| कुछ लोग 
                      दार्शनिक होते हैं, कुछ लोग दार्शनिक दिखते हैं। यह जरूरी 
                      नहीं कि जो दार्शनिक हो वह दार्शनिक न दिखे, या जो दार्शनिक 
                      दिखे वह दार्शनिक न हो, लेकिन आमतौर से होता यही है कि जो 
                      दार्शनिक होता है वह दार्शनिक दिखता नहीं है, और जो दार्शनिक 
                      दिखता है वह दार्शनिक होता नहीं हैं। रामगोपाल जिस समय बंबई 
                      नगर के दादर मुहल्ले के एक ईरानी होटल में गरमी की दोपहरी 
                      में बिजली के पंखे के नीचे एक प्याला चाय के साथ पावरोटी का 
                      टुकड़ा गले के नीचे उतारकर अपनी भूख शांत करने की कोशिश कर 
                      रहा था उस समय एक अच्छा-खासा दार्शनिक दिख रहा था। 
                       बाल बिखरे 
                      हुए मत्थे पर शिकन, आँखों में चिंता की झलक, और बैठने के ढंग 
                      में एक विवशता से भरी लापरवाही। लेकिन अगर कोई उस समय 
                      रामगोपाल से कह देता कि वह दार्शनिक है तो यकीनी तौर से 
                      झुँझलाहट के साथ यही कहता, "आपकी बला से!" और फिर वह बिना 
                      दूसरा शब्द कहे अपने काम पर जुट जाता। 
                       पावरोटी को गले के 
                      नीचे उतारने में रामगोपाल को मेहनत पड़ रही थी, और शायद 
                      सुस्ताने के खयाल से उसने अपना पर्स निकाला। दस-दस रुपए के 
                      पंद्रह नोट, गिलट के सात रुपए और एक अठन्नी और तीन इकन्नियाँ 
                      - इतनी जमा-पूँजी अभी उस पर्स में मौजूद थी।  |