साहित्य और
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में
इस माह
प्रस्तुत है- यूएसए से
अनिलप्रभा कुमार की
कहानी
बेमौसम की बर्फ
उसने
धीरे से खिड़की का पर्दा सरका दिया। रोज सबसे पहले वह यही करती
है। धूप और रोशनी को न्यौता देती है, भीतर आने के लिये- मन के
भीतर तक। वह मुग्ध होकर निहारती है- आकाश का रंग, पेड़ों के रंग
बदलते पत्ते। हर रोज सूरज सुबह हाजिरी देता आ रहा है, युगों
से। वह अपने भीतर इस सूर्य- विश्वास को भर लेना चाहती है। चाहे
कुछ हो जाए सूरज तो निकलेगा ही। आज की
सुबह कुछ अपरिचित-सी लगी। आकाश पर जैसे किसी ने सुनहरी के बजाए
सफेदी की गाढ़ी चादर तान दी थी। ठोस सफेदी, कहीं कोई हल्की–सी
दरार तक नहीं।
“हटो न माँ, मुझे भी देखने दो।“ महक ने आँखे मलते हुए
अलसायी–सी आवाज में कहा।
“गुड मॉर्निंग, उठ गई मेरी बिटिया।“ वह लाड़ में भरकर महक के
सिरहाने आकर बैठ गई। बिन बालों वाली
महक, चिकने सिर के साथ कोई और ही लगती है। जैसे तीस साल की
युवती फिर से पाँच साल की बच्ची हो गई हो। पीली
पड़ती रंगत के ऊपर बड़ी-बड़ी काली आँखें जैसे
...आगे-
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टैग बिना चैन कहाँ रे
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पूर्णिमा वर्मन
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प्रकृति
और पर्यावरण में-
धान-
मानव सभ्यता के अस्तित्व का आधार
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