
उसके शरीर में सनसनी दौड़ गयी -- विजय की सनसनी! उस समय वह
रामदयाल, उसकी मुहब्बत, उसकी जुदाई, सब कुछ भूल गयी। उसके हृदय
में, उसके मस्तिष्क में केवल एक ही विचार बस गया -- उसने दूसरे
रागी को मात कर दिया है!
इसके बाद प्रतिदिन दोनों ओर से गीत उठते और वायु-मण्डल में
बिखर जाते। दो दुखी आत्माएं संगीत द्वारा एक-दूसे से सहानुभूति
प्रकट करतीं, दिल के दर्द गीतों की जबान से एक-दूसरे को सुनाये
जाते।
एक महीना और बीत गया। कम्पनी एक नयी फिल्म तैयार कर रही थी और
इन दिनों रामदयाल को रात में भी वहीं काम करना पड़ता था। कई
रातें वह कम्पनी के स्टूडियो में ही बिता देता। इतने दिनों में
वह केवल एक बार घर आया था। उर्मिला का दिल धड़क उठा था। पहली
धड़कन और इस धड़कन में कितना अंतर था। पहले वह इस डर से कांप
उठती थी कि रामदयाल कहीं उससे रूष्ट न हो जाये, अब वह इस भय से
मरी जाती थी कि कहीं उस के दिल की बात न जान ले, कहीं वह रात
भर रह कर उनके प्रेम-संगीत में बाधा न डाल दे।
अक्तूबर का अन्तिम सप्ताह था। रामदयाल घर आया। उर्मिला उसके
मुख की ओर देख भी न सकी, उसके सामने भी न हो सकी। रामदयाल ने
उसे बुलाया भी नहीं। वह दासी से केवल इतना कह कर चला गया,"मैं
अभी और एक महीने तक घर न आ सकंूगा। चित्रपट के कुछ दृश्य खराब
हो गये हैं, उन्हें फिर दुबारा लिया जायेगा।' जब वह चला गया तो
उर्मिला ने सुख की एक सांस ली, उसे के हृदय से एक बोझ-सा उतर
गया। वह कोई ऐसा हमदर्द चाहती थी, जिस के सामने वह अपना
प्रेमभरा दिल खोल कर रख दे। रामदयाल वह नहीं था, उस तक उसकी
पहुँच न थी। पानी ऊंचाई की ओर नहीं जाता, निचाई की ओर ही बहता
है। रामदयाल ऊंची जगह खड़ा था और गाने वाला नीची जगह। उर्मिला
का हृदय अनायास उसकी ओर बह चला।
उस दिन उर्मिला ने एक मीठा गीत गाया, जिसमें उदासीनता के स्थान
पर उल्लास हिलोरें ले रहा था। अब वह कमरे में बैठ कर गाने के
बदले बाहर बरामदें में बैठ कर गाया करती थी। दोनों की तानें
एक-दूसे की तानों में मिल कर रह जाती। उनके हृदय कब के मिल
चुके थे।
सन्ध्या का समय था। उर्मिला वाटिका में घूम रही थी। उसकी आँखें
रह-रह कर सामने वाले भवन की ओर उठ जाती थीं। उस समय वह चाहती
थी, कहीं वह युवक उसकी वाटिका में आ जाय और वह उस के सामने दिल
के समस्त उद्गार खोल कर रख दे।
वह अकेला ही था, यह उसे ज्ञात हो चुका था, किन्तु कभी उसने दिन
के समय उसे वहाँ नहीं देखा था। अंधेरा बढ़ चला था और डूबते हुए
सूरज की लाली धीरे-धीरे उसमें विलीन हो रही थी ठण्डी बयार चल
रही थी; प्र्र्रकृति झूम रही थी और उर्मिला के दिल को कुछ हुआ
जाता था, कुछ गुदगुदी-सी उठ रही थी। वह एक बेंच पर बैठ गयी और
गुनगुनाने लगी --
धीरे-धीरे यह गुनगुनाहट गीत बन गयी और वह पूरी आवाज से गाने
लगी। अपने गीत की धून में मस्त वह गाती गयी। वाटिका की फसील के
दूसरी ओर से किसी ने धीरे से कन्धे को छुआ। उसके स्वर में
कम्पन पैदा हो गया और वह सिहर उठी।
"आप तो खूब गाती है!"
बैठे-बैठे उर्मिला ने देखा वह एक सुन्दर बलिष्ठ युवक था।
छोटी-छोटी मूँछें ऊपर को उठी हुई थीं। बाल लम्बे थे और बंगाली
फैशन से कटे हुए थे। गले में सिल्क का एक कुर्ता था और कमर में
धोती।
उर्मिला ने कनखियों से युवक को देखा। दिल ने कहा, भाग चल, पर
पांव वहीं जम गये। पंछी जाल के पास था, दाना सामने था, अब फंसा
कि अब फंसा।
"आप के गले में जादू हैं!"
उर्मिला ने युवक की ओर देखा और मुस्कुरायी। वह भी मुस्करा
दिया। बोली, "यह तो आपकी कृपा है, नहीं मैं तो आपके चरणों में
बैठ कर मु त तक सीख सकती हूँ!"
वह हंसा।
"आप अकेले रहते हैं?"
"हाँ"
"और आपकी पत्नी?"
वह एक फीकी हँसी हँसा "मेरी पत्नी, मेरी पत्नी कहाँ हैं? इस
संसार में मैं सर्वथा एकाकी हूँ, मुहब्बत से ठुकराया हुआ, यहाँ
आ गया हूँ, कोई मुझे पूछने वाला नहीं, कोई मुझसे बात करने वाला
नहीं।"
युवक के स्वर में कम्पन था। उर्मिला ने देखा, उसका मुख पीला
पड़ गया है और अवसाद तथा निराशा की एक हल्की-सी रेखा वहाँ साफ
दिखायी देती है। उसके हृदय में सहानुभूति का समुद्र उमड़ पड़ा
और उसकी आँखें डबडबा आयीं।
वह दीवार फाँद कर बेंच पर आ बैठा। उर्मिला अभी तक बैठी ही थी,
उठी न थी। वह तनिक खिसक गयी, किन्तु उठने का साहस अब उसमें
नहीं था।
युवक ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उर्मिला के शरीर में
सनसनी दौड़ गयी। उसने हाथ छुड़ाना चाहा। युवक की आँखें सजल हो
गयीं। उसका हाथ वहीं-का-वहीं रह गया। वह फिर बोला --
"मेरा विचार था, मैं यहाँ आ कर, एकान्त में गा कर अपना दिल
बहला लिया करूंगा। मेरे पास धन और वैभव का अभाव नहीं, परन्तु
उससे मुझे चैन नहीं मिलता, हृदय को शान्ति प्राप्त नहीं होती।
इसीलिए मैं सितार बजाता था! उसकी मनमोहक झंकार मेरे चंचल मन को
एकाग्र्र कर देती थी, उसमें मुझे अपार शान्ति मिलती थी, परन्तु
अब तो सितार भी बेबस हो गया है, वह भी मुझे शान्त नहीं कर
सकता, मेरी शान्ति का आधार अब मेरे सितार बजाने पर नहीं रहा।"
उर्मिला सब कुछ समझ रही थी। उसने फिर हाथ छुड़ाने का प्रयास
किया। युवक ने उसे नहीं छोड़ा और विद्युत वेग से उसे अपने
प्यासे होठों से लगा लिया। उर्मिला के समस्त शरीर में आग-सी
दौड़ गयी। उसने हाथ छुड़ा लिया और भाग गयी।
"फिर कब दर्शन होंगे?"
उर्मिला ने कुछ उत्तर नहीं दिया। वह अपने कमरे में आ गयी और
पलंग पर लेट कर रोने लगी। पक्षी जाल में फंस चुका था और अब
मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था।
..
कितनी देर तक वह लेटे-लेटे रोती रही। उसे रह-रहकर अपने पति की
निष्ठुरता का ध्यान आता था। आत्मग्लानि से उस का हृदय जला जा
रहा था। वह इस मार्ग को छोड़ देना चाहती थी। पश्चाताप को आग
उसे जलाये डालती थी। वह चाहती थी, उसका पति आ जाये, उसके पास
बैठे, उससे प्रेम करे और वह उस के चरणों में बैठ कर इतना रोये,
इतना रोये कि उसका पाषाण-हृदय पानी पानी हो जाये।
उठ कर वह रामदयाल के पुस्तकालय में गयी। एक छोटी-सी मेज़ पर एक
कोने में उसके पति का एक फोटो चौखटे में जड़ा रखा था। उस ने
उसे उठाया, कई बार चूमा और उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
रामदयाल के पैरों की चाप से उसके विचारों का क्रम टूट गया। वह
उठी और सच्चे हृदय से उस का स्वागत करने को तैयार हो गयी। उस
समय उसका मन साफ था। विशुद्ध-प्रेम का एक सागर वहाँ उमड़ा आ
रहा था, जिसके पानी को पश्चाताप की आग ने स्वच्छ और निर्मल कर
दिया था।
वह रसोई-घर से पानी ले आयी और रामदयाल के सामने जा खड़ी हुई।
उसकी आँखें सजल थीं और मन आशा के तार से बंधा डोल रहा था। उसने
देखा, रामदयाल ने उसके हाथ से गिलास ले कर मुँह धो लिया और फिर
उसे कुछ नाश्ता लाने को कहा और जब वह मिठाई ले आयी तो रामदयाल
ने तश्तरी लेने के बदले उसे अपनी भुजाओं में ले कर उसके मुँह
में मिठाई का एक टुकड़ा रख दिया। निमिष भर के लिए उसके मुख पर
स्वर्गीय-आनन्द की ज्योति चमक उठी। उसने सिर उठाया, देखा --
रामदयाल उसी तरह बैठा है। और वह उसी तरह गिलास लिये खड़ी है।
आशा का तार टूट गया, मादक कल्पना हवा हो गयी। सत्य सामने था --
कितना कटु, कितना भयानक?
रामदयाल ने इशारे से उसे चले जाने को कहा। वह चुपचाप पुतली की
भांति चली आयी मानो वह सजीव नारी न हो कर अपने आविष्कारक के
संकेत पर चलने वाली एक निर्जीव मूर्ति हो। अपने कमरे में आ कर
उसने पानी का गिलास अंगीठी पर रख दिया और धरती पर लोट कर रोने
लगी। धरती में, मूक और ठण्डी धरती में उसे कुछ आत्मीयता का
आभास हुआ, एक बहनापा-सा महसूस हुआ और वह उसके अंक में लिपट कर
रोयी। खूब रोयी। ऐसे मानो एक दुखी बहन अपनी सुखी बहन के गले
लिपट कर आँसू बहा रही हो।
कई दिन तक वह अपने कमरे के बाहर न निकली। रामदयाल दासी से कह
गया था, "मैं और पन्द्रह दिन घर न आ सकंूगा, इसलिए तुम सावधानी
से रहना।' उर्मिला को अपने पति की निर्दयता पर रोना आता था। वह
पाप की नदी में बहे जा रही थी और उसका पति उसे बचाने को हाथ तक
न हिलाता था। भ्रान्ति की विकराल लहरें लपलपाती हुई उस की ओर
बढ़ी आ रही थीं और उसका पति निश्चेष्ट और निष्क्रिय एक ओर खड़ा
तमाशा देख रहा था।
साथ के भवन से बराबर गीत उठते थे। उनमें उल्लास की तानें न
होती थीं, दुख और वेदना का बाहुल्य रहता था। उर्मिला की
संगीत-प्रिय आत्मा तड़प उठती थी, परन्तु वह अपने कमरे के बाहर
न निकलती थी।
शाम का वक्त था। गाने वाला प्रलय के गीत गा रहा था। उस का
एक-एक स्वर उर्मिला के हृदय में चुभा जा रहा था। वह उठी,
ड्राइंग-रूम में आ गयी। उसका सितार असहाय भिखारी की भांति एक
ओर पड़ा था। उस पर मिट्टी की एक हल्की-सी तह जम गयी थी। उसने
उसे कपड़े से साफ किया और आवेश में आ कर चूम लिया। उसकी आँखों
से आँसू छलक आये। गाने वाला गा रहा था।
क्यों रूठ गये हमसे
उर्मिला ने एक दीर्घ-नि:श्वास छोड़ा और उस की कम्पित ऊँगलियाँ
सितार के तारों पर थिरकने लगीं। बेखयाली में यही गीत उस के
सितार से निकलने लगा --
क्यों रूठ गये हमसे
वह गाता हुआ अपने भवन से उतरा और फसील को फांद कर उर्मिला के
पास आ बैठा। वह सितार बजाती रही और वह गाता रहा।
दोनों अपनी कला के शिखर पर जा पहुँचे। उसने शायद इससे पहले
इतना अच्छा न गाया हो और इसने शायद इससे पहले इतना अच्छा सितार
न बजाया हो। गीत की लय और सितार की झनकार दोनों एक हो कर मानों
रूठे हुए दिलों को प्रेम का मार्ग बता रही थीं।
गीत समाप्त हो गया। उर्मिला युवक की भूजाओं में थीं। अपने
विशाल वक्षस्थल से भींचते हुए युवक ने उसे चूम लिया। उर्मिला
चौकी, युवक पीछे हटा। वह उठ कर भागने को हुई। युवक ने उसे बैठा
लिया और अपनी लम्बी मूँछें उतार दीं और सिर के लम्बे-लम्बे बाल
दूर कर दिये।
गोधूलि का समय था। सन्ध्या के क्षीण प्रकाश में उर्मिला ने
देखा वह अपने पति के सामने बैठी है। वह हंस रहा था, परन्तु
उर्मिला के मुख पर मौत की नीरव स्याही पुत गयी।
"देखा हमारा बहुरूप उम्मी!" रामदयाल ने विजय की खुशी में उसे
अपनी ओर खींचते हुए कहा। कौन जानता है कि वह 'नवयुग' में छपे
लेख की परीक्षा न कर रहा था!
"अभी आयी!" और उर्मिला ऊपर अपने कमरे में भाग गयी।
कुछ समय बीत गया। रामदयाल अपने विचारों में निमग्न रहा।
उस के विचारों का क्रम उर्मिला के कमरे से आने वाली एक चीख से
टूट गया। भाग कर ऊपर पहुँचा। देखा उर्मिला के कपड़ों को आग लगी
हुई है और वह शान्त भाव से जल रही है।
रामदयाल कांप उठा। उसने उसे बचाने का भरसक प्रयत्न किया, पर वह
सफल न हुआ।
.
श्मशान में उर्मिला का शव जल रहा था। और मूर्तिवत बैठा रामदयाल
अपनी मूर्खता और नारी-हृदय की इस पहेली को समझने का प्रयास कर
रहा था। |