कन्हैया के विवाह के समय
नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने
के लिए किसी तरह तैयार नहीं हुए। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिए
गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ।
हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना
कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद
करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक।
पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते
हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही
पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते
हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिए।
पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।
निस्वार्थ-भाव से हेमराज की
दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे
बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो
शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली
में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने
वाले, कन्हैया के ज़िले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक
कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराए पर दे दी थी। सो सवा साल से
मजे में चल रहा था।
लाजवंती अलीगढ़ में आठवीं
जमात तक पढ़ी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी
जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नई ब्याही बहुओं को
करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई
पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के
लिए कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि
कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह
बहुत सरकश न हो जाए, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे
तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की
अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया।
मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह
जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- '
चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद
ही बोल पड़ती।
कन्हैया का हाथ पहली दो बार
तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने
अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के
नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश
समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक
खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो
कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किए बिना भी चल
जाते।
मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा
तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने
पर वह कई दिनों के लिए उदास हो जाती। घर का सब काम करती।
बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की
इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा
है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने
और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच
यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिए तो यही सब
कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह
अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह
जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छंदता लाजो के प्रति दिखा सकता,
अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष
पाता।
क्वार के अन्त में पड़ोस की
स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता
रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का
भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके
मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपए आ गए थे।
कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था।
दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपए
भेजे हैं।'
करवे के रुपए आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया
दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और
लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या
लाओगे...?'
और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई
जाने वाली चीज़ें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने
भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू
स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों
की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी इस व्रत की
उपेक्षा नहीं कर सकतीं।
अवसर की बात, उस दिन कन्हैया
लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि
सवा तीन रुपए खर्च हो गए। वह लाजो का बताया सरगी का सामान घर
नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया।
उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह
लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में
लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह
सुजाए है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या
कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट
दिया।
लाजो का मन और भी बिंध गया।
कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही
ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम
में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...।
अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे
ही सो गयी।
तड़के पड़ोस में रोज की
अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को
याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरगी के लिए फेनियाँ
लाए हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए
की मिठाई लाए हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि
हमारी बहू हमारे लिए व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल
नहीं।
लाजो का मन इतना खिन्न हो गया
कि सरगी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का
व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने
भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली
राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार
निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला
दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है।
उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाए बिना तुम सीधी
नहीं होगी।'
लाजो को और भी रुलाई आ गयी।
कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही।
क्या जुल्म है। इन्हीं के लिए व्रत कर रही हूँ और इन्हें
गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी
मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा
सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम
में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिए
वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।
लाजो पिछली रात भूखी थी,
बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे
कुड़मुड़ा रही थी और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम,
कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का
मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर
बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं
लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फ़र्श पर ही लेट रही।
लाजो को पड़ोसिनों की पुकार
सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के
कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के
कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का
काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरख़ा
छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए
की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिए
बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं
सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर
सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरगी खाए हुए हैं। जान तो मेरी ही
निकल रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल
आया और कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किए-किए मर
जाए, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।
लाजो की कल्पना बावली हो उठी।
वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे।
जो आएगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का
इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी
बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह
होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने
भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किए
थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के
कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु
उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ
खड़ी हुई। |