समकालीन कहानियों में इस माह
प्रस्तुत है-
भारत
से राजवंत राज की कहानी
जूड़े वाला क्लिप
किसी ने बड़े भाई की तरह घुड़का नहीं, मेरा फोन चेक नहीं किया,
पीठ पर धप्प से धौल नहीं जमाई, झूठा रुआब भी नहीं झाड़ा, माँ
पापा से छुपा कर लड़कियों से की गई दोस्ती की तमाम सच्ची झूठी
कहानी सुनाई ही नहीं क्योंकि मेरा कोई भाई था ही नहीं। पेन के
लिये, क्लिप के लिये, कंघी, कपड़ों, जूते, चप्पलों की खातिर,
या फिर मैगजीन पहले पढ़ने के लिये कभी किसी से झगड़ा कर ही
नहीं पाई क्योंकि मेरी कोई बहन भी थी ही नहीँ। ये दोनों रिश्ते
मेरे नजदीक सिर्फ रिसालों तक ही महफूज रहे। इन रिश्तों के
दरम्यान होने वाली नोक - झोंक मेरे हिस्से कभी आई ही नहीं थी।
माँ पापा के एक्सीडेंट के बाद मेरे इर्द गिर्द पसरा सन्नाटा घर
शब्द के एहसास को मानो निगल ही चुका था कि तभी अनु ने मेरी
जिंदगी में दस्तक दी। एक मर्द जिसने कब अपनी जिंदादिली से मेरी
लगभग मर चुकी तमाम ख्वाहिशों में आहिस्ता आहिस्ता रंग भरने
शुरू कर दिये मुझे पता ही नहीँ चला और एक दिन अचानक तमाम
चमकीले रंगों से लबरेज अपने आप को अनु के फ्रेम में जड़ा पाया।
परसों शाहदरा से आते वक्त मेट्रो में शिखा मिली। हास्टल में
मेरी रूममेट थी।... आगे-
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