जब मैं
जाड़ों में लिहाफ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई
हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है। और एकदम से मेरा दिमाग
बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौडने-भागने लगता है। न जाने
क्या कुछ याद आने लगता है।
माफ
कीजियेगा, मैं आपको खुद अपने लिहाफ़ का रूमानअंगेज़ ज़िक्र
बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ़ से किसी किस्म का रूमान
जोड़ा ही जा सकता है। मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही,
मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी, जब लिहाफ़ की
परछाई दीवार पर डगमगा रही हो।
यह जब का
जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके
दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी। कभी-कभी
मुझे ख़याल आता कि मैं कमबख्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र
में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये
हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी।
यही वजह थी
कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी
एक मुँहबोली बहन के पास छोड़ गईं। उनके यहाँ, अम्माँ खूब
जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी
लड़-भिड़ न सकूँगी। सज़ा तो खूब थी मेरी! हाँ, तो अम्माँ
मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं।
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