थोड़ी देर
बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर
चुका था।
सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, ''एक रोटी देती हूँ?''
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर
में बोला, ''नहीं।''
सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ''नहीं बेटा, मेरी कसम,
थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।''
मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर
दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, ''नहीं रे,
बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि
खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती
ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी
है।''
सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर
दिया।
मोहन कटोरे को मुँह लगाकर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी
चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम
लेकर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ
नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पीकर तथा पानी के
लोटे को हाथ में लेकर तेजी से बाहर चला गया।
दो रोटियाँ,
कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े
पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा
रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस
वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगत थे। शरीर का चमड़ा
झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी
धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोड़ा सुड़कते हुए
पूछा, ''बड़का दिखाई नहीं दे रहा?''
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो
गया है - जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती
हुई बोली, ''अभी-अभी खाकर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों
में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, 'बाबू जी, बाबू जी' किए रहता है।
बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।''
मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, ''ऐं, क्या
कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।''
सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की
भांति बड़बड़ाने लगी, ''पागल नहीं हैं, बड़ा होशियार है। उस
जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज
कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती हैं,
पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे
भाइयों पर जान देता हैं। दुनिया में वह सबकुछ सह सकता है, पर
यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।''
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की
ओर देखते हुए हंसकर कहा, ''बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है,
वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था,
लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था,
उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार
हैं। प्रमोद को कम समझती हो?'' यह कहकर वह अचानक जोर से हँस
पड़े।
मुंशी जी
डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे।
कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँसकर खाने
लगे।
फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज
सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक
लगातार बोल रहा था।
सिद्धेश्वर
की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी
चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर
चीज पर पहले की तरह धडल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं
होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो
दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जाकर आज शाम को
तोड़ने वाले हों।
सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, ''मालूम होता है, अब
बारिश नहीं होगी।''
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर
में राय दी, ''मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।''
सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, ''फूफा जी बीमार हैं, कोई
समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात
किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, ''गंगाशरण
बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास हैं।''
सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले।
उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को
बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरीने पूछा, ''बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी
बहुत-सी हैं।''
मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी
से देखा, तत्पश्चात किसी छंटे उस्ताद की भांति बोले, ''रोटी?
रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत
ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के
लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?''
सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोड़ा-सा गुड़ है।
मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, ''तो थोड़े गुड़ का ठंडा रस
बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा,
साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक
में दम आ गया है।'' यह कहकर वे ठहाका मारकर हँस पड़े।
मुंशी जी के
निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की
जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह
पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे
पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया।
उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह
जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में
सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक
एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया।
एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी
थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई।
उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी
आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।
सारा घर
मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी
टंगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं
पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह होकर
निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व
मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो
और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो। |