चक्की
के निचले खंड में छिच्छर-छिच्छर की आवाज के साथ पानी को काटती
हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते
ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी
मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती
और अब तो भले नदी पार कोई
बोले, तो बात यहाँ सुनाई दे जाय।
छप्प छप्प छप्प पुरानी फौजी पैंट को घुटनों तक मोड़कर
गुसाईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा। कहीं कोई सूराख-निकास
हो, तो बंद कर दे। एक बूँद पानी भी बाहर न जाए। बूँद-बूँद की
कीमत है इन दिनों। प्राय: आधा फर्लांग चलकर वह बाँध पर पहुँचा।
नदी की पूरी चौड़ाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर
मोड़ दिया गया था। किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बाँध में
एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गूल
के किनारे-किनारे चलकर घट पर आ
गया।
अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को
बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोड़ा-बहुत गेहूँ
शेष था। वह उठकर बाहर आया।
दूर रास्ते पर एक आदमी सर पर पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था।
गुसाईं ने उसकी सुविधा का ख्याल कर वहीं से आवाज दे दी, "हैं
हो! यहाँ लंबर देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर
उमेदसिंह के घट में देख लो।"
उस व्यक्ति ने मुड़ने से पहले एक बार और प्रयत्न किया। खूब
ऊँचे स्वर में पुकारकर वह बोला,"जरूरी है, जी! पहले हमारा लंबर
नहीं लगा दोगे?"
गुसाईं होंठों-ही-होठों में मुस्कराया, स्साला कैसे चीखता है,
जैसे घट की आवाज इतनी हो कि मैं सुन न सकूँ! कुछ कम ऊँची आवाज
में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, "यहाँ जरूरी का भी बाप रखा
है, जी! तुम ऊपर चले जाओ!"
वह आदमी लौट गया।
मिहल की छाँव में बैठकर गुसाईं ने लकड़ी के जलते कुंदे को
खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआँ उड़ाता रहा
खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था।
किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिरानेवाली चिड़िया पाट पर टकरा
रही थी।
छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ के साथ मथानी पानी को काट रही थी। और
कहीं कोई आवाज़ नहीं। कोसी के बहाव में भी कोई ध्वनि नहीं।
रेती-पाथरों के बीच में टखने-टखने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश
को निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज धूप! कहीं चिरैया
भी नहीं बोलती। किसी प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं।
सूखी नदी के किनारे बैठा गुसाईं सोचने लगा, क्यों उस व्यक्ति
को लौटा दिया? लौट तो वह जाता ही, घट के अंदर टच्च
पड़े पिसान के थैलों को देखकर।
दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।
कभी-कभी गुसाईं को यह अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के
किनारे का यह अकेलापन नहीं, जिंदगी-भर साथ देने के लिए जो
अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना
कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं। पालतू
कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं। क्या ठिकाना ऐसे मालिक का,
जिसका घर-द्वार नहीं, बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का ठिकाना
नहीं।
घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड़ को गुसाईं ने
खोला। गूल में चलते हुए थोड़ा भाग भीग गया था। पर इस गर्मी में
उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक
करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से मुँह हटाया। उसके होठों
में बाएँ कोने पर हलकी-सी मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद
गुसाईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है
नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी, बहुत पुरानी बातें
वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं
भूलती।
ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की
धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की
महत्त्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फौज में गया था। पर फौज से लौटा,
तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।
पैंट के साथ और भी कितनी स्मृतियाँ संबद्ध हैं। उस बार की
छुट्टियों की बात
कौन महीना? हाँ, बैसाख ही था। सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट
वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी वह
पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड़ वन की आग की तरह खबर
इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढ़े, सभी उससे मिलने आए थे। चाचा
का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एकदम साफ,
जगमग, लाल-नीली धारियोंवाली दरी आँगन में बिछानी पड़ी थी लोगों
को बिठाने के लिए। खूब याद है, आँगन का गोबर दरी में लग गया
था। बच्चे-बूढ़े, सभी आए थे। सिर्फ चना-गुड़ या हल्द्वानी के
तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसाईं को इस नए रूप
में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसाईं की आँखें उस भीड़ में
जिसे खोज रही थीं, वह वहाँ नहीं थी।
नाला पार के अपने गाँव से भैंस के कट्या को खोजने के बहाने
दूसरे दिन लछमा आई थी। पर गुसाईं उस दिन उससे मिल न सका। गाँव
के छोकरे ही गुसाईं की जान को बवाल हो गए थे। बुढ्ढ़े नरसिंह
प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर
सोबनियाँ का लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग
गया है। दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे
रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में।
एक दिन बड़ी मुश्किल से मौका मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के
लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से कांकड़ के शिकार का बहाना
बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गाँव की सीमा से बहुत दूर,
काफल के पेड़ के नीचे गुसाईं के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी
लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल। खेल-खेल
में काफलों की छीना-झपटी करते गुसाईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच
दी थी। टप-टप काफलों का गाढ़ा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था।
लछमा ने कहा था, "इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती
इसमें से निकल आएगी।" वह खिलखिलाकर
अपनी बात पर स्वयं ही हँस
दी थी।
पुरानी बात - क्या कहा था गुसाईं ने, याद नहीं पड़ता त़ेरे
लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी सुवा! या कुछ ऐसा ही।
पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी - पहाड़ी पार के
रमुवाँ ने, जो तुरी-निसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?
"जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक
की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम?" लछमा के बाप
ने कहा था।
उसका मन जानने के लिए गुसाईं ने टेढ़े-तिरछे बात चलवाई थी।
उसी साल मंगसिर की एक ठंडी, उदास शाम को गुसाईं की यूनिट के
सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खड़े-खड़े
उससे कहा था, "हमारे गाँव के रामसिंह ने ज़िद की, तभी
छुटि्टयाँ बढ़ानी पड़ीं। इस साल उसकी शादी थी। खूब अच्छी औरत
मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी खूब है, एकदम पटाखा! बड़ी हँसमुख
है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गाँव के
नजदीक की ही है। लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।"
गुसांई को याद नहीं पड़ता, कौन-सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के
पास से चला आया था, रम-डे थे उस दिन। हमेशा आधा पैग लेनेवाला
गुसाईं उस दिन पेशी करवाई थी - मलेरिया प्रिकॉशन न करने के
अपराध में। सोचते-सोचते गुसाईं बुदबुदाया, "स्साल एडजुटेन्ट!"
गुसाईं सोचने लगा, उस साल छुटि्टयों में घर से बिदा होने से
एक दिन पहले वह मौका निकालकर लछमा से मिला था।
"गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी!"
आँखों में आँसू भरकर लछमा ने कहा था।
वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह
अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर
ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज़ करने से
क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं
पाया। पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लड़कपन से
संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैदानों में चले गए हैं। गाँव की
ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में किसी से पूछना
उसे अच्छा नहीं लगता।
जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन
से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में
नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा - लगातार पंद्रह साल तक।
पिछले बैसाख में ही वह
गाँव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिज़र्व में
आने पर। काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा।
लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।
आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी जिंदगी की
किताब पढ़कर सुनाता! शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर कितना देखा, कितना
सुना और कितना अनुभव किया है उसने
पर नदी किनारे यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-पटर और मिहल की
छाया में ठंड़ी चिलम को निष्प्रयोजन गुड़गुड़ाता गुसाईं। और
चारों ओर अन्य कोई नहीं। एकदम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान -
एकाएक गुसाईं का ध्यान टूटा।
सामने पहाड़ी के बीच की पगडंडी से सर पर बोझा लिए एक नारी
आकृति उसी ओर चली आ रही थी। गुसाईं ने सोचा वहीं से आवाज देकर
उसे लौटा दे। कोसी ने चिकने, काई लगे पत्थरों पर कठिनाई से
चलकर उसे वहाँ तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य
करे। दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की
आदत से वह तंग आ चुका था। इस कारण आवाज देने को उसका मन नहीं
हुआ। वह आकृति अब तक पगडंडी छोड़कर नदी के मार्ग में आ पहुँची
थी।
चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर
गुसाईं घट के अंदर चला गया।
खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में एक कम अन्नवाले
थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की
चिड़ियों को उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बंद हो गया। वह
जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा। घट के अंदर मथानी की
छिच्छर-छिच्छर की आवाज भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी। केवल
चक्की के ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का-धीमा
संगीत चल रहा था। तभी गुसाईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के
द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, "कब बारी
आएगी, जी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।"
सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी। गुसाईं को
उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। कपड़े
में पिसान ढीला बंधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के
आगे आ गया था। गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी
उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए
वह बाहर आने को मुड़ा, लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों
को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़ियाँ किट-किट बोल रही थीं और
उसी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा
था।
घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्य का चूर्ण फैल रहा
था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम
सफेदी के कारण वह वृद्ध-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे
नहीं पहचाना।
उसने दुबारा वे ही शब्द दुहराए। वह अब भी तेज धूप में बोझा सर
पर रखे हुए गुसाईं का उत्तर पाने को आतुर थी। शायद नकारात्मक
उत्तर मिलने पर वह उलटे पाँव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा
लेती। |