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                       वही बेगम जान जिनका लिहाफ़ 
                      अब तक मेरे ज़हन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज है। ये 
                      वो बेगम जान थीं जिनके गरीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए 
                      दामाद बना लिया कि वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक। कभी 
                      कोई रण्डी या बाज़ारी औरत उनके यहाँ नज़र न आई। ख़ुद हाजी थे 
                      और बहुतों को हज करा चुके थे। मगर उन्हें एक निहायत 
                      अजीबो-गरीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, 
                      बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाज़ी करते हैं, इस किस्म के 
                      वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो बस 
                      तालिब इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के 
                      लड़के, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे। मगर बेगम जान से शादी करके 
                      तो वे उन्हें कुल साज़ो-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गए। 
                      और वह बेचारी दुबली-पतली नाज़ुक-सी बेगम तन्हाई के गम में 
                      घुलने लगीं। न जाने उनकी ज़िन्दगी कहाँ से शुरू होती है? 
                      वहाँ से जब वह पैदा होने की गलती कर चुकी थीं, या वहाँ से जब 
                      एक नवाब की बेगम बनकर आयीं और छपरखट पर ज़िन्दगी गुजारने 
                      लगीं, या जब से नवाब साहब के यहाँ लड़कों का जोर बँधा। उनके 
                      लिए मुरग्गन हलवे और लज़ीज़ खाने जाने लगे और बेगम जान 
                      दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की 
                      चुस्त पिण्डलियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर 
                      अंगारों पर लोटने लगीं। या जब से वह 
                      मन्नतों-मुरादों से हार गईं, चिल्ले बँधे और टोटके और रातों 
                      की वज़ीफाख्व़ानी भी चित हो गई। कहीं पत्थर में जोंक लगती 
                      है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए। फिर बेगम जान का 
                      दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जो हुई। लेकिन यहाँ भी 
                      उन्हें कुछ न मिला। इश्किया नावेल और जज़्बाती अशआर पढ़कर और 
                      भी पस्ती छा गई। रात की नींद भी हाथ से गई और बेगम जान 
                      जी-जान छोड़कर बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गईं। चूल्हे में डाला था ऐसा 
                      कपड़ा-लत्ता। कपड़ा पहना जाता है किसी पर रोब गाँठने के लिए। 
                      अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोड़कर 
                      ज़रा इधर तवज्जो करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते। जब 
                      से बेगम जान ब्याहकर आई थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और 
                      चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं। उन रिश्तेदारों को देखकर और 
                      भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मज़े से माल उड़ाने, उम्दा 
                      घी निगलने, जाड़े का साज़ो-सामान बनवाने आन मरते और वह 
                      बावजूद नई रूई के लिहाफ के, पड़ी सर्दी में अकड़ा करतीं। हर 
                      करवट पर लिहाफ़ नईं-नईं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता। 
                      मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें ज़िन्दा रखने लिए काफी 
                      हो। मगर क्यों जिये फिर कोई? ज़िन्दगी! बेगम जान की ज़िन्दगी 
                      जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब 
                      जीं। रब्बो ने उन्हें नीचे 
                      गिरते-गिरते सँभाल लिया। चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म 
                      भरना शुरू हुआ। गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला। एक 
                      अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में ज़िन्दगी की झलक 
                      आई। माफ़ कीजिएगा, उस तेल का नुस्खा़ आपको 
                      बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा। जब मैंने बेगम जान को देखा 
                      तो वह चालीस-बयालीस की होंगी। ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर 
                      नीमदराज़ थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी। 
                      एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पड़ा था और वह महारानी 
                      की तरह शानदार मालूम हो रही थीं। मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा 
                      पसन्द थी। मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी 
                      सूरत देखा करूँ। उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी। नाम को सुर्खी 
                      का ज़िक्र नहीं। और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे। 
                      मैंने आज तक उनकी माँग ही बिगड़ी न देखी। क्या मजाल जो एक 
                      बाल इधर-उधर हो जाए। उनकी आँखें काली थीं और अबरू पर के 
                      ज़ायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं। 
                      आँखें ज़रा तनी हुई रहती थीं। भारी-भारी फूले हुए पपोटे, 
                      मोटी-मोटी पलकें। सबसे ज़ियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज़ 
                      जाज़िबे-नज़र चीज़ थी, वह उनके होंठ थे। अमूमन वह सुर्खी से 
                      रंगे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मूँछें-सी थीं और 
                      कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल। कभी-कभी उनका चेहरा 
                      देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था, कम उम्र लड़कों जैसा। उनके जिस्म की जिल्द भी 
                      सफेद और चिकनी थी। मालूम होता था किसी ने कसकर टाँके लगा दिए 
                      हों। अमूमन वह अपनी पिण्डलियाँ खुजाने के लिए किसोलतीं तो 
                      मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती। उनका कद बहुत लम्बा था 
                      और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौड़ी मालूम 
                      होतीं थीं। लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था। 
                      बड़े-बड़े चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर तो रब्बो उनकी पीठ 
                      खुजाया करती थी। यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती, पीठ खुजाना भी 
                      ज़िन्दगी की ज़रूरियात में से था, बल्कि शायद 
                      ज़रूरियाते-ज़िन्दगी से भी ज्यादा। रब्बो को घर का और कोई काम 
                      न था। बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सिर 
                      और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो 
                      मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है 
                      या मालिश कर रही है।  कोई दूसरा होता तो न जाने 
                      क्या होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म 
                      तो सड़-गल के खत्म हो जाय। और फिर यह रोज़-रोज़ की मालिश 
                      काफी नहीं थीं। जिस रोज़ बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो 
                      घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो 
                      जाती। और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता। 
                      कमरे के दरवाज़े बन्द करके अँगीठियाँ सुलगती और चलता मालिश 
                      का दौर। अमूमन सिर्फ़ रब्बो ही रही। बाकी की नौकरानियाँ 
                      बड़बड़ातीं दरवाज़े पर से ही, जरूरियात की चीज़ें देती 
                      जातीं। बात यह थी कि बेगम जान को 
                      खुजली का मर्ज़ था। बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हज़ारों 
                      तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम। 
                      डाक्टर,हकीम कहते, ''कुछ भी नहीं, जिस्म साफ़ चट पड़ा है। 
                      हाँ, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर।'' 'नहीं भी, ये 
                      डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? 
                      अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, 
                      महीन-महीन नज़रों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी 
                      यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली। जितनी बेगम जान सफेद 
                      थीं, उतनी ही यह सुर्ख। बस जैसे तपाया हुआ लोहा। हल्के-हल्के 
                      चेचक के दाग। गठा हुआ ठोस जिस्म। फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ। 
                      कसी हुई छोटी-सी तोंद। बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा 
                      नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के 
                      शरारे निकलते रहते थे। और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस 
                      कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों 
                      पर! वहाँ से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ! मैं 
                      तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ 
                      कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं? गर्मी-जाड़े बेगम जान 
                      हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं। गहरे रंग के पाजामे 
                      और सफेद झाग-से कुर्ते। और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की 
                      दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं। उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द 
                      था। जाड़े में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता। वह 
                      हिलती-डुलती बहुत कम थीं। कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही 
                      हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी 
                      नौकरियाँ खार खाती थीं। चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ 
                      उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम 
                      जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजूँ थीं। 
                      जहाँ उन दोनों का ज़िक्र आया और कहकहे उठे। लोग न जाने 
                      क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी 
                      से मिलती ही न थी। वहाँ तो बस वह थीं और उनकी खुजली! मैंने कहा कि उस वक्त मैं 
                      काफ़ी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा। वह भी मुझे बहुत प्यार 
                      करती थीं। इत्तेफाक से अम्माँ आगरे गईं। उन्हें मालूम था कि 
                      अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूँगी, 
                      इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड़ गईं। मैं भी 
                      खुश और बेगम जान भी खुश। आखिर को अम्माँ की भाभी बनी हुई 
                      थीं। सवाल यह उठा कि मैं सोऊँ 
                      कहाँ? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में। लिहाज़ा मेरे लिए 
                      भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलँगड़ी डाल दी गई। 
                      दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे। मैं और बेगम जान चांस 
                      खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई। और 
                      जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी। 
                      'भंगन कहीं की!' मैंने सोचा। रात को मेरी एकदम से आँख खुली 
                      तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा। कमरे में घुप अँधेरा। और 
                      उस अँधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें 
                      हाथी बन्द हो!''बेगम जान!'' मैंने डरी हुई आवाज़ निकाली। हाथी हिलना बन्द 
                      हो गया। लिहाफ नीचे दब गया।
 ''क्या है? सो जाओ।''
 बेगम जान ने कहीं से आवाज़ दी।
 ''डर लग रहा है।''
 मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा।
 ''सो जाओ। डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो।''
 ''अच्छा।''
 मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी। मगर 'यालमू मा बीन' पर 
                      हर दफा आकर अटक गई। हालाँकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है।
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