वह
उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और
एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड़
की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज
थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या
मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर
जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर
व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से
देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ाकर
गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र
धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
उसने फुर्ती
से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके
में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने
लगी। वहाँ पीढ़ा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था
कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आकर
धम-से चौंकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका
मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके
फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी
की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत
हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती
रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चार भी जब रामचंद्र नहीं
उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा - 'बड़कू, बड़कू!' लेकिन
उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख
दिया। सांस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार
नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने
मां की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते
निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह
यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिद्धेश्वर ने डरते-डरते पूछा, ''खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ
क्या?''
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ''बाबू जी खा चुके?''
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ''आते ही
होंगे।''
रामचंद्र
पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा,
दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर
झुर्रियाँ।
वह एक स्थानीय दैनिक समचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से
प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया
था।
सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर
पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति
देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली
तरकारी।
रामचंद्र ने
रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, ''मोहन कहाँ हैं?
बड़ी कड़ी धूप हो रही है।''
मोहन सिद्धेश्वरी का मंझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और
वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा
था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं
पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।
किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा,
''किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका
बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती
है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।''
रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रखकर भरा गिलास
पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े
तोड़कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।
सिद्धेश्वरी
भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण
बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ''वहाँ कुछ हुआ क्या?''
रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा,
फिर नीचा सिर करके कुछ रूखाई से बोला, ''समय आने पर सब ठीक हो
जाएगा।''
सिद्धेश्वरी
चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान
में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे।
बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही
थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा
था।
रामचंद्र ने
अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ''प्रमोद खा चुका?''
सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर
दिया, ''हाँ, खा चुका।''
''रोया तो नहीं था?''
सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, ''आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा
ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा।
ऐसा लड़का..."
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल
प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे
तक रोने के बाद सोया था।
रामचंद्र ने
कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके
कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो
सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ''एक
रोटी और लाती हूँ?''
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हड़बड़ाकर बोल पड़ा,
''नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं
तो यह भी छोड़नेवाला हूँ। बस, अब नहीं।''
सिद्धेश्वरी ने जिद की, ''अच्छा आधी ही सही।''
रामचंद्र बिगड़ उठा, ''अधिक खिलाकर बीमार डालने की तबीयत है
क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती
तो क्या ले नहीं लेता?''
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में
बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा,
''पानी लाओ।''
सिद्धेश्वरी
लोटा लेकर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से
बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के
टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठाकर आँख से निहारा और अंत में
इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया,
जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो।
मंझला लड़का
मोहन आते ही हाथ-पैर धोकर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था
और उसकी आंखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह
अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह
उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, ''कहाँ
रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।''
मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए
अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, ''कहीं तो नहीं गया था।
यहीं पर था।''
सिद्धेश्वरी वहीं बैठकर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे
स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, ''बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर
रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों
घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।'' यह कहकर उसने अपने मंझले
लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
मोहन अपनी
माँ की ओर देखकर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया।
वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल
तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।
सिद्धेश्वरी
की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे
बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने
लगी। |