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               सन्ध्या का 
                    समय था। साये बढ़ते-बढ़ते किसी भयानक देव की भांति संसार पर छा 
                    गये थे। रामदयाल लायब्रेरी में बैठा था। अभी तक कमरे में बिजली 
                    न जली थी और वह किवाड़ के समीप कुर्सी रखे एक लेख पढ़ने में 
                    निमग्न था। 
 चपरासी ने बिजली का बटन दबाया। क्षण भर में रोशनी से कमरा 
                    जगमगा उठा। रामदयाल ने रूमाल से ऐनक को साफ किया और फिर लेख पर 
                    अपनी दृष्टि जमा दी। वह 'नवयुग' का 'महिला-अंक' देख रहा था। 
                    अंक देखना तो उसने योंहीं शुरू किया था, परन्तु एक लेख कुछ ऐसा 
                    रोचक था कि एक बार जो पढ़ना आरम्भ किया तो समाप्त किये बिना जी 
                    न माना।
 
 लेख में किसी अभिनेता के अभिनय की विवेचना न थी। छद्मवेष कला 
                    पर कोई नयी बात न लिखी गयी थी। एक सीधा-साधा लेख था, जिसमें 
                    नारी स्वभाव पर एक नूतन दृष्टि-कोण से प्रकाश डाला गया था। एक 
                    सर्वथा नयी बात थी। लिखा था --
 "स्त्री प्रेम की देवी है। वह अपने प्रिय पति के लिए अपना 
                    सर्वस्व निछावर कर सकती है। वह उस की पूजा कर सकती है, पर यदि 
                    उस का पति उस के प्रेम की अवहेलना करे, उसकी मुहब्बत को ठुकरा 
                    दे तो अवसर मिलने पर वह अपने प्रेम की तृषा बुझाने के लिए किसी 
                    दूसरी चीज को ढंूढ़ लेती है -- चाहे वह चल हो या अचल, सजीव हो 
                    या निर्जीव! यही प्रकृति का नियम है।"
 
 रामदयाल उठा और गम्भीर मुद्रा धारण किये हुए पुस्तकालय के बाहर 
                    निकल आया। सड़क रोशनी से नव-वधू की भांति सज रही थी। रामदयाल 
                    अपने हृदय की गति के समान धीरे-धीरे चला जा रहा था। उसे देख कर 
                    कौन कह सकता था कि यह वही 
                    प्रसिद्ध अभिनेता है, जो अपनी कला से भारत भर को चकित कर देता 
                    है!
 ..
 उर्मिला, उसकी पत्नी, अनुपम सुन्दरी थी, कल्पना से बनी हुई 
                    सुन्दर प्रतिमा-सी! मीठे, मादक स्वर में रूप में विधि ने उसे 
                    जादू दे डाला था। संगीत-कला में उसने विशेष क्षमता प्राप्त कर 
                    ली थी और यह गुण सोने में सुगन्ध का काम कर रहा था। जब भी कभी 
                    वह अपनी कोमल उंगलियों को सितार के पर्दों पर रखती और कान उमेठ 
                    कर तारों को छेड़ती तो सोये हुए उद्गार जाग उठते और कानों के 
                    रास्ते मिठास और मस्ती का एक समुद्र श्रोता की नस-नस में 
                    व्याप्त हो कर रह जाता। रामदयाल उस पर जी-जान से मुग्ध था और 
                    वह भी उसे हृदय की समस्त शक्तियों से प्यार करती थी। दोनों को 
                    एक-दूसरे पर गर्व था, किन्तु यह सब कुछ स्थायी न हो सका। असार 
                    संसार में कोई वस्तु स्थायी हो भी कैसे सकती है? मनोमालिन्य की 
                    आँधी ने मुहब्बत के इस छोटे-से पौधे को क्षण भर में बर्बाद कर 
                    दिया।
 
 उर्मिला नीचे ड्राइंग-रूम में बैठी थी। वह रामदयाल की 
                    प्रतीक्षा कर रही थी। सामने के भवन में आज कोई युवक घूम रहा 
                    था। वह कुतूहलवश उसे भी देख रही थी। उसके कान सीढ़ियों की ओर 
                    लगे हुए थे, परन्तु आँखें उस युवक को बेचैनी से घूमते देख रही 
                    थीं। वह कोठी कई दिनों से खाली थी, परन्तु अब कुछ दिन से इसे 
                    किसी ने किराये पर ले लिया था उसने दो-तीन बार किसी युवक को 
                    बिजली के प्रकाश में घूमते देखा था। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे 
                    वह बेचैन हो, जैसे आकुलता उसे बैठने न देती हो।
 
 अँगीठी पर रखी हुई घड़ी ने टन-टन नौ बजाये। सामने के भवन में 
                    रोशनी बुझ गयी। उर्मिला अपने आपको अकेली-सी महसूस करने लगी। 
                    उसने सितार उठाया, उसकी कोमल उँगलियाँ उसके पर्दो पर थिरकने 
                    लगीं, उसके अधर हिले और दूसरे क्षण एक करूणापूर्ण गीत 
                    वायुमण्डल में गूँज उठा --
 सखि इन नैनन ते घन हारे
 स्वर में दर्द था, लोच था और लय थी, सीने में प्रतीक्षा की आग 
                    थी। वह तन्मय हो गयी, अपनी मधुर ध्वनि में खो गयी और उसे यह भी 
                    मालूम न हुआ कि रामदयाल कब आया और कब तक किवाड़ की ओट में खड़ा 
                    उसे देखता रहा।
 
 वह गाती गयी, बेसुध हो कर गाती गयी। उसकी आँखें सितार पर जमी 
                    हुई थीं, उसके कान सितार के मादक स्वर में डूब गये थे। रामदयाल 
                    की भृकुटी तन गयी और वह चुपचाप मुड़ गया। खाने के कमरे में 
                    उसने दासी से खाना मंगाया और खा कर सोने चला गया। उर्मिला गाती 
                    रही, अपने दर्द-भरे गीत को वायु के कण-कण में बसाती रही। देवता 
                    आया और चला गया, पुजारी उसकी पूजा ही में व्यस्त रहा।
 
 दूसरे दिन रामदयाल प्रात: ही घर से चला गया और बहुत रात गये घर 
                    लौटा। उर्मिला दौड़ी-दौड़ी गयी और गंगासागर में पानी ले आयी।
 रामदयाल के चेहरे से क्रोध टपक रहा था।
 "आप इतनी देर कहाँ रहे?"
 रामदयाल चुप।
 
 उर्मिला ने पानी का भरा हुआ गंगासागर आगे रख दिया। घर में दो 
                    दासियाँ तो थीं, परन्तु पति की सेवा वह स्वयं किया करती थी। 
                    रामदयाल जब सन्ध्या को घर आया करता तो वह उसका हाथ-मुँह 
                    धुलाती, तश्तरी में कुछ खाने को लाती और स्टूडियो की खबरें 
                    पूछती। रामदयाल ने हाथ न बढ़ाये। वह चुपचाप खड़ी उसकी गम्भीर 
                    मुद्रा को देखती रही।
 उसका हृदय धड़कने लगा। बीसियों प्रकार की शंकाएं उसके मन में 
                    उठने लगीं। उसने उन्हें बुलाने का इरादा किया, किन्तु झिड़क न 
                    दें, यह सोच कर चुप हो रही। आशा ने फिर गुदगुदी की, निराशा ने 
                    फिर दामन पकड़ लिया। मनुष्य के हृदय में जब सन्देह हो जाता है 
                    तो निराशा हमदर्द की भांति समीप आ जाती है और आशा मरीचिका बन 
                    कर भाग जाती है। फिर भी उसने साहस करके पूछा --
 "जी तो अच्छा है?"
 "चुप रहो!"
 "स्वामी?"
 "मैं कहता हूँ, खामोश रहो!"
 उर्मिला खड़ी-की-खड़ी रह गयी। निराशा ने आशा को ठुकरा दिया और 
                    अब उस में उठने का भी साहस न रहा।
 उसे कल की घटना याद हो आयी, परन्तु साधारण-सी बात पर इतना 
                    क्रोध! वह समझ न सकी। उन्हें तो इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए 
                    था। नहीं, यह बात नहीं; उससे अवश्य कोई दूसरी अवज्ञा हो गयी 
                    है। हो सकता है, किसी से झगड़ पड़े हों अथवा कोई दूसरी घटना 
                    घटी हो। अशुभ की आशंका से उस का मन उद्विग्न हो उठा। उसके 
                    चरणों पर झुकते हुए उसने कहा "दासी से कोई अपराध हो गयाहो तो 
                    क्षमा कर दें।"
 रामदयाल ने पाँव खींच लिये, उर्मिला मुँह के बल गिरी। वह सोने 
                    चला गया।
 
 उर्मिला बहुत देर तक उसी तरह बैठी रही और फिर लेट कर धरती में 
                    मुँह छिपा कर आँसू बहाने लगी। उसे विश्वास न होता था कि उसके 
                    पति ने इतनी-सी बात पर उसे नज़रों से गिरा दिया है। रामदयाल के 
                    प्रति उसके मन में कई प्रकार के विचार उठने लगे। उस ने उन्हें 
                    आज तक शिकायत का मौका न दिया था। उस ने उनकी साधारण-सी बात को 
                    भी सिर-आँखों पर लिया था, फिर यह निरादर क्यों?
 
 उसे शंका होने लगी, 'कोई अभिनेत्री उनके जीवन-वृक्ष को विष से 
                    सींच रही है, ' किन्तु दूसरे क्षण अपने इन विचारों पर उसे घृणा 
                    हो आयी। ग्लानि से उसका सिर झुक गया। रामदयाल चाहे किसी के मोह 
                    में फंस जाये, परन्तु उर्मिला के लिये ऐसा सोचना भी पाप है। तो 
                    फिर वह अपने पति से इस अन्यमनस्कता का कारण ही क्यों न पूछ ले? 
                    क्या उसे इस बात का अधिकार नहीं? वह सहधर्मिणी नहीं क्या? 
                    अर्धांगिनी नहीं क्या? यह सोच कर वह उठी। उसके शरीर में 
                    स्फूर्ति का संचार हो आया। वह जायेगी, अपने पति से इस क्रोध का 
                    कारण पूछ कर रहेगी और उस समय तक न छोडेगी, जब तक वे उसे सब कुछ 
                    न बता दें, या अपनी भुजाओं में भींच कर यह न कह दें -- मैं तो 
                    हंसी कर रहा था!
 
 उसके मुख पर दृढ़-संकल्प के चिह्न प्रस्फुटित हो गये। वह उठी 
                    और धीरे-धीरे रामदयाल के कमरे में दाखिल हुई। वह लेटा हुआ था। 
                    उस के चेहरे पर एक गम्भीर मुस्कराहट खेल रही थी -- अव्यक्त 
                    वेदना की अथवा गुप्त-उल्लास की, कौन जाने?
 उर्मिला के आते ही वह उठ बैठा। उसने कड़क कर कहा, "मेरे कमरे 
                    से निकल जाओ, जा कर सो रहो, मुझे तंग मत करो।"
 "क्या अपराध "
 "मैं कहता हूँ, चली जाओ!
 उर्मिला खड़ी-की-खड़ी रह गयी। जैसे किसी जादूगरनी ने उसके सिर 
                    पर जादू की छड़ी फेर दी हो। वह स्फूर्ति और संकल्प, जो कुछ देर 
                    पहले उसके मन में पैदा हुए थे, सब हवा हो गये। इच्छा होने पर 
                    भी वह दोबारा न पूछ सकी। उदासी का कारण पूछना, उस अकारण क्रोध 
                    का गिला करना, अपने कसूर की माफी मांगना, सब कुछ भूल गयी। 
                    कल्पनाओं के भव्य प्रासाद पल भर में धराशायी हो गये।
 वह चुपचाप वापस चली आयी और सारी रात गीले बिस्तर पर सोये हुए 
                    मनुष्य की भांति करवटें बदलती रही। नींद न जाने कहाँ उड़ गयी 
                    थी?
 ..
 समय के पंख लगा कर दिन उड़ते गये। रामदयाल अब घर में बहुत कम 
                    आता था। उर्मिला को सेवा के लिए दो दासियों में एक और की 
                    वृद्धि हो गयी थी। वह उनसे तंग आ गयी थी। वह सेवा की भूखी न 
                    थी, मुहब्बत की भूखी थी और मुहब्बत के फूल से उसकी जीवन-वाटिका 
                    सर्वथा शून्य थी। बरसात के बादल आकाश पर घिरे हुए थे। ठण्डी 
                    हवा साकी की चाल चल रही थी। बाहर किसी जगह पपीहा रह-रह कूक 
                    उठता था। वायु का एक झोंका अन्दर आया। उर्मिला के हृदय में 
                    उल्लास के बदले अवसाद की एक लहर दौड़ गयी। हृदय की गहराइयों से 
                    एक लम्बी सांस निकल गयी। उसने सितार उठाया और विरह का एक गीत 
                    गाने लगी। उसकी आवाज़ में दर्द था, गम था और जलन थी। 
                    वायु-मण्डल उसके गीत से झंकृत हो कर रह गया। अपने गीत की 
                    तन्मयता में वह बाह्य संसार को भूल गयी। रात की नीरवता में 
                    उसका गीत वायु के कण-कण में बस गया।
 सहसा सामने के भवन से, जैसे किसी ने सितार की आवाज़ के उत्तर 
                    में गाना आरम्भ किया -
 पिया बिन चैन कहाँ मन को राग क्या था, किसी ने उर्मिला का दिल 
                    चीर कर सामने रख दिया था। वह अपना गाना भूल गयी और तन्मय हो कर 
                    सुनने लगी। क्या आवाज थी, कैसा जादू था? रूह
                    खिंची चली जाती 
                    थी। एक महीने से वहाँ कोई सितार बजाया करता था, किन्तु उर्मिला 
                    ने कभी उस ओर ध्यान न दिया था। आज न जाने क्यों, उसका हृदय 
                    अनायास ही गीत की ओर आकर्षित हुआ जा रहा था। इच्छा हुई खिड़की 
                    में जा कर बैठ जाय, परन्तु फिर झिझक गयी, उसी तरह जैसे नया चोर 
                    चोरी करने से पहले हिचकिचाता है।
 
 वह खिड़की से झांकने के लिए उठी। उसे अपने पति का ध्यान हो 
                    आया, वह फिर बैठ गयी। उसने सितार को उठाया, फिर रख दिया कि 
                    गाने वाला यह न समझ ले कि उसके गीत का उत्तर दिया जा रहा है। 
                    उठ कर उसने एक पुस्तक ले ली और पढ़ना आरम्भ कर दिया, परन्तु 
                    पढ़ने में उसका जी न लगा। उसे हर पंक्ति में यही अक्षर लिखे 
                    हुए दिखायी दिये --
 पिया बिन चैन कहाँ मन को उठ कर उसने पुस्तक को फेंक दिया और 
                    आराम-कुर्सी पर लेट गयी। गाने वाला अब भी गा रहा था ओर गीत 
                    उसकी एक-एक नस में बसा जा रहा था। विवश हो कर वह उठी। उस ने 
                    सितार को उठाया, तारों में झनकार पैदा हुई, तारों पर उंगलियाँ 
                    थिरकने लगीं और वह धीरे-धीरे गाने लगी। शनै:-शनै: उसका स्वर 
                    ऊंचा होता गया, यहाँ तक कि वह बेसुध हो कर पूरी आवाज से गा उठी 
                    :
 पिया बिन चैन कहाँ मन को
 गीत समाप्त हो गया, वायु-मण्डल के कण-कण पर छाया हुआ जादू टूट 
                    गया। वह जल्दी से उठ कर खिड़की में चली गयी। उसने देखा, युवक 
                    सितार पर हाथ रखे उस का गाना सुन रहा है।
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