कन्हैयालाल के लिए उसने सुबह जो
खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं।
लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिए उसने मन को वश में कर
एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन
बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों
बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम-धम
सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अंधकार भीतर आ
रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और
चुपचाप एक ओर हट गई। कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी
तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना
नहीं उतरेगा !'
लाजो के दुखते हुए दिल पर और
चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर
फिर दीवार के सहारे फ़र्श पर बैठ गई।
कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल
पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और
लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुए दो थप्पड़ पूरे हाथ
के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिए और हाँफते हुए लात उठाकर कहा, '
और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'
लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर
चुका था। खींची जाने पर भी फ़र्श से उठी नहीं। और मार खाने के
लिए तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार
डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन व्रत रखा है तेरे
लिए जो जनम-जनम मार खाऊँगी। मार, मार डाल...!'
कन्हैयालाल का लात मारने के
लिए उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से
छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही
रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर
को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो
को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह
हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब
गया। लाजो फ़र्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस
कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।
लाजो फ़र्श पर पड़ी फूट-फूटकर
रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम
कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना
बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना
ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उढ़काकर फिर फ़र्श पर लेट गई। यही
सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही
क्यों हुई थी?...मैंने क्या किया था जो मारने लगे।
किवाड़ों के खुलने का शब्द
सुनाई दिया। वह उठने के लिए आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से
पोछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे
पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया। कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ
जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली
गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी
लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गए और
कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया
है।'
कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से
धोकर झाड़ते हुए भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही
उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो
और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिए।' कन्हैयालाल
खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिए न कहकर नल की ओर
चला गया। लाजो मन मारकर स्वयं खाने
बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन
की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी
लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा
कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'
लाजो से दुःख में खाया नहीं
गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे,
चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर
झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी
नहीं हुआ था। लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ
गई, रहने दो। किए देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़
ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद
करता रहा। फिर लाजो को संबोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं।
कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने
कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिए दूध ले आता हूँ।'
लाजो के प्रति इतनी चिन्ता
कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो
को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी
इनसान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिए। लाजो को शर्म तो आ
ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के
व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि
एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान
जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो
स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे
चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिए। कई
दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और
अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने
देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'
उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी
ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिए पुकारती तो कन्हैया जिद
करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खाएँगे।' कन्हैया
पहले कोई पत्रिका या पुस्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा
करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ
लेता, ' तुम्हें नींद तो नहीं आ रही ? '
साल बीतते मालूम न हुआ। फिर
करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीऑर्डर
करवे के लिए न पहुँचा था। करवा चौथ के पहले दिन कन्हैयालाल
दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया
करवा भेजना शायद भूल गए।'
कन्हैयालाल ने सांत्वना के
स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा।
डाकख़ाने
वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाए या और दो दिन बाद
आए। डाकख़ाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा
देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबीयत खराब
हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आएँगे, पर
व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'
'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम
तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो
व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।
संध्या-समय कन्हैयालाल आया
तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी
तो मैं ले आया हूँ, पर व्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।'
लाजो ने मुसकुराकर रूमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना
तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।'
कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिए परोसा था- ' और
तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।
' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह
सरगी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्काकर
प्यार से बताया। ' यह बात...! तो हमारा भी
व्रत रहा।' आसन से उठते हुए कन्हैयालाल ने कहा। लाजो ने पति का हाथ पकड़कर
रोकते हुए समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का
व्रत रखते हैं!...तुमने सरगी कहाँ खाई?'
'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता
है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है
तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!' लाजो पति की ओर कातर आँखों से
देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व
से फूला नहीं समा रहा था।
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