा, वह आगे चल दिया। रास्ते में अर्जुन को एक साधु मिल गया। 
					वह जगन्नाथ की यात्रा करके आया था। अब दूसरी बार बद्रीनारायण 
					के दर्शन को जा रहा था। रात को चट्टी में वे दोनों इकट्ठे ही 
					रहे और फिर एक साथ यात्रा करने लगे।
 
 देवप्रयाग में पहुँचकर 
					अर्जुन ने मोहन के विषय में पंडे से बहुत पूछताछ की, कुछ पता न 
					चला। यहाँ सब यात्री एकत्र हो गए। देवप्रयाग से आगे चलकर सब 
					लोग रात को एक चट्टी में ठहरे। वहाँ मूसलाधार मेंह बरसने लगा। 
					बिजली की कड़क, बादल की गरज से सब काँप गए। सारी रात जागते कटी। 
					त्राहित्राहि करते दिन निकला।
 
 अन्त को दोपहर के समय सब 
					लोग बद्रीनारायण पहुँच गए। पंडे देवप्रयाग से ही साथ हो लिये 
					थे। बद्रीनारायण में यही रीति है कि पहले दिन यात्रियों को 
					मन्दिर की ओर से भोजन कराया जाता है और उसी दिन यात्रियों को 
					अटका अथवा चावा बतला देना पड़ता है कि कौन कितना खाएगा, कम से 
					कम सवा रुपया नियत है। उस समय तो सबने पंडों के घरों में जाकर 
					विश्राम किया। दूसरे दिन परातःकाल उठकर दर्शन परसन में लग गए। 
					अर्जुन और साधु एक ही स्थान में टिके थे। साँझ की आरती के 
					दर्शन करके लौटकर जब घर आये, तब साधु बोला कि मेरा तो किसी ने 
					रुपये का बटुआ निकाल लिया।
 
 अर्जुन के मन में यह पाप उत्पन्न हुआ कि यह साधु झूठा है। किसी 
					ने इसका रुपया नहीं चुराया। इसके पास रुपया था ही नहीं।
 
 लेकिन तुरन्त ही उसको पश्चाताप हुआ कि किसी पुरुष के विषय में 
					ऐसी कल्पना करना महापाप है। उसने मन को बहुतेरा समझाया, परंतु 
					उसका ध्यान साधु में ही लगा रहा। पवित्र स्थान में रहने पर भी 
					चित्त की मलिनता दूर नहीं हुई। इतने में शयन की आरती का घंटा 
					बजा। दोनों दर्शनार्थ मन्दिर में चले गए। भीड़ बहुत थी, अर्जुन 
					नेत्र मूँदकर भगवान की स्तुति करने लगा, परंतु हाथ बटुए पर था, 
					क्योंकि साधु के रुपये खो जाने से संस्कार चित्त में पड़े हुए 
					थे। अन्तःकरण का शुद्ध हो 
					जाना क्या कोई सहज बात है!
 
 स्तुति समाप्त करके नेत्र खोलकर अर्जुन जब भगवान के दर्शन करने 
					लगा, तब देखता क्या है कि मूर्ति के अति समीप मोहन खड़ा है। 
					ऐ—मोहन! नहीं नहीं, मोहन यहाँ कैसे पहुँच सकता है? सारे रास्ते 
					तो ढूँढता आया हूँ।
 
 मोहन को साष्टांग दण्डवत करते देखकर अर्जुन को निश्चय हो गया 
					कि मोहन ही है। स्यात किसी दूसरी राह से यहाँ आ पहुँचा है। 
					चलो, अच्छा हुआ, साथी तो मिल गया।
 
 आरती हो गई। यात्री बाहर निकलने लगे। अर्जुन का हाथ बटुए पर था 
					कि कोई रुपये न चुरा ले। वह मोहन को खोजने लगा, पर उसका कहीं 
					पता नहीं चला।
 
 दूसरे दिन परातःकाल 
					मन्दिर में जाने पर अर्जुन ने फिर देखा कि मोहन हाथ जोड़े भगवान 
					के सम्मुख खड़ा है। वह चाहता था कि आगे बढ़कर मोहन को पकड़ ले, 
					परन्तु ज्योंही वह आगे बढ़ा, मोहन लोप हो गया।
 
 तीसरे दिन भी अर्जुन को वही दृश्य दिखाई दिया। उसने विचारा कि 
					चलकर द्वार पर खड़े हो जाओ। सब यात्री वहीं से निकलेंगे, वहीं 
					मोहन को पकड़ लूँगा। अतएव उसने ऐसा ही किया, लेकिन सब यात्री 
					निकल गए, मोहन का कहीं पता ही नहीं।
 
 एक सप्ताह बद्रीनारायण में निवास करके अर्जुन घर लौट पड़ा।
 
 राह चलते अर्जुन के चित्त में वही पुराने घर के झमेले बारबार 
					आने लगे। सालभर बहुत होता है। इतने दिनों में घर की दशा न जाने 
					क्या हुई हो। कहावत है—छाते लगे छः मास और छिन में होय उजाड़। 
					कौन जाने लड़के ने क्या कर छोड़ा हो? फसल कैसी हो? पशुओं का 
					पालनपोषण हुआ है कि नहीं?
 
 चलते चलते अर्जुन जब उस 
					झोपड़े के पास पहुँचा, जहाँ मोहन पानी पीने गया था, तो भीतर से 
					एक लड़की ने आकर उसका कुर्ता पकड़ लिया और बोली—बाबा, बाबा भीतर 
					चलो।
 
 अर्जुन कुरता छुड़ाकर जाना 
					चाहता था कि भीतर से एक स्त्री बोली—महाशय! भोजन करके रात्रि 
					को यहीं विश्राम कीजिए। कल चले जाना। वह अंदर चला गया और सोचने 
					लगा कि मोहन यहीं पानी पीने आया था। स्यात इन लोगों से उसका 
					कुछ पता चल जाए।
 
 स्त्री ने अर्जुन के हाथ पैर धुलाकर भोजन परस दिया। अर्जुन 
					उसको आशीष देने लगा।
 
 स्त्री बोली—दादा, हम अतिथि सेवा करना क्या जानें? यह सब कुछ 
					हमें एक यात्री ने सिखाया है। हम परमात्मा को भूल गए थे। हमारी 
					यह दशा हो गई थी कि यदि वह बूढ़ा यात्री न आता तो हम सबके-सब 
					मर जाते। वह यहाँ पानी पीने आया था। हमारी दुर्दशा देखकर यहीं 
					ठहर गया। हमारा खेत रेहन पड़ा था, वह छुड़ा दिया। गाय बैल मोल ले 
					दिए और 
					सामग्री जुटाकर एक दिन न जाने 
					कहाँ चला गया।
 
 इतने में एक बुढ़िया आ गई और यह बात सुनकर बोल उठी—वह मनुष्य 
					नहीं था, साक्षात देवता था। उसने हमारे ऊपर दया की, हमारा 
					उद्धार कर दिया, नहीं तो हम मर गए होते वह पानी माँगने आया। 
					मैंने कहा, जाओ, यहाँ पानी नहीं। जब मैं वह बात स्मरण करती 
					हूँ, तो मेरा शरीर काँप उठता है।
 
 छोटी लड़की बोल उठी—उसने अपनी काँवर खोली और उसमें से लोटा 
					निकाला कुएँ की ओर चला।
 
 इस तरह सबके-सब मोहन की चर्चा करने लगे। रात को किसान भी आ 
					पहुँचा और वही चर्चा करने लगा—निस्संदेह उस यात्री ने हमें 
					जीवनदान दिया। हम जान गए कि परमेश्वर क्या है और परोपकार क्या। 
					वह हमें पशुओं से मनुष्य बना गया।
 
 अर्जुन ने अब समझा कि बद्रीनारायण के मंदिर में मोहन के दिखायी 
					देने का कारण क्या था। उसे निश्चय हो गया कि मोहन की यात्रा 
					सफल हुई।
 
 कुछ दिनों पीछे अर्जुन घर पहुँच गया। लड़का शराब पीकर मस्त पड़ा 
					था। घर का हाल सब गड़बड़ था। अर्जुन लड़के को डाँटने लगा। लड़के ने 
					कहा—तो यात्रा पर जाने को किसने कहा था? न जाते। इस पर अर्जुन 
					ने उसके मुँह पर तमाचा मारा।
 
 दूसरे दिन अर्जुन जब चौधरी से मिलने जा रहा था, तो राह में 
					मोहन की स्त्री मिल गई।
 
 स्त्री—भाई जी, कुशल से तो हो? बद्रीनारायण हो आये?
 अर्जुन—हाँ, हो आया। मोहन मुझसे रास्ते में बिछुड़ गए थे। कहो, 
					वह कुशल से घर तो पहुँच गए?
 स्त्री—उन्हें आये तो कई महीने हो गए। उनके बिना हम सब उदास 
					रहा करते थे। लड़के को तो घर काटे खाता था। स्वामी बिना घर सूना 
					होता है।
 अर्जुन—घर में हैं कि कहीं बाहर गये हैं?
 स्त्री—नहीं, घर में हैं।
 अर्जुन भीतर चला गया और मोहन से बोला—राम राम, भैया मोहन, 
					राम राम!
 मोहन—राम-राम! आओ भाई! कहो, दर्शन कर आये!
 अर्जुन—हाँ, कर तो आया, पर मैं यह नहीं कह सकता कि यात्रा सफल 
					हुई अथवा नहीं। लौटते समय मैं उस झोंपड़े में ठहरा था, 
					जहाँ तुम 
					पानी पीने गए थे।
 
 मोहन ने बात टाल दी और अर्जुन भी चुप हो गया, परंतु उसे दृ़ढ़ 
					विश्वास हो गया कि उत्तम तीर्थयात्रा यही है कि पुरुष जीवन 
					पर्यन्त प्रत्येक प्राणी के साथ प्रेमभाव रखकर सदैव उपकार में 
					तत्पर रहे।
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