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समकालीन कहानियों में भारत से
सुधा अरोड़ा की कहानी
पीले पत्ते
टक्......टक्.......और एक पीला पत्ता टूटा। फिर एक और। फिर एक
और।
जनवरी महीने की उस सुबह में उगते सूरज की लाली थी। हरे भरे
दरख्तों और अपने कद के हरे पौधों के बीच उनकी उँगलियाँ बड़े
एहतियात से सूखे हुए पीले पत्ते ढूँढ लेतीं और उन पत्तों को
बड़े प्यार से समेट कर अपने बाएँ हाथ में फँसी थैली में डाल
देतीं। पिछले एक साल से मैं
उन्हें लगभग रोज देख रही थी। सफेद स्याह रंग के बेतरतीब से
बिखरे बालों के बीच लुनाई लिए चेहरे पर खोयी खोयी सी आँखें
जैसे ढूँढ कुछ और रही हों और अचानक पीले पत्तों पर अटक गई हों।
उन्हें जरा सा ठिठक कर मैं देखती, मुस्कुराती और आगे बढ़ लेती।
बगीचे के गेट पर खड़ा वाचमैन अपनी कनपटी पर दाहिनी हथेली की
तर्जनी गोल गोल घुमाकर अजीब तरह से होंठों को सिकोड़ता हुआ
मुझे इशारे से बताना चाहता कि बुढ़िया का दिमाग खराब है, उनके
लिए रुककर अपना समय बर्बाद न करें।
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