किन्तु ज्यों-ज्यों वह छन्द सूने भवन में गँूजता, घूमता गया
त्यों-त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी
तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!
जब वह चिड़ियों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों-भरे सूने ऊँचे
सिंहाद्वार के बाहर निकला तो एकाएक राह से गुजरते हुए लोग
'भूत' 'भूत' कह कर भाग खड़े हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं
गया था। लोगों की धारणा थी कि वहाँ एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले --
सड़क पर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा-प्यासा अपने
सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊँचे सेमल के वृक्ष
के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों के फलों का रेशमी
कपास हवा में तैरता हुआ, दूर-दूर तक और इधर-उधर बिखर रहा था।
उसके माथे पर फिक्रें गँुथ-बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी
हुई एक मोटी इंर्ट सिरहाने रखी और पेड़-तले लेट गया।
धीरे-धीरे, उसकी विचार-मग्नता को तोड़ते हुए कान के पास उसे
कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे
कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, "अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और
दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का
अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे-कैसे दम्भी
इकठ्ठे हुए हैं?
वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लड़का खट से उठ बैठा। उसका चेहरा
धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से
निर्जीव।
वह एकदम, बात करनेवालों के पास खड़ा हुआ। हाथ जोड़े, माथा जमीन
पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने
लगा, ' हे विद्वानों! मैं मूर्ख हँू। अपढ़ देहाती हँू किन्तु
ज्ञान-प्राप्ति की महत्वाकांक्षा रखता हँू। हे महाभागो! आप
विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह
बताओ।'
पेड़-तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर
हँसने लगे; पूछा -
'कहाँ से आया है?'
'दक्षिण के एक देहात से! पढ़ने-लिखने से मैंने बैर किया तो
विद्वान् पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय
कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूँगा। जंगल-जंगल घूमता,
राह पूछता, मैं आज ही काशी पहँुचा हँू। कृपा करके गुरू का
दर्शन कराइए।'
अब दोनों विद्यार्थी जोर-जोर से हँसने लगे। उनमें-से एक, जो
विदूषक था, कहने लगा --
'देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल
जायेगा।' कह कर वह ठठाकर हँस पड़ा।
आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लड़के ने अपना
डेरा-डण्डा सँभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढ़ाता हुआ
भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, 'तुमने अच्छा किया उसे वहाँ भेज
कर?' उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
दूसरा बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना
ही कहा, 'आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।'
सिंहद्वार की लाल-लाल बरें गँू-गँू करती उसे चारों ओर से काटने
के लिए दौड़ी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की
धूप में चमकनेवाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आँगन के
आस-पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये -- विशाल, भव्य और
सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे
अभी-अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
आँगन से दीखनेवाली तीसरी मंजिल की छज्जेवाली मँुडेरे पर एक
बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी
दिखाई दिया, लम्बा-चौड़ा, साफ-सुथरा। उसकी सीढ़ियाँ ताजे गोबर
से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढ़ियों पर
उसके चलने की आवाज गँूजती; पर कहीं, कुछ नहीं!
वह आगे-आगे चढ़ता-बढ़ता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच
के आँगन के चारों ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी ग यिाँ
दूर-दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक
वाद्य-यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे
थे और कहीं अगरबत्तियाँ जल रही थीं।
इतनी प्रबन्ध-व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन
नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी
पग-ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद-सफेद ग यिाँ, फिर
वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियाँ। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन,
वही विशालता, वही भव्यता और वही 'मनुष्य-हीनता।'
अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? यह कहाँ फँस
गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस
खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले
जीने पर चढ़ने लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियाँ बिछी हुई थीं।
कुछ तैल-चित्र टँगे थे। खिड़कियाँ खुली हुई थीं जिनमें-से सूरज
की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिड़की के बाहर जो नजर
जाती तो बाहर का हरा-भरा ऊँचा-नीचा, माल-तलैयों,
पेड़ों-पहाड़ों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी
ऊँची हैं और कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लड़का भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे
आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि
नीचे देखने ही से आँखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो
सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल
चढ़ना तय किया।
डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लड़का धीरे-धीरे अगली
मंजिल का जीना चढ़ने लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या
फुसलाती और उसकी रीढ़
की हड्डी में-से सर्द संवेदनाएँ गुजरने लगतीं।
जीन खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा-पुता और
अगरू-गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए।
एक ओर योजनों विस्तार-दृश्य देखती, खिड़की के पास देव-पूजा में
संलग्न-मन मँुदी आँखोंवाले ऋषि-मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े
ध्यानस्थ बैठे।
लड़के को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आँसू
आँखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
'ध्यान-मुद्रा' भंग नहीं हुई तो मन-ही-मन माने हुए गुरू को
प्रणाम कर लड़का जीने की सर्वोच्च सीढ़ी पर लेट गया। तुरन्त ही
उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और
सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त-रूप दिया। वह विद्वान्
बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहँुच गया है। उनके
चरणों को पकड़े, उन्हें अपने आँसुओं से तर कर रहा है और
आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, 'पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ
गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और माँ
अंचल से अपनी आँखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान-गौरव से भर कर,
उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता
का वात्सल्य-भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला
हुआ है।
वह देहाती लड़का चल पड़ा और देखा कि उस 'तेजस्वी ब्राह्मण' का
दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी-अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरनें
बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है। |