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                     इसके 
                    अलावा कुछ सिफारिशी चिठि्ठयाँ जिन्हें निर्दिष्ट स्थान पर 
                    पहुँचाने के लिए उसने बंबई के कई फिल्म स्टूडियो के दर्जनों 
                    चक्कर लगाए लेकिन फाटक के पठान दरबानों ने उसे किसी हालत में 
                    अंदर न घुसने दिया और इसलिए अभी तक वे चिठि्ठयाँ उन स्थानों 
                    में न पहुँच सकीं, कुछ पते जो उसने रास्ते चलते हुए कुछ खास 
                    महत्वपूर्ण आदमियों की मुलाकात की यादगार में दर्ज कर लिए थे 
                    और छपे हुए करीब दस-बारह विजिटिंग कार्ड। रामगोपाल ने 
                    अपने पर्स की हरएक चीज को निकाला। जो गिनने की थीं उन्हें 
                    गिना, जो देखने की थीं, उन्हें देखा और जिन पर उसे सोचना था उन 
                    पर सोचना भी आरंभ कर दिया। लेकिन सोचने का अभ्यास न होने के 
                    कारण उसने पर्स अपनी जेब के हवाले करके फिर पावरोटी को गले के 
                    नीचे उतारने की कोशिश आरंभ कर दी। "अरे, यह तो 
                    रामगोपाल मालूम होते हैं।""हम लोगों को क्यों देखेंगे - अकेले -अकेले चाय पी रहे हैं।"
 रामगोपाल ने घूमकर देखा, सिंह और पांडे रामगोपाल की मेज की ही 
                    तरफ बढ़ रहे थे। रामगोपाल को मुस्कुराना पड़ा, "आओ भाई!" और यह 
                    कहकर उसने होटल ब्वॉय को आवाज दी, "दो प्याले चाय!"
 "कहो भाई, बहुत दिनों से दिखे नहीं, कहो कोई काम-वाम मिल गया 
                    है क्या?" बैठते हुए सिंह ने पूछा।
 "नहीं यार - अभी तक तो नहीं मिला, लेकिन उम्मीद पूरी है!" 
                    रामगोपाल ने जरा रूककर कहा, "वहाशमा कंपनी के डाइरेक्टर को तो 
                    जानते हो - अरे वही मिस्टर कमानी! कल शाम को उनसे मुलाकात हो 
                    गई थी - बड़ी तपाक के साथ मिले, गले में हाथ डाल दिया, बोले, 
                    "तुम्हें अगली पिक्चर में विलेन का काम दूँगा। वादा कर लिया 
                    है!"
 पांडे हँस 
                    पड़ा, "तुम्हें विलेन और मुझे हीरो। मुझसे भी वादा किया था!"रामगोपाल चौंक पड़ा। उसे बड़ी आसानी से विलेन का पार्ट मिल 
                    सकता है, यही नहीं अगर कोई समझदार डायरेक्टर हो तो वह हीरो भी 
                    बना सकता है- इसका उसे पूरा यकीन था, लेकिन पांडे को जो आदमी 
                    हीरो बनाने की सोचे वह या तो पागल है या मजाक कर रहा है। उसने 
                    पांडे को फिर एक दफा गौर से देखकर कहा, "तुम्हें हीरो बनाने का 
                    वादा किया है सच कह रहो हो?"
 "अरे छोड़ो भी - गए हुए लोगों के वादों पर लड़ना-झगड़ना बेकार 
                    है!" सिंह ने इन दोनों की बात अधिक न बढ़े इसलिए कहा।
 रामगोपाल का 
                    चेहरा उतर गया। सिंह की बात में तथ्य है, इस बात को उसने महसूस 
                    किया; एक बँधती हुई उम्मीद छूट गई।
                    पांडे ने रामगोपाल के चेहरे की निराशा देख ली, उसने जरा 
                    मुलायमियत के साथ कहा, "इतना अफसोस करने की जरूरत नहीं। मुझे 
                    देखो, बंबई आए दो साल हो गए हैं लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली। 
                    पड़ा हूँ, बस उम्मीद पर।"रामगोपाल ने 
                    एक ठंडी साँस ली, "कब तक - कब तक इस तरह चलेगा।
 पास की रकम करीब-करीब खत्म हो चुकी थी, होटलवाले का बिल चढ़ 
                    रहा है - समझ में नहीं आता क्या करूँ।"
 पांडे ने कहा, "अगर मेरी सलाह मानो तो होटल छोड़ दो और एक कमरा 
                    किराए पर ले लो। जब तक कमरा न मिले तुम मेरे कमरे में रह सकते 
                    हो - अभी चार आदमी है, अब पाँच हो जाएँगे। वहाँ जी लग जाएगा, 
                    खर्चे की बचत हो जाएगी।"
 रामगोपाल ने 
                    कुछ सोचा, "यार कहते तो ठीक हो। अभी होटल का तीन रूपया रोज दे 
                    रहा हूँ - नब्बे रुपए महीने की बचत बहुत काफी होती है।""नब्बे की नहीं बल्कि अस्सी की, क्योंकि पांडे के कमरे में 
                    रहने पर तुम्हारा हिस्सा दस रुपए महीना आवेगा।"
 "अस्सी ही क्या कम है!" रामगोपाल ने मुस्कुराते हुए कहा। दिनभर 
                    के बाद उसके मुख पर यह पहली मुस्कराहट थी।
 पांडे का 
                    पूरा नाम था रविशंकर पांडे। लखनऊ से बी.ए. पास करने के बाद जब 
                    उसके पिता एक जमींदार की लड़की के साथ दस हजार के लंबे दहेज पर 
                    उसकी शादी तै करा रहे थे, वह बिना कहे-सुने एक दिन बंबई के लिए 
                    रवाना हो गया इसलिए कि वह लड़की जिसके साथ उसकी शादी तै कराई 
                    जा रही थी, गँवार होने के साथ-साथ बदशक्ल थी। पांडे ने फिल्म 
                    काफी देखी थीं; और फिल्मों की सुंदरियों से मिलकर उनमें से 
                    किसी एक को अपनाकर अपने जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करना 
                    चाहता था। पांडे देखने-सुनने में बुरा न था, पैसे की भी उसके 
                    पिता के पास कोई खास कमी नहीं थी, और अपनी निजी योग्यता तथा 
                    प्रतिभा पर उसे विश्वास था। बंबई आकर 
                    धीरे-धीरे उसे निराशाओं का सामना करना पड़ा और प्रत्येक निराशा 
                    के साथ उसका जोश ठंडा पड़ने लगा। न उसे प्रेमिका मिली और न उसे 
                    प्रतिभा और योग्यता के प्रदर्शन का मौका मिला। पास की रकम घटने 
                    लगी पिता ने अधिक पैसा देने से इन्कार कर दिया। इस उम्मीद पर 
                    कि हारकर पांडे को घर आना ही पड़ेगा। पर पिता शायद अपने पुत्र 
                    के जिद्दी स्वभाव को नहीं जानते थे। कदम उठकर पीछे नहीं पड़ता 
                    - सूरमा आगे बढ़ेगा नहीं तो मोर्चे पर खड़ा होकर अपनी जान दे 
                    देगा। पांडे भी कुछ ऐसे ही विचारों का था। बहुत दौड़-धूप करने 
                    पर एक फिल्म कंपनी में एक्स्ट्रा का काम मिल भी गया था, गोकि 
                    पैसे बहुत कम मिले थे। लिहाजा खर्च पूरा करने के लिए पांडे ने 
                    अपने कमरे में किराएदारों को बसा लिया था। सिंह का पूरा 
                    नाम था जसवंतसिंह और वह आगरा जिले का रहनेवाला था। सिंह को 
                    गाने का बड़ा शौक था और उससे अधिक उसके आगरावाले मित्रों को 
                    विश्वास था कि अगर वह किसी फिल्म कंपनी में पहुँच जाए तो उसकी 
                    प्रतिभा चमक उठेगी और उसका भाग्य खुल जाएगा। रोज-रोज मित्रों 
                    की राय सुनते-सुनते सिंह की भी कुछ ऐसी ही राय हो गई थी। 
                    बाईस-तेईस साल का नवयुवक, दुनिया का उसे तजुर्बा न था। मित्रों 
                    ने दम-दिलासा देकर उसे बंबई लाद दिया। लेकिन बंबई आकर उसने 
                    देखा कि यहाँ हर जगह सिफारिश चलती है। कई जगह गया, अपने गाने 
                    सुनाए, लोगों ने उसकी तारीफ की लेकिन फिल्म कंपनी में जो काम न 
                    मिला सो न मिला। हाँ, एक-आध ट्यूशन उसे जरूर मिल गए और इस 
                    उम्मीद पर कि निकट भविष्य में उसे काम जरूर मिलेगा, उसे ट्यूशन 
                    से ही संतोष करना पड़ा। सिंह घर का खुशहाल न था। एक दिन जब वह 
                    एक फिल्म कंपनी के दरबान से गिड़गिड़ाकर भीतर घुसने का प्रयत्न 
                    कर रहा था, उसकी मुलाकात पांडे से हो गई। पांडे ने उसकी कहानी 
                    सुनी। कहानी सुनकर उसे दया आई उसने फुटपाथ पर या बरामदों में 
                    सोनेवाले उस युवक को अपने कमरे में आश्रय दिया। बाद में जब 
                    सिंह को कुछ कामकाज मिला तब सिंह पांडे के कमरे के किराए का एक 
                    भाग देने लगा। रामगोपाल को 
                    साथ लेकर जब पांडे और सिंह कमरे में पहुँचे, उस समय मिस्टर 
                    परमेश्वरीदयाल वर्मा अपनी हजामत बना रहे थे। एक ट्रंक और एक 
                    बिस्तर के साथ एक नए आदमी का कमरे में प्रवेश देखकर मिस्टर 
                    वर्मा चौंके, घूरकर उन्होंने रामगोपाल को देखा। पांडे ने उसी 
                    समय मिस्टर वर्मा से रामगोपाल का परिचय कराया, "यह हैं मिस्टर 
                    रामगोपाल - आज से हम लोगों के साथ रहेंगे। आपके किराए का 
                    हिस्सा साढ़े बारह रुपए से घटकर दस रुपए रह गए।" लेकिन ढाई 
                    रुपए की बचत से मिस्टर वर्मा को कोई खास प्रसन्नता न हुई। उनका 
                    खयाल था कि एक कमरे में सिर्फ एक आदमी रहना चाहिए, जरूरत के 
                    वक्त दो रह सकते हैं, मजबूरी से तीन और जब गले आ पड़े तब चार।
                     उन्होंने 
                    गंभीरतापूर्वक कहा, "एक कमरे में पाँच आदमी - नान्सेंस - मैं 
                    किसी हालत में बर्दाश्त नहीं कर सकता।""तो फिर आप यह कमरा छोड़ सकते हैं।" सिंह ने जरा रूखाई से कहा।
 "आप कौन होते हैं हमारे बीच में बोलनेवाले - कमरा पांडे का है। 
                    इन्हें जो कुछ कहना हो कहें।"
 "मैं बोलनेवाला इसलिए होता हूँ कि मैं भी कमरे का किराया देता 
                    हूँ हर महीना। आपकी तरह नहीं कि तीन महीने से आजकल में टरका 
                    रहे हैं।"
 "तो इसमें तुम्हारे बाप का क्या जाता है? नहीं है इसलिए नहीं 
                    देता, होगा तो एक-एक पैसा पांडे के पास पहुँच जाएगा।"
 इस बातचीत 
                    में बाप का घसीटा जाना सिंह को अच्छा नहीं लगा, उसने अपनी 
                    चप्पल उतारी, "क्या कहा बे - सुअर कहीं का, मेरे बाप का फिर से 
                    तो नाम ले -"पांडे ने सिंह का हाथ पकड़कर बीच-बचाव किया। मिस्टर वर्मा शांत 
                    भाव से दाढ़ी बनाते रहे।
 मिस्टर वर्मा तीस साल के कद्दावर से आदमी थे। करीब पाँच साल 
                    पहले बंबई आए थे एक अंग्रेजी कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर होकर। 
                    यारबास आदमी थे - किसी कदर दबंग थे। एक दिन उन्होंने और उनके 
                    अंगे्रज मैनेजर ने साथ-साथ पी और जी खोलकर पी। पीने के बाद 
                    इनमें और इनके मैनेजर में बातचीत आरंभ हुई, बातचीत ने 
                    वाद-विवाद का रूप धारण किया और वाद-विवाद ने जूते-लात का। 
                    मिस्टर वर्मा हाथ-पैर में अपने मैनेजर से तगड़े थे, उन्होंने 
                    मैनेजर को अधमरा कर दिया। दूसरे दिन वे नौकरी से बर्खास्त कर 
                    दिए गए।
 नौकरी से 
                    निकाले जाने के बाद मिस्टर वर्मा को यह अनुभव हुआ कि नौकरी के 
                    माने होते हैं गुलामी - और उसमें कुछ राजनीतिक चेतना भी जाग्रत 
                    हुई। जो कुछ रकम उनके पास थी उसे बीवी-बच्चों को देकर उन्होंने 
                    उन्हें अपने देश रवाना किया, अकेले वे व्यापार करने के लिए 
                    बंबई में रह गए। फोर्ट एरिया में अपने एक मुलाकाती के दफ्तर 
                    में उन्होंने एक मेज अपनी डलवा ली और कमीशन एजेंसी का कारोबार 
                    शुरू कर दिया। पास की सारी रकम उन्होंने बीवी के हवाले कर दी 
                    थी, अपनी हैसियत बनाए रखकर ही वे कारोबार चला सकते थे और 
                    हैसियत के माने होते हैं अच्छे सूट, कीमती सिगरेट और 
                    मौके-बेमौके टैक्सी की सवारी। लिहाजा हैसियत बनाए रखने के लिए 
                    उन्हें खाने और रहने में किफायत करनी पड़ी। पांडे को मिस्टर 
                    वर्मा लखनऊ से ही जानते थे, इसलिए वे पांडे के साथ रहने लगे। 
                    कारोबर शूरू किए हुए उन्हें अभी कुल छह महीने हुए थे- और अब 
                    जाकर कहीं उन्हें इतना मिलने लगा था कि कर्ज लेकर काम न चलाना 
                    पड़े। शेव करके 
                    मिस्टर वर्मा ने एक अच्छा-सा रेशमी सूट निकाला। सूट पहनते हुए 
                    उन्होंने कहा, "सिंह, कल, जो मेरी टाई ले गए थे वह कहाँ हैं?""वहीं तुम्हारी खूँटी पर टाँग दी थी।" सिंह ने, जो उस समय एक 
                    जासूसी उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो गया था, बिना मिस्टर वर्मा 
                    की ओर देखे उत्तर दिया।
 "तुमने मुझे क्यों नहीं वापस की? जरूरत के वक्त तो गिड़गिड़ाकर 
                    माँग ले जाते हैं और फिर नवाब साहब की तरह चीज फेंके देते हैं 
                    - कमीने कहीं के।"
 सिंह पढ़ने में इतना व्यस्त था कि उसने मिस्टर वर्मा को उत्तर 
                    देने की कोई आवश्यकता नहीं समझी।
 सिंह के मौन 
                    से मिस्टर वर्मा का पारा और भी चढ़ गया, "इन सालों से इतना कहा 
                    कि अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मत पहनो, लेकिन जब शराफत हो तब 
                    मानें। माँगेंगे - नहीं दोगे तो आँख बचाकर उठा ले जाएँगे - अगर 
                    अबकी दफे यह हरकत हुई तो मैं कहे देता हूँ ठीक न होगा।""क्या ठीक नहीं होगा?" एक कर्कश आवाज ने कहा।
 मिस्टर वर्मा ने घूमकर देखा कि छबीलदास गुप्ता कमरे के दरवाजे 
                    पर तने खड़े हैं- सिंह का सूट और वर्मा की टाई डाले हुए।
 "मुझसे बिना पूछे मेरी टाई क्यों ली?" कड़ककर वर्मा ने कहा।
 "तबीयत -" मुँह बनाते हुए गुप्ता ने जवाब दिया।
 हद हो गई। अब 
                    मिस्टर वर्मा से न रहा गया। लपककर उन्होंने छबीलदास का गला 
                    पकड़ा- "तो फिर मेरी तबीयत यह है कि आज तुम्हारी अच्छी तरह 
                    मरम्मत कर दूँ।""हाँ-हाँ। यह गजब मत करना।" सिंह डिटेक्टिव नावेल छोड़कर 
                    बीचबचाव करने दौड़ा, इस डर से कि कहीं इस हाथपाई में उसका सूट 
                    न फट जाए।
 
                    ३३३ छबीलदास ने 
                    टाई गले से उतारकर वर्मा को दे दी और मिस्टर वर्मा सज-धजकर 
                    तैयार हो गए। अपने ट्रंक से उन्होंने स्टेट एक्सप्रेस का एक 
                    टिन निकाला और दस सिगरेटें जो वास्तव में स्टेट एक्सप्रेस की 
                    थीं, उन्होंने एक ओर हटाकर बाकी नंबर टेन सिगरेटों में से 
                    एक-एक उन्होंने कमरे में सब लोगों को दीं। इसके बाद वे अपने 
                    कारोबार के लिए रवाना हो गए। छबीलदास टाई 
                    के हाथ से निकल जाने पर उदास हो गए थे। उस दिन उनका भाग्य 
                    खुलनेवाला था। बात यह थी कि पिछले दिन उन्हें सुशीला का पत्र 
                    मिला था और सुशीला ने उन्हें दूसरे दिन सुबह के समय अपने यहाँ 
                    मिलने के लिए बुलाया था। सुशीला छबीलदास के नगर बनारस की 
                    वेश्या की पुत्री थी। छबीलदास अचानक एक दिन उसके प्रेम में पड़ 
                    गए। उन दिनों छबीलदास हिंदू विश्वविद्यालय में एम.ए. में पढ़ते 
                    थे। उत्साही नवयुवक थे, राजनीतिक अभिरुचि के थे। काँग्रेस के 
                    पक्के कार्यकर्ता थे। विश्वविद्यालय में उनके व्याख्यानों की, 
                    उनके चरित्र-बल की, उनके व्यक्तित्व की धाक थी। सुशीला की 
                    माता ने सुशीला को उच्च शिक्षा दिलाई। मैट्रिकुलेशन पास करके 
                    वह भी विश्वविद्यालय में भरती हुई थी। लेकिन सुशीला की माँ की 
                    संगिन-साथियों ने, उनके मेली-मुलाकातियों ने उसे समझाना शुरू 
                    किया कि वेश्या की लड़की को समाज में कोई स्थान नहीं मिलेगा। 
                    ऐसी हालत में उसे उच्च शिक्षा देना उसकी जिंदगी बरबाद कर देना 
                    था, और धीरे-धीरे सुशीला की माता को यह विश्वास होने लगा था कि 
                    सुशीला को कालेज से हटाकर उसे पेशे में लगा देने में ही सुशीला 
                    का कल्याण है। सुशीला को इन बातों की भनक पड़ गई थी, और लगातार 
                    कई दिनों तक इस नई समस्या पर सोच-विचार के बाद सुशीला इस 
                    निर्णय पर पहुँची कि उसी दिन शाम को उसे किसी योग्य, समझदार और 
                    नेक आदमी की सलाह लेनी चाहिए। उस दिन छबीलदास का एक महत्वपूर्ण 
                    व्याख्यान राजनीति और समाज पर हुआ था और उस व्याख्यान से 
                    सुशीला प्रभावित हुई थी। हिम्मत करके 
                    सुशीला ने छबीलदास को अपनी दास्तान सुनाई और उसकी सलाह माँगी। 
                    सत्याग्रही किस्म के युवक छबीलदास ने सुशीला को दृढ़ता, चरित्र 
                    और सत्य पर कुर्बान हो जाने का संदेश दिया; सुशीला को ऐसा लगा 
                    मानो उसे एक पथ-प्रदर्शक, एक देवता, एक आराध्य मिल गया। सुशीला और 
                    छबीलदास की दोस्ती बढ़ी, और यह दोस्ती लोगों की नजर में खटकी। 
                    इस दोस्ती की चर्चा छबीलदास के चचा लाला मलकूदास के कानों तक 
                    पहुँची। लाला मलकूदास की चौक में परचून की एक बहुत बड़ी दुकान 
                    थी और उनकी गणना नाकवालों में होती थी। उन्होंने इस विषय पर 
                    छबीलदास से जिरह-बहस की और जिरह-बहस के बाद इस नतीजे पर पहुँचे 
                    कि अगर जल्दी ही रोक-थाम नहीं की जाती तो लड़का वेश्या की 
                    लड़की से शादी करके सारे घर की नाक कटवा देगा। उन्होंने बलिया 
                    जाकर जहाँ उनके बड़े भाई, छबीलदास के पिता साह बुलाकीदास रहते 
                    थे, उस मामले में बातचीत की। साह बुलाकीदास बलिया जिले के 
                    महाजन, जमींदार और न जाने क्या-क्या थे। उन्होंने बीमारी का 
                    तार देकर छबीलदास को घर बुलाया और उनके हाथ-पैर बाँधकर 
                    जबर्दस्ती छबीलदास की शादी पास के एक जमींदार की लड़की से करा 
                    दी। दहेज में रुपए-पैसे, चीज वस्तु के साथ छबीलदास के ससूर ने, 
                    जिनके डाकू होने का लोगों को शक था, छबीलदास को एक धमकी भी दी 
                    कि अगर भविष्य में छबीलदास और सुशीला के संबंध में कोई शिकायत 
                    सुनी गई तो बनारस के बीच चौक में छबीलदास की जूतों से मरम्मत 
                    की जाएगी।  छबीलदास के 
                    चचा को शायद इस बात का पता नहीं था कि काँग्रेस का सत्याग्रही 
                    कार्यकर्ता बला का जिद्दी होता है। एक तो छबीलदास इस 
                    जबर्दस्तीवाली शादी से ही नाराज था, उस पर श्वसुर के इस नए 
                    किस्म के दहेज ने आग में घी का काम किया। बनारस लौटकर 
                    छबीलदास को सुशीला ने बतलाया कि अब उसकी माँ बिना उससे पेशा 
                    कराए न मानेगी। छबीलदास ने सुशीला को अपनी कहानी सुनाई। दोनों 
                    में तय हुआ कि बंबई चला जाए। मोरारजी देसाई, कन्हैयालाल मुंशी 
                    आदि बड़े बड़े नेता वहाँ पर हैं ही, उन नेताओं के आश्रय में 
                    रहकर दोनों देश का काम करेंगे। उसी रात दोनों बंबई के लिए 
                    रवाना हो गए। बंबई जाने पर 
                    सुशीला और छबीलदास दोनों को यह पता चला कि वास्तविकता कल्पना 
                    से कहीं अधिक कुरूप होती है। बड़े-बड़े नेताओं के पास इतना समय 
                    नहीं था कि इन लोगों से मिलें, छोटे नेताओं ने दरपरदा छबीलदास 
                    को ठुकराकर सुशीला को हथियाने की कोशिश की। और एक दिन छबीलदास 
                    को पता चला कि सुशीला एक करोड़पति सेठ के यहाँ, जो काँग्रेस का 
                    एक छोटा - मोटा कार्यकर्ता था, बैठ गई। और जिस दिन 
                    सुशीला उसके यहाँ चली गई उस दिन छबीलदास को पता चला कि वह 
                    सुशीला से बहुत अधिक प्रेम करने लगा था। सुशीला को इस प्रकार 
                    करोड़पति के रुपयों के लोभ में पड़कर उसके प्रेम को ठुकरा देने 
                    से छबीलदास के हृदय को एक गहरी ठेस लगी। उसने चार-छह बार 
                    सुशीला से मिलने की कोशिश की, लेकिन सुशीला ने कोई-न-कोई बहाना 
                    बनाकर मिलने से इनकार कर दिया। उसने सुशीला को कई पत्र लिखे 
                    लेकिन उसे किसी भी पत्र का उत्तर न मिला। उसे काँग्रेस से और 
                    काँग्रेसी नेताओं से घृणा हो गई। एक बार सुशीला से मिलकर वह 
                    बतला देना चाहता था कि किस प्रकार उसने उसकी जिंदगी को बरबाद 
                    कर दिया। घर जाने की हिम्मत न होती थी क्योंकि डाकू ससुर की 
                    खौफनाक मूर्ति उसकी आँखों के आगे नाच उठती थी। पागल-सा वह बंबई 
                    की सड़कों की धूल छानता फिरता था। एक दिन सिंह 
                    उसी पार्क में सोया था जिसमें छबीलदास सो रहा था। माली ने जब 
                    रात के समय दोनों को पार्क से निकाला तब इन दोनों का परिचय 
                    हुआ। सिंह ने पांडे के यहाँ जगह पाकर छबीलदास को भी अपने साथ 
                    बुला लिया। इसके बाद छबीलदास ने एक दफ्तर में क्लर्की कर ली।
                     "कहो भाई 
                    मुलाकात हुई?" पांडे ने पूछा।"हुई भी और नहीं भी हुई।" छबीलदास ने सिगरेट का एक गहरा कश 
                    खींचकर उत्तर दिया।
 "यह तो पहेली बुझा रहे हो।" सिंह हँस पड़ा।
 "बात यह है 
                    कि जब मैंने उसके मकान में घंटी बजाई तो वह दरवाजे पर खुद आई। 
                    मुझे देखते ही चौंक उठी, बहुत धीमे स्वर में उसने कहा, "अभी 
                    जरा दो-एक आदमियों से कुछ जरूरी बातें हो रही हैं, शाम को 
                    पाँच-साढ़े पाँच बजे के बीच में चर्चगेट स्टेशन पर मिलना।" शाम के समय 
                    छबीलदास चर्चगेट पहुँचा। सुशीला वहाँ पहले से ही मौजूद थी। उस 
                    समय वह बनारसी सिल्क की एक साड़ी पहने थी, शरीर पर गहने लदे 
                    थे, पर उसका चेहरा उतरा हुआ था और उसकी आँखें लाल थीं- मानो 
                    दिन-भर वह रोती रही हो। छबीलदास को देखते ही वह फूट पड़ी। उसन 
                    कहा, "छबील! मैं लुट गई।"  सुशीला के 
                    आँसू देखकर छबीलदास एकबारगी पिघल गया। उस समय वह यह भूल गया कि 
                    उसके सामने खड़ी स्त्री ने उसे धोखा दिया था। उसने कहा, "क्या 
                    बात है - इतना अधीर होने की कोई बात नहीं - मैं हूँ। बतलाओ तो 
                    क्या हुआ?"  "हीरालाल ने 
                    (उस सेठ का नाम था) मेरे जाली दस्तखत बनाकर बैंक से सब रुपए 
                    निकाल लिए - उसका दीवाला निकल गया है। मकान का किराया तीन 
                    महीने से नहीं दिया गया है, मकानवाले का नोटिस आया है। मेरी 
                    समझ में नहीं आता कि क्या करूँ।""मकान का कितना किराया है?" छबीलदास ने पूछा।
 "डेढ़ सौ रूपया महीना - साढ़े चार सौ देने हैं। पास में एक 
                    पैसा नहीं।"
 यह कहकर सुशीला ने एक सोने की अँगूठी निकालकर छबीलदास को दी, 
                    "कल के लिए घर में अनाज नहीं है - इसे बेचकर कल कुछ रुपया ला 
                    देना।"
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