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					धान मानव 
					सभ्यता के अस्त्तित्व का आधार- हरेन्द्र 
					श्रीवास्तव
 
 
											धान 
											हमारे देश की ही नहीं बल्कि पूरे 
											एशिया महाद्वीप समेत दुनिया की एक 
											प्रमुख खाद्यान्न फसल है। धान प्रकृति 
											में विकसित एक उष्णकटिबंधीय मानसूनी 
											जलवायु वाला पौधा है। मानव-सभ्यताओं 
											ने धान जैसी जीवनदायी फसल को अपना 
											प्रमुख आहार बनाया और आज भी दुनिया के 
											कई देशों की आबादी धान पर ही अपने 
											अस्तित्व के लिए निर्भर है। सम्पूर्ण 
											विश्व में मक्का के बाद धान ही 
											सर्वाधिक मात्रा में उपजाई जाने वाली 
											फसल है। चीन, भारत, इंडोनेशिया, 
											वियतनाम, थाइलैंड आदि धान के प्रमुख 
											उत्पादक राष्ट्र हैं। चावल भारत समेत 
											दुनिया के अनेकों देशों का मुख्य भोजन 
											है। प्रकृति में विकसित धान जैसी 
											अत्यन्त महत्वपूर्ण वनस्पति दुनिया की 
											आधी आबादी का भरण-पोषण करती है। विश्व 
											में इसकी खपत अधिक होने के कारण यह 
											प्रमुख खाद्यान्न फसलों में शुमार 
											है। 
 धान की सर्वप्रथम उत्पत्ति कहाँ हुई? 
											इस प्रश्न पर आज भी वनस्पति 
											वैज्ञानिकों एवं पुरातत्वविदों में 
											मतभेद है। यदि धान के इतिहास पर गौर 
											करें तो इसकी खेती आज से करीब ९००० 
											वर्ष पूर्व चीन के यांगत्सी नदी घाटी 
											में आरम्भ हुई जबकि भारतीय उपमहाद्वीप 
											तथा दक्षिण एशिया को धान की उत्पत्ति 
											का केन्द्र माना जाता है और यहीं से 
											धान जैसे पौधे ने दक्षिण-पूर्वी 
											एशियाई राष्ट्रों तथा अफ्रीका, यूरोप 
											और अमेरिका महाद्वीपों में अपना 
											वानस्पतिक साम्राज्य स्थापित कर लिया। 
											उत्तर प्रदेश राज्य के हमारे 
											प्रयागराज जिले की बेलन घाटी क्षेत्र 
											के 'कोलडिहवा' नामक स्थान पर चावल की 
											खेती के सर्वप्रथम साक्ष्य मिले हैं 
											जबकि नवीनतम वैज्ञानिक शोधों से 
											संतकबीर नगर में स्थित 'लहुरादेव' 
											नामक स्थान पर धान की कृषि के 
											प्राचीनतम साक्ष्य सामने आये हैं। 
											लहुरादेव तराई-क्षेत्र में चावल के 
											साक्ष्य 9000 से 8000 ईसा पूर्व के 
											हैं। फिलहाल 'धान की उत्पत्ति' अभी भी 
											शोध एवं अनुसंधान का प्रमुख विषय है।
 
 धान की खेती पूरे विश्व में बहुत बड़े 
											पैमाने पर की जाती है। दुनिया में 
											चावल का सर्वाधिक उत्पादन वर्तमान समय 
											में चीन में होता है तथा भारत चावल 
											उत्पादन के क्षेत्र में वैश्विक स्तर 
											पर चीन के बाद दूसरे स्थान पर है जबकि 
											चावल निर्यात के मामले में भारत 
											दुनिया का सबसे बड़ा देश है। सऊदी 
											अरब, फिलीपींस, संयुक्त राज्य 
											अमेरिका, यूएई, दक्षिण अफ्रीका और 
											ईरान आदि भारत से चावल आयात करने वाले 
											मुख्य देश हैं। भारत में पश्चिम बंगाल 
											चावल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। 
											वैसे भी आप जानते हैं कि पश्चिम बंगाल 
											के लोगों का मुख्य पसंदीदा भोजन 
											मच्छी-भात ही है। पश्चिम बंगाल के 
											अलावा उत्तर प्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, 
											पंजाब और तमिलनाडु भारत के चावल 
											उत्पादक बड़े राज्य हैं। छत्तीसगढ़ और 
											आन्ध्रप्रदेश को तो "चावल का कटोरा" 
											भी कहा जाता है।
 
 धान की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय एवं 
											उपोष्ण जलवायु सबसे उत्तम है। पानी 
											जैसा महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन धान 
											की खेती के लिए सबसे आवश्यक चीज है 
											इसीलिए हमारे गांव में एक कहावत भी 
											बहुत प्रसिद्ध है -- "धान, पान और 
											केला। ये सब पानी के चेला!" धान के 
											पौधों को अपने जीवनकाल में औसतन 20 
											डिग्री सेल्सियस से 37 डिग्री 
											सेल्सियस तक तापमान की आवश्यकता होती 
											है। दोमट मिट्टी धान की कृषि हेतु 
											सर्वाधिक उपयुक्त होती है। धान की उपज 
											हेतु 100 से.मी. वर्षा की आवश्यकता 
											होती है। नील-हरित शैवाल (काई) धान के 
											पौधों के उचित वृद्धि एवं विकास हेतु 
											अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि ये धान के 
											पौधों को नाइट्रोजन जैसे महत्वपूर्ण 
											पोषक तत्व की आपूर्ति करते हैं। 
											आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में धान 
											के पौधे पर गहन शोध एवं अनुसंधान कर 
											कृषि-वैज्ञानिकों द्वारा इसकी कई 
											उन्नत किस्में विकसित की गयीं हैं। 
											भारत के राष्ट्रीय चावल अनुसंधान 
											संस्थान ने धान की सैकड़ों किस्मों का 
											विकास कर भारत की खाद्य सुरक्षा में 
											महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
 
 मानवीय गतिविधियों के 
											दुष्प्रभावस्वरूप आज हमारा पर्यावरण 
											लगातार असंतुलित होता जा रहा है और 
											ऐसी पर्यावरणीय संकट की स्थिति में 
											जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव 
											धान की खेती पर भी पड़ रहा है। धान की 
											कृषि पर मानसून की अनिश्चितता के 
											मंडराते बादलों ने देश के करोड़ों 
											किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। 
											बेमौसम बारिश, बाढ़ और सूखे ने धान की 
											पैदावार पर बुरा असर डाला है। ग्लोबल 
											वार्मिंग के प्रकोप के चलते कभी बारिश 
											इतनी ज्यादा होती है कि पूरी फसल ही 
											चौपट हो जाती है तो कभी-कभी बारिश के 
											अभाव में फसल सूख जाती है। जिस तरह से 
											धरती का तापमान बढ़ रहा है धान की फसल 
											में नये-नये रोग और कीटाणु पैदा हो 
											रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 
											हमें धान की ऐसी किस्में विकसित करनी 
											होंगी जो बाढ़ और सूखा दोनों झेलने 
											में सक्षम हों वरना जलवायु परिवर्तन 
											के चलते धान के पैदावार में गिरावट से 
											वैश्विक खाद्यान्न संकट बढ़ सकता है।
 
											भारतीय 
											कृषि अनुसंधान संस्थान से जुड़े 
											शोधकर्ताओं का कहना है कि गंगा के 
											मैदानी इलाकों में धान एवं गेंहू की 
											उत्पादन क्षमता पर ग्लोबल वार्मिंग का 
											प्रतिकूल असर दिखने लगा है। वैज्ञानिक 
											अध्ययन बताते हैं कि एक किलो चावल 
											तैयार होने में तीन से चार हजार लीटर 
											पानी की जरूरत पड़ती है जबकि जलवायु 
											संकट से पानी का स्तर कम होता जा रहा 
											है जो कि अत्यन्त चिंताजनक है। अतः 
											हमें खाद्य संकट की चुनौती से लड़ने 
											हेतु मक्का, बाजरा जैसी मोटे अनाज 
											वाली फसलों की पैदावार हेतु कृषकों को 
											प्रोत्साहित करना होगा तथा पर्यावरण 
											संरक्षण हेतु जलवायु परिवर्तन को समय 
											रहते कम करने का प्रयास करना होगा 
											ताकि फसलों की जैवविविधता भी 
											फलती-फूलती रहे और हमारा अस्तित्व भी 
											प्रकृति में बना रहे।
  
											
											१ अक्टूबर २०२३ |