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                     छबीलदास 
                    के नेत्रों में करुणा छलछला पड़ी; उसने कहा, "सुशीला, मुझे 
                    अफसोस है कि मेरे पास रुपए नहीं है और तुम्हें यह दिन देखना 
                    पड़ा कि अपने गहने बेचो - भगवान की जैसी मरजी! कल सुबह मैं 
                    रुपये ले आऊँगा।" छबीलदास 
                    सुशीला को एक पास के होटल में ले गया। वह कितना खुश था - एक 
                    साल बाद सुशीला उसके पास लौट आई। उस समय सुशीला के प्रति उसका 
                    क्रोध, उसके कर्मों के प्रति उसकी घृणा - वह सब लोप हो चुके 
                    थे। छबीलदास की जेब में जो ग्यारह आने पैसे थे उनका ईरानी होटल 
                    में जैसा-तैसा नाश्ता करके छबीलदास ने सुशीला को विदा दी। वह 
                    खुद बिना टिकट गाड़ी पर बैठकर घर आया। जिस समय छबीलदास घर लौटा 
                    वह प्रसन्न भी था, चिंतित भी था। उस समय कमरे में मिस्टर वर्मा 
                    बिस्तर पर लेटे हुए सुस्ता रहे थे और रामगोपाल एक उपन्यास 
                    पढ़कर समय काटने की कोशिश कर रहा था। सिंह और पांडे भोजन करने 
                    के लिए होटल चले गए थे।  सुशीला की 
                    अँगूठी बिके और वह भी छबीलदास के हाथों-छबीलदास का हृदय रो रहा 
                    था। आज उसे अपनी गरीबी, विवशता - यह सब बुरी तरह अखर रही थी। 
                    उसने वर्मा के चेहरे को देखा, शांत, गंभीर, निश्चिंत उसकी 
                    हिम्मत बढ़ी, "वर्मा - कुछ बिजनेस बढ़ा?" वर्मा ने 
                    सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कहा, "बढ़ेगा क्यों नहीं। आज ही एक 
                    पार्टी फँसी है - एक सौदे में करीब दो हजार मिल जाएँगे।" छबीलदास के हृदय की गति थोड़ी-सी तेज हुई, "यार - पच्चीस रुपए 
                    की सख्त जरूरत है - अगले हफ्ते वापस कर दूँगा।"
 वर्मा ने 
                    छबीलदास को गौर से देखा। वे मौन भाव से छबीलदास को उसी तरह कुछ 
                    देर तक देखते रहे। छबीलदास का हृदय अब जोरों के साथ धड़कने लगा 
                    था। वर्मा ने आखिर अपनी खामोशी तोड़ी, "पचीस रुपए! ऐसी क्या 
                    जरूरत आ पड़ी?"छबीलदास की आशा और बढ़ी। "भाई जीवन-मरण का प्रश्न है। कल सुबह 
                    तक पचीस रुपए मुझे किसी तरह चाहिए ही।"
 वर्मा ने उसी 
                    प्रकार गंभीरता से उत्तर दिया, "जीवन-मरण का प्रश्न है - तब तो 
                    तुम्हें किसी - न - किसी प्रकार रूपयों का इंतजाम करना ही 
                    होगा। मेरे पास तो इस समय एक पैसा नहीं है और अगर एक हफ्ता ठहर 
                    सकते तो पच्चीस-पचास-सौ जितना माँगते दे सकता था।"छबीलदास को ऐसा लगा मानो उसका हृदय बैठा जा रहा है; वह अपने 
                    दिल को सम्हालने में व्यस्त हो गया और वर्मा कह रहे थे, "देखो, 
                    मुझे कल पंद्रह रुपए की सख्त जरूरत है। एक सेठ को मैंने लंच के 
                    लिए बुलाया है - उससे बहुत बड़े बिजनेस की उम्मीद है। पच्चीस 
                    रुपए का तुम्हें इंतजाम करना ही है क्योंकि यह तुम्हारे 
                    जीवन-मरण का प्रश्न है, तो जैसे पच्चीस वैसे चालीस। कल सुबह तक 
                    पंद्रह रुपए मुझे दे देना - एक हफ्ते में मैं तुम्हें पंद्रह 
                    की जगह डेढ़ सौ रुपए वापस कर दूँगा।"
 रामगोपाल, वर्मा की यह बात सुनकर ठहाका मारकर हँस पड़ा।
 वर्मा ने 
                    रामगोपाल के हँसने पर कोई ध्यान नहीं दिया। छबीलदास रामगोपाल 
                    की ओर घूमा, "आपका परिचय?" छबीलदास ने पूछा।छबीलदास से रामगोपाल का कोई परिचय न कराया गया था क्योंकि 
                    छबीलदास उस दिन सुबह से ही अपने मामलों में बुरी तरह उलझा हुआ 
                    था।
 "जी -मैं भी इसी कमरे में आज से रहने लगा हूँ - और आपका पड़ोसी 
                    हुआ। मैंने पांडे जी से आपकी दास्तान सुनी- काफी दिलचस्प थी।"
 "आपकी बला से।" छबीलदास ने रूखाई से उत्तर दिया।
 छबीलदास की रूखाई का रामगोपाल पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इस 
                    समय वह छबीलदास से मित्रता बढ़ाने की कोशिश कर रहा था।
 रामगोपाल 
                    सुलझे हुए दिमाग का आदमी था। एक साधारण कुल में बहुत बड़ी 
                    आकांक्षाएँ लेकर वह पैदा हुआ था, और उसके जीवन में नेकी, सत्य, 
                    ईमानदारी यह सब उसकी सुविधाओं पर अवलंबित थे। शायद इतना अधिक 
                    महत्वाकांक्षी और अवसरवादी होने के कारण वह आज तक न अपना कोई 
                    मित्र बना सका था और न कहीं टिक सका था। उसके रिश्तेदार उससे 
                    घबराते थे, जो स्पष्ट वक्ता थे और निर्भीक थे उन्होंने साफ-साफ 
                    उससे उनके घर में न आने को कह दिया था, जो शरीफ और मुहब्बतवाले 
                    थे वे ऐसी परिस्थिति पैदा कर देते थे कि रामगोपाल को जबर्दस्ती 
                    उनका घर छोड़ना पड़े। ऐसा नहीं कि 
                    रामगोपाल को घर में पैसे की कोई तंगी रही हो। उसके पिता ने उसे 
                    नौकरी कर लेने को बहुत जोर दिया, मैट्रिकुलेशन-पास रामगोपाल को 
                    सौ-सवा सौ की नौकरी -बड़ी बात थी; लेकिन रामगोपाल की निगाह 
                    लाखों पर थी। उसने सुन रखा था कि सिनेमा लाइन एक ऐसी लाइन हैं 
                    जहाँ आदमी आसानी से लखपति या करोड़पति बन सकता है; और इसलिए 
                    पिता से अनुनय-विनय करके तथा एक लंबी रकम लेकर वह बंबई के लिए 
                    रवाना हो गया था। बंबई में 
                    काफी चक्कर काटने के बाद एक बात उसकी समझ में और आई। अगर किसी 
                    युवक के साथ एक सुंदरी स्त्री है तो उसे आसानी से सफलता 
                    प्राप्त हो सकती है। लेकिन रामगोपाल को सुंदरी स्त्री कहाँ से 
                    मिलती।और आज छबीलदास की कहानी सुनकर एकाएक उनके दिमाग में यह बात आई 
                    - "क्या भगवान ने मुझे अनायास इस कमरे में इन लोगों के साथ 
                    मेरी सहायता करने के लिए भेज दिया है?"
 रामगोपाल ने कहा, "अजीब दुनिया हैं! दूसरों से हमदर्दी करो, 
                    उनकी सहायता करने की सोचो - लेकिन लोग इंसानियत से बात तक नहीं 
                    करते - जाने दीजिए, गलती हो गई।"
  तीर निशाने 
                    पर पड़ा; छबीलदास रामगोपाल के बिस्तर पर बैठ गया, "माफ 
                    कीजिएगा! - बात यह है कि तबीयत अजीब उलझन में हैं, और वर्मा 
                    साहब जिस बेहूदेपन से पेश आए उससे दिमाग का पारा एकाएक बहुत 
                    चढ़ गया था।""खैर, कोई बात नहीं। तो अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ।"
 "हाँ, हाँ!"
 "सुशीला ने क्यों बुलाया था? क्या किसी मुसीबत में है?"
 छबीलदास ने कहा, "हाँ, बहुत बड़ी मुसीबत में हैं। इस सेठ ने 
                    उसे छोड़ दिया है। घर में खाने तक के लिए पैसा नहीं है।" यह 
                    कहकर उसने सुशीला की अँगूठी निकाली, "उसने यह अँगूठी बेचने को 
                    दी है, लेकिन मैं अँगूठी बेचना नहीं चाहता।"
 "अँगूठी 
                    बेचना तो बुरा होगा।" "लेकिन मैं क्या करूँ - मेरे पास रुपए नही हैं।" छबीलदास ने 
                    जरा रूककर कहा, "अगर तुम मुझे पच्चीस रुपए उधार दे सको तो मेरी 
                    इज्जत बच जाए।"
 रामगोपाल ने 
                    पच्चीस रुपए निकालकर छबीलदास को देकर कहा, "लेकिन इस पच्चीस 
                    रुपए से तो सुशीला का काम न चलेगा। आगे चलकर क्या करना होगा - 
                    तुमने यह भी सोचा?"छबीलदास ने देखा कि उसके सामने एक देवता पुरुष बैठा है। चंद 
                    मिनटों की मुलाकात में उसने छबीलदास को पच्चीस रुपए दे दिए। 
                    उसने कहा, "यह तो नहीं सोचा! तुम इसमें कुछ मदद कर सकते हो?"
 रामगोपाल ने 
                    जरा हिचकिचाहट के साथ कहा, "आप मेरी सलाह मानो तो सुशीला को 
                    किसी फिल्म कंपनी में नौकर रखवा दो। मैं कई डायरेक्टरों को 
                    जानता हूँ - अगर तुम चाहो तो मैं दौड़ - धूप कर दूँगा। हजार - 
                    पाँच सौ रुपए की नौकरी आसानी से मिल जाएगी।" बात छबीलदास 
                    की समझ में आ गई। उन्होंने रामगोपाल से हाथ मिलाया, "बात तुमने 
                    लाख रुपए की कही। मैं एक दिन तुम्हें सुशीला से मिलवा दूँगा। 
                    इस बीच में तुम अपने डायरेक्टर दोस्तों से बात कर लो।" 
                     छबीलदास ने 
                    रामगोपाल का सुशीला से परिचय करा दिया।रामगोपाल सुशीला को लेकर सेवा फिल्म कंपनी को डायरेक्टर मिस्टर 
                    व्रती के यहाँ पहुँचा।
 मिस्टर व्रती 
                    फिल्म लाइन में मशहूर आदमी थे। ना जाने कितनी फिल्में उन्होंने 
                    बनाई, न जाने कितनी फिल्में उन्होंने अधबनी छोड़ दी। बड़े ठाठ 
                    से रहते थे। उनके मकान में ही उनका दफ्तर था। मिस्टर व्रती 
                    को एक नई हीरोइन की जरूरत थी क्योंकि उनके नए सेठ ने उनसे कह 
                    दिया था कि फर्स्ट क्लास नई-हीरोइन चाहिए, जिस तनख्वाह पर भी 
                    हो। मिस्टर व्रती के मकान पर हीरोइनों का ताँता लगा रहता था 
                    जिनमें कुछ व्रती साहब नामंजूर कर देते थे और कुछ को उनके नए 
                    सेठ।सुशीला को देखते ही व्रती साहब प्रसन्न हो गए; उनके दिल ने साफ 
                    कह दिया कि सेठ जी इस हीरोइन को पसंद कर लेंगे।
 उन्होंने 
                    बजाय रामगोपाल के सुशीला से कहा, "मैंने आज से ही आपको हजार 
                    रुपए पर रख लिया - एक पिक्चर बनाने पर मैं आपकी तनख्वाह डेढ़ 
                    हजार रुपये महीने कर दूँगा।" रामगोपाल ने 
                    उसी समय कहा, "वह तो ठीक है, लेकिन जब तक आप मुझे अपनी पिक्चर 
                    में रोल नहीं देंगे तब तक यह काम न करेंगी।"सुशीला ने आश्चर्य से रामगोपाल को देखा। रामगोपाल ने सुशीला से 
                    कह रखा था कि वह लखपती आदमी है, उसने सुशीला को बताया कि वे 
                    पच्चीस रुपए जो छबीलदास ने उसे दिए थे, रामगोपाल से लेकर दिए 
                    थे। और अब उसने देखा कि रामगोपाल उसकी नौकरी के कमीशन में खुद 
                    नौकरी माँग रहा है। लेकिन उसने उससे कुछ कहा नहीं, मिस्टर 
                    व्रती की ओर से आँखें हटा लीं।
 "अच्छी बात 
                    है - आपको भी मैं एक पार्ट दे दूँगा; लेकिन तन्ख्वाह ज्यादा न 
                    दे सकूँगा।"और उसी समय रामगोपाल को सेवा फिल्म कंपनी में ढाई सौ रुपए 
                    महीने की जगह मिल गई।
 सेवा फिल्म कंपनी से निकलकर रामगोपाल ने सुशीला से कहा, "बहुत 
                    बड़ा काम हो गया - इसकी खुशी में आज ताजमहल होटल में खाना खाया 
                    जाए।"
 पिछले कुछ दिनों से सुशीला बहुत अधिक परेशान रही थी, आज उसकी 
                    परेशानियाँ दूर हो गई थीं। उसका जी हल्का था, और वह हँसना 
                    चाहती थी, घूमना चाहती थी। सेठ हीरालाल के साथ वह एकाध दफा 
                    ताजमहल होटल गई थी और वहाँ की चहल-पहल, वहाँ के वैभव से वह 
                    प्रभावित हुई थी। उसने कहा, "अच्छी बात है।"
 सुशीला को 
                    लेकर रामगोपाल ताजमहल होटल पहुँचा। वहाँ उसने सुशीला से 
                    प्रेमालाप प्रारंभ किया। सुशीला उस दिन प्रसन्न थी। यह 
                    प्रेमालाप उसे बुरा नहीं लगा। वह रामगोपाल को प्रेमालाप में 
                    बढ़ावा दे रही थी। लेकिन उन दोनों को यह पता न था कि होटल के एक कोने में एक आदमी 
                    बैठा हुआ इन दोनों की गतिविधि को बड़े ध्यान से देख रहा था।
 उस दिन 
                    मिस्टर वर्मा ने पंजाब के एक बहुत बड़े व्यापारी को फाँसा था 
                    और उसे वे ताजमहल होटल में डिनर खिलाने को ले गए थे। रामगोपाल 
                    को एक स्त्री के साथ ताजमहल होटल में बैठा देखकर स्वाभाविक रूप 
                    से मिस्टर वर्मा को कौतूहल हुआ; लेकिन उस कौतूहल को उन्हें 
                    जबर्दस्ती दबाना पड़ा। पर मिस्टर वर्मा साधारण ही चीजों को 
                    छोड़ देनेवाले जीव नहीं थे। जब मिस्टर वर्मा अपने कमरे में 
                    पहुँचे तो वे काफी खुश थे - दो हजार के फायदे का काम उन्होंने 
                    तय कर लिया था। सुशीला को 
                    उसके घर पहुँचाकर रामगोपाल उस समय तक अपने कमरे में लौट आया था 
                    और छबीलदास से वह सुशीला की तथा अपनी सफलता की बात बतला रहा 
                    था। लेकिन इस बातचीत में वह ताजमहल होटल जाने की बात तथा 
                    सुशीला से अपनी प्रेम-वार्ता को दबा गया था। पांडे और सिंह को 
                    रामगोपाल के सौभाग्य पर ईर्ष्या हो रही थी। उसी समय मिस्टर 
                    वर्मा ने "मार लिया मैदान बंदे - मार लिया मैदान," गाना 
                    गुनगुनाते हुए कमरे में प्रवेश किया। आते ही तपाक से उन्होंने 
                    रामगोपाल से पूछा, "वाह भाई - बड़े छुपे रूस्तम निकले! किस 
                    खूबसूरत बला को ताजमहल होटल में फाँस ले गए थे?" रामगोपाल 
                    पकड़ा गया, फिर भी उसने बचने की कोशिश की, "मेरी क्लास-फेलो 
                    थी, बंबई घूमने आई है।""क्यों बनते हो यार - शक्ल से तो ऐक्ट्रेस मालूम होती है - मैं 
                    भी ताजमहल होटल में मौजूद था - और तुम दोनों किसी फिल्म कंपनी 
                    की बात भी कर रहे थे।"
 सिंह की ईर्ष्या रामगोपाल के सौभाग्य से काफी भड़क चुकी थी, 
                    उसने छूटते ही कहा, "सुशीला रही होगी। आज इन्हें और सुशीला, 
                    दोनों को नौकरी मिली है न! जश्न मनाने गए थे।"
 छबीलदास के चेहरे से सारी खुशी गायब हो गई, उसने जरा गंभीर 
                    स्वर में कहा, "तुम इतने कमीने निकलोगे - यह मुझे न मालूम था।"
 वर्मा हँस 
                    पड़े। "इसमें कमीनेपन की क्या बात - कहा है न रंडी किसकी बीवी 
                    और भँडुआ किसका यार।"वर्मा की इस हँसी ने आग में घी का काम किया। छबीलदास ने 
                    रामगोपाल से कड़क कर कहा, "क्या जवाब देते हो?"
 रामगोपाल भी तन गया, "तुम मुझसे जवाब माँगनेवाले कौन होते हो? 
                    जवाब माँगना है तो सुशीला से माँगो जाकर।"
 पांडे ने किसी तरह मामला शांत करवाया।
 मिस्टर व्रती 
                    ने सुशीला से कहा, "यह आदमी रामगोपाल, इसके सामने मैंने पूरी 
                    बात कहना ठीक नहीं समझा। अब मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ - यह 
                    रामगोपाल कौन है और इससे आपका क्या रिश्ता है?" सुशीला ने 
                    उत्तर दिया, "मैं इसे बिलकुल नहीं जानती। मेरे एक मुलाकाती ने 
                    कहा था कि ये आपकी फिल्म कंपनी में मुझे पहुँचा देंगे।"मिस्टर व्रती ने संतोष की एक गहरी साँस ली, " अगर मैं इसे अपनी 
                    कंपनी में न लूँ तो आपको कोई आपत्ति नहीं होगी , क्योंकि यह 
                    किसी काम का आदमी नहीं है।"
 "इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है।" सुशीला ने शांत भाव से 
                    उत्तर दिया।
 "एक बात और। मेरी कंपनी में रहकर आप बिना मेरी इजाजत किसी भी 
                    आदमी से नहीं मिल सकेंगी - मेरी कंपनी की यह पहली शर्त है।"
 "अच्छी बात है।" सुशीला ने कहा।
 मिस्टर व्रती 
                    उठ खड़े हुए, "आज शाम को पूना चलना है - वहाँ सेठ जी से बातें 
                    करनी हैं। आप शाम तक तैयार हो जाइए, टिकट मँगवाए लेता हूँ।"मिस्टर व्रती ने उसी समय कंपनी के दरबान को आज्ञा दी कि 
                    रामगोपाल को आफिस में घुसने न दिया जाए और उससे कह दिया जाए कि 
                    उसे नौकरी नहीं मिली।
 जिस समय सुशीला अपना असबाब ठीक करने अपने घर पहुँची, छबीलदास 
                    फुटपाथ के चक्कर लगा रहा था। सुशीला ने छबीलदास को अंदर 
                    बुलाया।
 छबीलदास भरा हुआ था, उसने कहा, "मैं तुम्हारे सर्विस पा जाने 
                    पर बधाई देने आया हूँ।"
 सुशीला 
                    मुस्कुराकर अपना असबाब ठीक करने लगी।"और इस बात पर भी कि तुम्हें एक नया मित्र मिल गया है जो 
                    तुम्हें ताजमहल होटल में खाना खिला सकता है, वहाँ तुमसे 
                    प्रेमालाप कर सकता है।"
 सुशीला ने सूटकेस में कपड़े रखते हुए कहा, "तो क्या तुम मुझसे 
                    कैफियत तलब करने आए हो?"
 छबीलदासहँस पड़ा, "मैं कैफियत तलब करनेवाला कौन होता हूँ। मैं 
                    तो वह साधन मात्र हूँ जो तुम्हारी मुसीबत पर काम आए।"
 छबीलदास के इस स्वर से सुशीला को बुरा लगा, "आपका वह फर्ज था 
                    क्योंकि आप ही मुझको बनारस से बहका लाए थे। आगे से मैं आपसे इस 
                    तरह की न कोई सहायता माँगूँगी न आपसे कोई वास्ता रखूँगी।"
 छबीलदास उठ 
                    खड़ा हुआ - तैश में।आज उसे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी।उसने कहा, "बहुत अच्छा। लेकिन याद रखना तुम्हें फिर मेरी जरूरत 
                    पड़ेगी - और उस दिन मैं तुम्हारे ये शब्द याद रखूँगा - आगे 
                    चलकर मुझसे किसी तरह की उम्मीद न रखना।" और वह चला आया।
 उस छोटे-से 
                    कमरे में पाँच बिस्तर पड़े थे और पाँच आदमी लेटे थे। पांडे एक 
                    फिल्म मैगजीन उलट-पुलट रहा था, सिंह एक फिल्मी गाना गुनगुना 
                    रहा था। वर्मा सिगरेट के कश-के-कश ले रहा था। छबीलदास एक कोने 
                    में पड़ा सिसकियाँ ले रहा था। वह अपने विगत पर सोच रहा था, और 
                    वर्तमान की उस विगत से तुलना कर रहा था। और रामगोपाल दूसरे 
                    कोने में मौन अपने भविष्य पर चिंता कर रहा था। रामगोपाल को 
                    एक दिन नौकरी मिली, दूसरे दिन उसकी नौकरी छूट गई। कल एक हीरोइन 
                    मिली जिसके साथ में रहकर उसने लखपती होने के सपने बनाए थे, आज 
                    वह हीरोइन हाथ से निकल गई।उसने जेब से अपना पर्स निकाला - अब उसमें कुल जमा-पूँजी पैंतीस 
                    रुपए रह गई थी।
 पांडे ने 
                    मैगजीन रख दी। उसने रामगोपाल से पूछा, "क्यों, बड़े चुप हो? 
                    क्या बात है?"सिंह ने उत्तर दिया, "आज इनकी नौकरी छूट गई।"
 छबीलदास, जो अभी तक सिसकियाँ भर रहा था, चौंककर बैठ गया, 
                    "अच्छा हुआ। इन साले दगाबाजों के साथ होगा ही क्या? इस हाथ ले, 
                    उस हाथ दे।" और यकीनी तौर से छबीलदास का क्रोध और दु:ख ७५ 
                    प्रतिशत गायब हो गया था।
 रामगोपाल से 
                    अब न रहा गया, वह उठ बैठा और उसने कहा, "अब जो किसी साले ने 
                    गाली दी तो मैं उसका मुँह तोड़ दूँगा।"मामला संगीन हो रहा था - वर्मा ने यह देखा और उठ बैठा। "आखिर 
                    मामला क्या है?"
 सिंह ने कहा, "आज रामगोपाल को सेवा फिल्म कंपनी से जवाब मिल 
                    गया - सो ये झल्लाए हुए हैं। लेकिन छबीलदास आज क्यों इतने 
                    क्रोधित हो गए - यह समझ में नहीं आता।"
 "वह मैं बतला दूँ।" वर्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, "वह औरत - 
                    वही - क्या नाम है उसका - वह आज एक आदमी के साथ - शायद उसका 
                    नाम व्रती है - पूना गई है, साथ में मेरे पंजाबवाले सेठ भी थे 
                    जो उस कंपनी में रुपया लगा रहे हैं।"
 अब वर्मा से न रहा गया, वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। "पंजाबवाले सेठ 
                    के पास पैसा है - वह पैसा खर्च तो होना ही चाहिए।"
 पांडे उठा - 
                    उसने छबीलदास से कहा, "इसी बात पर नाराज हो गए? अरे भाई, एक 
                    दफा तुम्हें छोड़कर चली गई तो फिर अब वह फिर से तुम्हारी कैसे 
                    हो सकती थी - भूल जाओ उसे।" उधर सिंह रामगोपाल से कह रहा था, "ऐसी नौकरियाँ मिलेंगी और 
                    छूटेंगी - इस पर अफसोस करने की क्या बात है?" और पांडे और सिंह 
                    ने मिलकर छबीलदास और रामगोपाल से हाथ मिलवा दिया।
 वर्मा ने 
                    एक-एक सिगरेट उन लोगों को दी - कमरे में सिगरेट का धुआँ भर 
                    गया। उस एक छोटे-से कमरे में भेड़ों की तरह रहनेवाले वे पाँचों 
                    युवक लेटे थे और सिगरेट पी रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। भावना 
                    और चेतना से शून्य। और धीरे-धीरे वह पाँचो युवक सो गए सुबह 
                    उठकर फिर नित्य की तरह बेकारी, गैर-जिम्मेदारी की जिंदगी 
                    बिताने के लिए। |