डोर से बँधी पतंग चली आसमाँ की ओर
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पद्मसंभव श्रीवास्तव
रंग
बिरंगी पतंगों की दुनिया चलो!
आज माघी सप्तमी के दिन चंद्र नक्षत्र हस्त की
छाया में भ्रमण करता उत्तरायण सूर्य पुरुष रूप धर धरा
की हरितमा निहारने मकर राशि में प्रवेश कर फिर रिक्त
मेघविहीन शून्याकाश की चौड़े वक्ष पर विचरने लगा है!
व्योम विचरण की ललक ने आज से ३,५०० वर्ष पूर्व
जम्बूद्वीप के योगी चिंतकों को आकाश के विस्तार पर
विचरते चंचुचर्चा में मस्त पक्षियों ने उत्प्रेरित
किया कि मनुष्य भी वाह्यमंडल के गवाक्ष से धरती का
अवलोकन कर सकता है। कई प्रयोग हुए, और फिर एक दिन किसी
ने वृक्ष की बुढ़ाती टहनियों से टूटे पत्तों को हवा में
तिरते देख मनमतंग मनहर पतंग को आकारित कर आकाश को
चुनौती देने पार्थिव सत्य को भरमा वायुगंगा में मुक्त
कर दिखाया। प्रयोग सफल रहा और अभिलाषी मनुष्य ने एक
लंबी उड़ान के लिये शमित कल्पना को पंख बाँध अग्रगामी
पीढ़ियों को अपने सपने सौपते गये।
६ठी सदी में गृहस्थ योगियों को पितरों का कर्ज़ चुकाने
की बात मस्तिष्क में कौंधी, तो हमजोली और बहती बयार से
ठिठोली करते मनमतंग पतंग की उपयोगिता स्मृतपट पर
प्रक्षेपित हुई। इतने दिनों तक यह बात मेरे दिमाग में
अधफँसी बन छिपी रही कैसे! लगभग भारहीन और लचकीली
वेणुदण्डों से मंडित मनुपुत्ररचित अवाँगार्द पतंग
शून्याकाश में स्वगर्विता स्वमुग्धा मंदप्रवाह्नी
वायुगंगा में तरण करते सूर्य से बतियाता सम्पूर्ण नभ
पर विविधवर्णी रंगमयी लयमय आकृतियाँ रच नित्य अपनी
लीलाओं से साक्षात् आनंद का प्रत्यक्षीकरण ही कराती
है--रंग ही विराग का द्वार है, विराट के उस पार भी
क्षितिज कई हैं! नित्य नई चुनौतियाँ, पुरखों का पुण्य
और मौन प्रेम निशब्द: होते हैं। पतंग एक सिद्ध योगिनी
की तरह पार्थिव पीड़ाओं को अनदेखी कर डोर से बँध एकल
ध्रुव की ओर धरती का सन्देश पहुँचाने पाहुन के पास
निस्संगभाव से जा रही है...खाली आकाश बहुत डरा है...!
रंगों की गठरियाँ बाँध पतंग उड़ चले क्षितिज से आगे और
धरा लटाई थामे डोर बढाती जा रही है, बहन अपने दुलारे
भाई को ढाढ़स ही तो दे पायी है अबतक!
मकर संक्रांति संक्रमणकाल की भौतिक संधिवेला है, तभी
धरती भी सविता की थपथपी से जग अलसायी आँखें खोल आसपास
फैली हरीतिमा की नई परतें देख सूरज से नजरें चुराने
लगती है। पतंग इस अव्यक्त मनुहार को आकाश के भाल पर
तिलक-सदृश्य सूर्य को निज रंगों से लेपित करने उड़ान
भरती है--ब्रह्म का सहज प्रेम आस्था की निष्ठा में
गुह्य है! दक्षिण एशिया के भारतीय उपमहाद्वीप के कोने
से अपनी उड़ान भरनेवाली पतंग अपने सर्जक को विस्मृत
नहीं कर सकी है।
पतंग वायुवेग में उड़ती मंडराती चिंतनभँवर की भित्ति को
तोड़ डोर से बँधी अपने संगियों को ललकारती शान बघार
आकाश से चुहलबाज़ी कर रही है। पतंग की दुनिया भी बहुत
अजीब है, ढेर सारे नाम, रंग और आकारों में पतंगें बहुत
ही ललचाती हैं। रूमाली, चौसरिया, पिंडारी और न जाने
कितने नाम, सबकी अनोखी पहचान! मंझी धागों से भरी लटाई
देख सद्यःविवाहिता की भरी कलाई भी लजा जाये, मगर
बेशर्म पतंग अपनी गाँठ बँधवाने की ज़िद नहीं छोड़ती आजकल
की पीढ़ी भी ऐसी बेशर्मी से कहाँ बच पायी? परिवार और
माता-पिता की डोर से बँध कर भी वे निज पार्थिव
दायित्वों को कहाँ निभा रहे? गौरेयों और पतंग का
चरित्र भी इनसे बेमेल कहाँ है। भला हो उन
राजनिर्वासितों विद्रोही राजपुत्रों का, जो अपनी
प्यारी पतंग को साथ-साथ सात सागर पार भी ले गए और
पुरोखों तक अपनी फरियादें पाती रूप में लिख पतंग के
हाथों भिजवाते रहे। पुरखों को प्यार आ गया और धरती के
हर कोने को हरियाली से ढँक, अपने आश्रितों को आजीवन
पार्थिव सुख का वचन दे आश्वस्त किया। तब इस हर-भरी धरा
को किसने मारक आयुधों और प्रदूषण से कलंकित किया? डोर
से बंधी पतंग भी बेचैन है, जबाबदेही किसे दे-अपने
सर्जक को या फिर नियति को ?
मलेशिया, नेपाल, अफगानिस्तान, बंगला देश, म्यांमार,
भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, चीन और मालद्वीप समेट आधे
से अधिक पश्चिमी देशों में बहुवर्णी और बहुआकारिक पतंग
निज स्थानिक विशेषताओं के कारण उपलब्ध हैं, कुछ
आकाशयोद्धा की धीरता से भरपूर और कुछ मटरगश्तों की तरह
व्योमविहारी! पटना के महशूर पतंगबाज कुरबान अली पुराने
किस्सों को याद कर बताते हैं कि गंगा के किनारे
पतंगबाजों की टोलियाँ जुटती थीं, खूब चकल्लस होते,
बतकही और ताने में भींगी शामें ढलती--पछिया की बयार
बहते ही पतंगबाज लटाई में माँझे धागे समेट सूरज की
अगली करवट बदलने तक इंतजार करते। फिर सावन की फुहियों
में उनके पतंग खाली आकाश में रंगों का रस घोलने आ
जाते। उनके हमजोली दोस्त साबिर भाई भी कई मांझों की
किस्मों को बखान करते हैं। जब देश के पहले
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पटना आये थे, तब साबित
भाई ने यह इच्छा जाहिर की थी कि उनके माँझे का
'पेटेंट' करा दे! लाखों के सपने मुट्ठियों में बंद रह
गये, आखिर इस साबिर को आजादी से क्या मिला ?
लखनऊ, इलाहाबाद, पुष्कर, अहमदाबाद, झाँसी, नागपुर और
मुंबई की चौपाटी में अब पतंगबाजी नजरबंद क्यों है? कोई
जवाब नहीं मिलता है। देश के पारामीटर में ढला पारा यह
दर्शाता है कि टेलीविजन-चिप्पू पीढ़ी आजकल चिकनी
क्रिकेट की गेंद और धारदार बल्ले की चपेट में स्कोर
गिनने में भिड़ी है! ' भारतरत्न ' की गरिमा का सवाल है,
औने-पौने को पाने की ललक से दूर रहना ही ठीक है।
पतंगबाज़ी से पेट भी नहीं भरता, फिर विरासत का चिराग
जलाने से क्या मिलेगा? इधर मस्त पतंग के भाग्य ने करवट
फेरी है। पर्यटन पैसे दिलाता है, पैसे आज के युग में
अन्धों को भी देखने की ताकत देता है, पतंग भी खुले
आकाश में अपनी दुलकी मटक चाल दिखाकर पर्यटकों की जेब
ढीली करा रही है। अब तो कई प्रदेश भी कमाई के लिये
पतंगबाजों को न्योता भेजने लगे हैं। पतंगबाजों के छाली
काटने की दिन लौट रहे हैं। पटना और देश के कई
महत्वपूर्ण शहरों में आज ' पतंग महोत्सव ' उल्लासमय
भाव से आयोजित होता है, नेताओं के भाषण होंगे,
विदेशी-देसी पर्यटक बड़ी उम्मीदें दिखाएँगे और हमारा
बुद्धू साबिर मैदान के बीच लटाई थामे अपनी पतंग को
खुले आकाश में दाव-पेंच की तकरीर में फाँसे रखेगा।
जांबाज पतंग का स्वभाव भी विचित्र है, मजबूत गाँठ और
पाँख की ताकत पर जटायु की तरह शत्रु पर टूट पड़ती है।
कुछ पतंगें तो ऐसी हैं कि मगरमच्छ भी देख अपनी गर्दन
नीची कर ले। कोई अकेली पतंग अपनी अलमस्त ज़िन्दगी में
मस्त रहे जरुर, पर इन बेरहम हमजाद पतंगों पर नजर खुली
रखे! जंगजू पतंग बाज की तरह झपट्टा मार कब नौ-दो
ग्यारह हो जाये, मालूम नहीं। पल-दो-पल की ज़िन्दगी है,
फिर तू कहाँ, मैं कहाँ! इस निर्मम संसृति में कर्महीन
को जीवन जीने का शाश्वत अधिकार नहीं, जीवन के लिये हाथ
में खुरपी ले पौधे रोंपने ही होंगे।
ठिठुरते तिब्बतवासी अपने पुरखों की आत्मशांति के लिये
पतंगों से सन्देश भेज अपनी आत्मग्लानि प्रकट कर तुष्ट
हो जाते हैं, किन्तु अपने देशवासी उल्लास के साथ
पुरखों को स्मृत कर जीवन के प्रति असीम आस्थाभाव जताकर
पूरी दुनिया को सन्देश देते हैं कि धरा से सुन्दर
स्त्री कोई और नहीं और हम पतंग बिंदी की तरह उसके ललाट
पर सजे हैं। दुमदार पतंगें, चौड़ी छाती फैलाये पतंग और
नफ़ासतपसंद पतंगों की ढेर में अपना कोई पतंग आज ही ढूँढ
लीजिए हुजूर। वक्त के हिसाब से भरोसे के दोस्त अब नहीं
मिलते और जो मिलते भी तो सोशल साईट पर!
जीवन की इस आपाधापी में किसी को 'काकी' का भोलू कहीं
गुम हो जाये, तो पुलिस को खबर करने की जरुरत नहीं! आज
का भोलू अब अपनी ज़िन्दगी का ककहरा किसी मँहगे स्कूल
में रटने में लगा है, उसे पतंग की गाँठे बाँधने और
उसकी किस्में याद नहीं करना है। रफ्तार भरती पैरों में
पंख बाँध भागती दुनिया में अब किसी को 'पतंग' के उस
बाल कलाकार की स्मृति नहीं है, जो कटी पतंग को पाने की
ज़िद में तेज भागती मालगाड़ी की लपेट में आकर कट जाता
है! प्रसिद्ध युवा फ़िल्मकार गौतम घोष ने इस 'फ्रीज
शाट' में वह सब कुछ कह डाला, जिसे सुनने का जी चाहता
है।
लखनऊवासियों को अपने कनकौवों पर गर्व है, तो झुलसे
अहमदाबाद को भी हवा में छलांगें भरते मदमस्त पतंगों की
मजेदार पेंचों को नहीं भुलाना होगा---चांदनीचौक की तंग
गलियाँ में घरों की छतों पर पतंगबाजों की बाजियाँ लगती
रहें, तभी तो कराची की सडकों पर अमनपसंद अपनी नमाज अदा
कर सकेंगे! बेवजह नफरत बोने से किसे क्या मिला, यह पता
तब चलेगा जब हम आदमजाद पतंग की गिरह बाँधते वक्त साबिर
की सलाह पर गौर करेंगे--अधिक फंदों से पतंग अधिक फिरकी
लेती है और चाल में सुस्ती भी!
१ फरवरी २०२२ |