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उस महाभव्य
भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की
सूनी-सूनी सीढ़ियों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर
से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में
देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों
के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल
में जाती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित
नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल
रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह 'कुछ' क्या एक महापण्डित
की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!
पाँचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी
विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी-सूनी सीढ़ियों पर यह
श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभव: श्यामास्तमालद्रुमै: - इस भवन से ठीक
बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने
जाते समय, राधा-माधव की यमुना-कूल-क्रीड़ा में घर भूली हुई
राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ
शृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया।
विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी!
पिताजी! माँ! माँ! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली। |