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                       ''तुम्हारे पास आ जाऊँ बेगम 
                      जान?''''नहीं बेटी, सो रहो।'' ज़रा सख्ती से कहा।
 और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज़ सुनायी देने 
                      लगी। हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी।
 ''बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?''
 ''सो जाओ बेटा, कैसा चोर?''
 रब्बो की आवाज़ आई। मैं जल्दी से लिहाफ में मुँह डालकर सो 
                      गई।
 सुबह मेरे जहन में रात के 
                      खौफनाक नज़्ज़ारे का खयाल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। 
                      रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बड़बड़ाना तो बचपन में रोज़ 
                      ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। 
                      लिहाज़ा मुझे खयाल भी न रहा। सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम 
                      नज़र आ रहा था। मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ 
                      झगड़ा बड़ी खामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक 
                      समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, 
                      फिर बिल्ली की तरह सपड़-सपड़ रकाबी चाटने-जैसी आवाज़ें आने 
                      लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गई।
 आज रब्बो अपने बेटे से 
                      मिलने गई हुई थी। वह बड़ा झगड़ालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने 
                      किया, उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह 
                      मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब 
                      जोड़े-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से 
                      मिलने भी न आता। लिहाज़ा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के 
                      यहाँ उससे मिलने गई थीं। बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो 
                      भी मजबूर हो गई। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका 
                      जोड़-जोड़ टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। 
                      उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पड़ी रहीं।''मैं खुजा दूँ बेगम जान?''
 मैंने बड़े शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान 
                      मुझे गौर से देखने लगीं।
 ''मैं खुजा दूँ? सच कहती हूँ!''
 मैंने ताश रख दिए।
 मैं थोड़ी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं। 
                      दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेगम जान 
                      का मिज़ाज चिड़चिड़ा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में 
                      दर्द कर लिया। मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज़ की 
                      तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले खुजाती रही। उनका काम करके 
                      कैसी खुशी होती थी!
 ''जरा ज़ोर से खुजाओ। बन्द खोल दो।'' बेगम जान बोलीं, ''इधर 
                      ऐ है, ज़रा शाने से नीचे हाँ वाह भइ वाह! हा!हा!'' वह सुरूर 
                      में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान ज़ाहिर करने लगीं।
 ''और इधर...'' हालाँकि बेगम 
                      जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं 
                      और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ''यहाँ ओई! तुम तो गुदगुदी 
                      करती हो वाह!'' वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी 
                      रही थी।''तुम्हें कल बाज़ार भेजूँगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती 
                      गुड़िया?''
 ''नहीं बेगम जान, मैं तो गुड़िया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ 
                      अब मैं?''
 ''बच्चा नहीं तो क्या बूढ़ी हो गई?'' वह हँसी ''गुड़िया नहीं 
                      तो बनवा लेना कपड़े, पहनना खुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से 
                      कपड़े। सुना?'' उन्होंने करवट ली।
 ''अच्छा।'' मैंने जवाब दिया।
 ''इधर...'' उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर जहाँ खुजली हो रही थी, 
                      रख दिया। जहाँ उन्हें खुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख 
                      देतीं। और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की 
                      तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।
 ''सुनो तो तुम्हारी फ्राकें कम हो गई हैं। कल दर्जी को दे 
                      दूँगी, कि नई-सी लाए। तुम्हारी अम्माँ कपड़ा दे गई हैं।''
 ''वह लाल कपड़े की नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!'' मैं 
                      बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। 
                      बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ।
 बेगम जान तो चुप लेटी थीं। ''अरे!'' मैंने जल्दी से हाथ खींच 
                      लिया।
 ''ओई लड़की! देखकर नहीं 
                      खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गई।
 ''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''
 ''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।
 ''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' 
                      उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।
 ''ऊँ!'' मैं भुनभुनायी।
 ''ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम 
                      बनियान भी नहीं पहना तुमने!''
 मैं कुलबुलाने लगी।
 ''कितनी पसलियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदली।
 ''एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।''
 मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी 
                      ऊटपटाँग।
 ''हटाओ तो हाथ हाँ, एक दो तीन...''
 मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ और उन्होंने जोर से भींचा।
 ''ऊँ!'' मैं मचल गई।
 बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं।
 अब भी जब कभी मैं उनका उस 
                      वक्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी 
                      आँखों के पपोटे और वज़नी हो गए। ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी 
                      हुई थी। बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें 
                      होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं। उनके हाथ ठण्डे थे, मगर 
                      नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गई हो। उन्होंने शाल उतार दी 
                      थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की 
                      तरह चमक रहा था। भारी जड़ाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ 
                      झूल रहे थे। शाम हो गई थी और कमरे में अंधेरा घुप हो रहा था। 
                      मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी। बेगम जान की 
                      गहरी-गहरी आँखें!  मैं रोने लगी दिल में। वह 
                      मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं। उनके गरम-गरम 
                      जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा। मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना 
                      सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाए और न रो 
                      सकूँ। थोड़ी देर के बाद वह पस्त 
                      होकर निढाल लेट गईं। उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और 
                      लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगीं। मैं समझी कि अब मरीं यह। और 
                      वहाँ से उठकर सरपट भागी बाहर। शुक्र है कि रब्बो रात को आ 
                      गई और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ़ सो गई। मगर नींद कहाँ? 
                      चुप घण्टों पड़ी रही।अम्माँ किसी तरह आ ही नहीं रही थीं। बेगम जान से मुझे ऐसा डर 
                      लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती। मगर उनके 
                      कमरे में कदम रखते दम निकलता था। और कहती किससे, और कहती ही 
                      क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर 
                      जान छिड़कती थीं।
 आज रब्बो में और बेगम जान 
                      में फिर अनबन हो गई। मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, 
                      मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा। क्योंकि फौरन ही बेगम जान 
                      को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूँ और मरूँगी 
                      निमोनिया में!''लड़की क्या मेरी सिर मुँडवाएगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत 
                      आएगी।''
 उन्होंने मुझे पास बिठा 
                      लिया। वह खुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं। चाय तिपाई पर 
                      रखी थी।''चाय तो बनाओ। एक प्याली मुझे भी देना।'' वह तौलिया से मुँह 
                      खुश्क करके बोली, ''मैं ज़रा कपड़े बदल लूँ।''
 वह कपड़े बदलती रहीं और मैं 
                      चाय पीती रही। बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे 
                      किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोड़े-मोड़े जाती और वापस 
                      भाग आती। अब जो उन्होंने कपड़े बदले तो मेरा दिल उलटने लगा। 
                      मुँह मोड़े मैं चाय पीती रही।''हाय अम्माँ!'' मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ''आखिर ऐसा 
                      मैं भाइयों से क्या लड़ती हूँ जो तुम मेरी मुसीबत...''
 अम्माँ को हमेशा से मेरा 
                      लड़कों के साथ खेलना नापसन्द है। कहो भला लड़के क्या 
                      शेर-चीते हैं जो निगल जाएँगे उनकी लाड़ली को? और लड़के भी 
                      कौन, खुद भाई और दो-चार सड़े-सड़ाये ज़रा-ज़रा-से उनके 
                      दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की 
                      कायल और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों 
                      से नहीं।बस चलता तो उस वक्त सड़क पर भाग जाती, पर वहाँ न टिकती। मगर 
                      लाचार थी। मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।
 कपड़े बदल, सोलह सिंगार 
                      हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना 
                      दिया। और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने।''घर जाऊँगी।''
 मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी।
 ''मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाज़ार ले चलूँगी, सुनो तो।''
 मगर मैं खली की तरह फैल गई। 
                      सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ।''वहाँ भैया मारेंगे चुड़ैल!'' उन्होंने प्यार से मुझे 
                      थप्पड़ लगाया।
 ''पड़े मारे भैया,'' मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकड़ी बैठी 
                      रही।
 ''कच्ची अमियाँ खट्टी होती हैं बेगम जान!''
 जली-कटी रब्बों ने राय दी।
 और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड़ गया। सोने का हार, जो 
                      वह थोड़ी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकड़े-टुकड़े हो गया। 
                      महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी 
                      बिगड़ी न देखी थी, झाड़-झंखाड हो गई।
 ''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं 
                      रपटी बाहर।
 बड़े जतनों से बेगम जान को 
                      होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो 
                      रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं 
                      चुहिया की तरह लिहाफ़ में दुबक गई।
 सर सर फट खच!
 बेगम जान का लिहाफ अँधेरे 
                      में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज़ निकाली। लिहाफ़ में 
                      हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गई। हाथी ने फिर लोट 
                      मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि 
                      जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर 
                      फड़फड़ा रहा था और जैसे उकडूँ बैठने की कोशिश कर रहा था। 
                      चपड़-चपड़ कुछ खाने की आवाजें आ रही थीं, जैसे कोई मज़ेदार 
                      चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं 
                      खाया।
 और रब्बो मुई तो है सदा की 
                      चट्टू! ज़रूर यह तर माल उड़ा रही है। मैंने नथुने फुलाकर 
                      सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की 
                      गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ। लिहाफ़ फिर उमँडना शुरू 
                      हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पड़ी रहूँ, मगर उस लिहाफ़ 
                      ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गई। मालूम होता था, गों-गों करके कोई बड़ा-सा मेंढक फूल रहा है 
                      और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!
 ''आ न अम्माँ!'' मैं हिम्मत 
                      करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे 
                      दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के 
                      दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने 
                      लिहाफ के नीचे एक कलाबाज़ी लगायी और पिचक गया। कलाबाज़ी 
                      लगाने मे लिहाफ़ का कोना फुट-भर उठा,अल्लाह! मैं गड़ाप से अपने बिछौने में!!!
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