दूसरी बार के प्रश्न को
गुसाईं न टाल पाया, उत्तर देना ही
पड़ा, "यहाँ पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही।" उसने
दबे-दबे स्वर में कह दिया।
स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का
प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी।
गुसाईं झुककर घट से बाहर निकला। मुड़ते समय स्त्री की एक झलक
देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था। हताश-सा वह कुछ
क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर
पर गिरे हुए आटे को झाड़कर एक-दो कदम आगे बढ़ा। उसके अंदर की
किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को
बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज़ देकर उसे बुला लेने को उसने
मुँह खोला, परंतु आवाज न दे सका। एक झिझक, एक असमर्थता थी, जो
उसका मुँह बंद कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुँच चुकी थी।
गुसाईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना
तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लड़खड़ाती आवाज में
उसने पुकारा, "लछमा!"
घबराहट के कारण वह पूरे जोर से आवाज नहीं दे पाया था। स्त्री
ने यह आवाज नहीं सुनी। इस बार गुसाईं ने स्वस्थ
होकर पुन: पुकारा, "लछमा!"
लछमा ने पीछे मुड़कर देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से
पुकारते थे, यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परंतु उसे शंका
शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी
दुबारा उसे बुला रहा है या उसे केवल भ्रम हुआ है। उसने वहीं से
पूछा, "मुझे पुकार रहे हैं, जी?
गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, "हाँ, ले आ, हो जाएगा।"
लछमा क्षण-भर रूकी और फिर घट की ओर लौट आई।
अचानक साक्षात्कार होने का मौका न देने की इच्छा से गुसाईं
व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छाँह में चला गया।
लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई। बाहर निकलकर उसने आँचल
के कोर से मुँह पोंछा। तेज धूप में चलने के कारण उसका मुँह लाल
हो गया था। किसी पेड़ की छाया में विश्राम करने की इच्छा से
उसने इधर-उधर देखा। मिहल के पेड़ की छाया में घट की ओर पीठ किए
गुसाईं बैठा हुआ था। निकट स्थान में दाड़िम के एक पेड़ की छाँह
को छोड़कर अन्य कोई बैठने
लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।
गुसाईं की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट
आते-आते कहा, "तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा
उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर
में लंबर मिलता।"
अजात संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसाईं ने मन-ही-मन
विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल
कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखे, इससे पूर्व ही उसने कहा,
"जीते रहे तेरे बाल-बच्चे लछमा! मायके कब आई?"
गुसाईं ने अंतर में घुमड़ती आँधी को रोककर यह प्रश्न इतने
संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा
के लिए एक साधारण व्यक्ति हो।
दाड़िम की छाया में पात-पतेल झाड़कर बैठते लछमा ने शंकित
दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक
जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न
होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसाईं को
इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से आँखें फाड़कर वह उसे देखे
जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति
उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है।
"तुम?" जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में
ही रह गए।
"हाँ, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट
लगवा लिया।" गुसाईं ने ही पूछा, "बाल-बच्चे ठीक हैं?"
आँखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की
कुशलता की सूचना दे दी। ज़मीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को
हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरुद्देश्य
तोड़ने लगी और गुसाईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाईं ने पूछा, "तू अभी और
कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?"
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप्-टप्-टप्, वह
सर नीचा किए आँसू गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके
उठते-गिरते कंधों को गुसाईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा
था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे।
इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया।
उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था। हतप्रभ-सा
गुसाईं
उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुँझलाहट
हो रही थी।
आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया,
जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल-मात्र श्रोता
बनकर रह जाना चाहता था। गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर
लछमा आँसू पोंछती हुई अपना दुखड़ा रोने लगी, "जिसका भगवान
नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड
छुड़ाकर यहाँ माँ की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़कर चली
गई। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा
है। नहीं तो पेट पर पत्थर बाँधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।"
"यहाँ काका-काकी के साथ रह रही हो?" गुसाईं ने पूछा।
"मुश्किल पड़ने पर कोई किसी का नहीं होता, जी! बाबा की जायदाद
पर उनकी आँखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक न जमा लूँ।
मैंने साफ-साफ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना-देना नहीं।
जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुजर कर लूँगी, किसी की आँख का
काँटा बनकर नहीं रहूँगी।"
गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल
सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा। दाड़िम के वृक्ष
से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा,
पंद्रह-सोलह साल किसी की जिंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं
होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड़ गया
था, पर उसे लगा, उस छाप के
नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले
की लछमा को देख रहा है।
"कितनी तेज धूप है, इस साल!" लछमा का स्वर उसके कानों में
पड़ा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर
कही हो।
और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहाँ लछमा बैठी थी। दाड़िम
की फैली-फैली अधढँकीं डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड़ रही
थी। सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी
हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसाईं एकटक उसे
देखता रहा।
"दोपहर तो बीत चुकी होगी," लछमा ने प्रश्न किया तो
गुसाईं का
ध्यान टूटा, "हाँ, अब तो दो बजनेवाले होंगे," उसने कहा, "उधर
धूप लग रही हो तो इधर आ जा छाँव में।" कहता हुआ गुसाईं एक
जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।
"नहीं, यहीं ठीक है," कहकर लछमा ने
गुसाईं की ओर देखा, लेकिन
वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।
घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था। नंबर पर
रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज
खप्पर में खाली कर दिया।
धीरे-धीरे चलकर गुसाईं गुल के किनारे तक गया। अपनी अंजुली से
भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर
पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।
आस-पास पड़ी हुई सूखी लकड़ियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक
कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुँह कर
कह गया, "चाय का टैम भी हो रहा है। पानी उबल जाय, तो पत्ती डाल
देना, पुड़िया में पड़ी है।"
लछमा ने उत्तर नहीं दिया। वह उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर
जाता हुआ देखती रही।
सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफी
समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छ:-सात वर्ष का
बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।
बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, "इस छोकरे
को घड़ी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता
मेरी जान खाने को यहाँ भी पहुँच गया है।"
गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर माँ
से किसी चीज के लिए जिद कर रहा है। एक बार
झुँझलाकर लछमा ने
उसे झिड़क दिया, "चुप रह! अभी लौटकर घर जाएँगे, इतनी-सी देर
में क्यों मरा जा रहा है?"
चाय के पानी में दूध डालकर गुसाईं फिर उसी बंजर घट में गया।
एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूँथने
लगा। मिहल के पेड़ की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और
ले लिए।
लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक
गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियमके मैसटिन में गुसाईं ने
चाय डालकर आपस में बाट ली और पत्थरों से बने बेढंगे चूल्हे के
पास बैठकर रोटियाँ बनाने का उपक्रम करने लगा।
हाथ का चाय का गिलास जमीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली
अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर
में प्रकट की कि गुसाईं ना न कह सका। वह खड़ा-खड़ा उसे रोटी
पकाते हुए देखता रहा। गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियाँ चूल्हे में
खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसाईं ने ऐसी रोटियाँ देखी थीं, जो
अनिश्चित आकार की फौज़ी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से
बनी बेडौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय
लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेज़ी से घूम रहे थे। कलाई में
पहने हुए चांदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्-खन्
का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट पर टकरानेवाली
काठ की चिड़ियों का स्वर कितना नीरस
हो सकता है, यह गुसाईं ने
आज पहली बार अनुभव किया।
किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बड़ी देर तक खाली
बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा।
वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और
अब आटे में सने हाथों को धो रही थी।
गुसाईं ने बच्चे की ओर देखा। वह दोनों हाथों में चाय का मग
थामे टकटकी लगाकर गुसाईं को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के
स्वर में कहा, "चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो
जाएँगी।"
"मैं तो अपने टैम से ही खाऊँगा। यह तो बच्चे के लिए" स्पष्ट
कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में
चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो।
"न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियाँ
बनाकर रख आई थी," अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर
दी।
"ऐं, यों ही कहती है। कहाँ रखी थीं रोटियाँ घर में?" बच्चे
ने रूआँसी आवाज में वास्तविक व्यक्ति की बातें सुन रहा था और
रोटियों को देखकर उसका संयम ढ़ीला पड़ गया था।
"चुप!" आँखें तरेरकर लछमा ने उसे डाँट दिया। बच्चे के इस कथन
से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी, इस कारण लज्जा से उसका
मुँह आरक्त हो उठा।
"बच्चा है, भूख लग आई होगी, डाँटने से क्या फायदा?"
गुसाईं ने
बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियाँ उसकी ओर बढ़ा दीं। परंतु माँ की
अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा
था। वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी माँ की ओर देख
लेता था।
गुसाईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियाँ लेने में
संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिड़क दिया, "मर! अब ले क्यों
नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!"
इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसाईं ने रोटियों के
ऊपर एक टुकड़ा गुड़ का रखकर बच्चे के हाथों में दिया। भरी-भरी
आँखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा,
और गुसाईं कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को
देखता रहा।
इस छोटे-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था,
जिसे गुसाईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे
थे।
स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसाईं ने जैसे
इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कराकर कहा, "लोग ठीक
ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा
होता है।"
लछमा ने करुण दृष्टि से उसकी ओर देखा। गुसाईं हो-होकर खोखली
हँसी हँस रहा था।
"कुछ साग-सब्ज़ी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता।"
गुसाईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की।
"ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे
भाग क्यों पड़ता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोड़े
पैसे मिले हैं, आज ले जाऊँगी कुछ सौदा।"
हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसाईं ने संकोचपूर्ण स्वर में
कहा, "लछमा!"
लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा। गुसाईं ने जेब से एक नोट
निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "ले, काम चलाने के लिए यह रख
ले, मेरे पास अभी और है। परसों दफ्तर से मनीआर्डर आया था।"
"नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोड़े कह
रही थी। यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा," कहकर लछमा
ने सहायता लेने से इन्कार कर दिया।
गुसाईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज में
वह बोला, "दु:ख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया,
तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस जिंदगी
में। है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया।
इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी
के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!"
परन्तु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे
के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, "गंगनाथ
दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का
क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय।
अपने-पराये प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के
लिए।"
गुसाईं ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे
हुए ज्वार और तूफान का वहाँ कोई चिह्न शेष नहीं था।
अब वह सागर
जैसे सीमाओं में बँधकर शांत हो चुका था।
रुपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं
हुआ। पर गहरे असंतोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर
वहाँ से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज हो गई और घट के अंदर जाकर
उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ
किए बैठी थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से
दो-ढ़ाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और
संतोष की एक साँस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बाँध की ओर
देखने लगा। ऊपर बाँध पर किसी को घूमते हुए देखकर उसने हाँक दी।
शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोड़ना चाहता था।
बाँध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया। पिसान
पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खड़ा हो
गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर
वह बोला, "लछमा।"
लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। गुसाईं को चुपचाप अपनी ओर
देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह न जाने क्या कहना चाहता
है, इस बात की आशंका से उसके मुँह का रंग अचानक फीका होने लगा।
पर गुसाईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, "कभी चार पैसे
जुड़ जाएँ, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी माँग
लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना
चाहिए।" लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रुका।
पानी तोड़नेवाले खेतिहार से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते
हुए उसने देखा, सामनेवाले पहाड़ की पगडंडी पर सर पर आटा लिए
लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें
पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचने तक टकटकी बाँधे देखता रहा।
घट के अंदर काठ की चिड़ियाँ अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं,
चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने
की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान,
निस्तब्ध! |