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पर्व पंचांग  १६. ६. २००८

इस सप्ताह-
कचनार विशेषांक में- भारत से
ममता कालिया की कहानी निर्मोही

बाबा की पुरानी कोठी। लम्बे-लम्बे किवाड़ों वाला फाटक, जहाँ पहुँच रेल की पटरी ट्राम की पटरी जैसी चौड़ी हो जाती। जब बन्द होता, ताँगों की कतार लग जाती कोठी के सामने। रेल क्रॉसिंग के पार झाड़-बिरिख और कुछ दूर पर सौंताल। कभी इसका नाम शिवताल रहा होगा पर सब उसे अब सौंताल कहते। उसके पार जंगम जंगल। बीच-बीच से जर्जर टूटी दीवारें। कहते हैं वहाँ राजा सूरसेन की कोठी थी कभी। घर की छत पर मोरों की आवाज़ उठती- 'मेहाओ मेहाओ।' जब तक हम दौड़-दौड़े छत पर पहुँचे मोर उड़ जाते। लंबी उड़ान नहीं भरते। बस सौंताल के पास कभी कदंब पर या कटहल पर बैठ जाते। सौंताल से हमारी छुट्टियों का गाथा-लोक बँधा हुआ था। शाम को ठंडी बयार चलती। दादी हाथ का पंखा रोक कर कहतीं, ''जे देखो सौंताल से आया सीत समीरन।'' कभी आकाश में बड़ी देर से टिका एक बादल थोड़ी देर के लिए बरस जाता।

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भुवनेश्वर प्रसाद गुरुमैता का ललित निबंध
वसंत का संदेशवाहक कचनार

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प्रकृति और पर्यावरण में अर्बुदा ओहरी के साथ
कचनार की छाँह में

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आज सिरहाने वृंदावन लाल वर्मा का उपन्यास
कचनार

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पूर्णिमा वर्मन ढूँढ लाई हैं
डाक-टिकटों के संसार में कचनार

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पिछले सप्ताह
पितृ दिवस के अवसर पर

कमल चोपड़ा की लघुकथा
किराया

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कलादीर्घा में
पिता विभिन्न कलाकारों की तूलिका से

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बेजी जयसन का संस्मरण
बाबूजी

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रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
अपने संदर्भ अपना ख़ज़ाना

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समकालीन कहानियों में भारत से
प्रियदर्शन की कहानी जो उसके पिता नहीं थे

उसके गाँव के आसपास तीन पहाड़ थे और वे गाँववालों की ज़िंदगी का, उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा भी थे। बहुत बचपन में वह अपने पिता को भी किसी पहाड़ की तरह ही देखता था, पास के तीन पहाड़ों की तरह अपने चारों ओर पसरे चौथे पहाड़ की तरह। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि गाँव के पास के तीनों पहाड़ों का रंग गहरा काला था और उसके पिता ख़ासे गोरे थे। इसलिए वे कभी-कभी बाहर के आदमी लगते थे। शहर से गाँव में आकर बसे हुए। यह एक अजीब-सी बात थी, क्यों कि उसके पिता शहर कभी नहीं आए थे। और आगे चलता हुआ जो आदमी उसे अपने पिता की तरह लग रहा था, उसे वह एक बार पिता पुकार ही लेता, मगर उसने सिर्फ़ इसलिए नहीं पुकारा कि पिता को शहर से बेहद परहेज़ था। उनको गुज़रे हुए हालाँकि पंद्रह साल हो चुके थे, फिर भी शहर से उनके परहेज़ को उसने अपने भीतर बचाकर रखा था।

 

अनुभूति में-
कचनार विशेषांक में कचनार के फूल और पेड़ पर आधारित कुछ नई और
कुछ पुरानी रचनाएँ।

कलम गही नहिं हाथ
कचनार पारंपरिक भारतीय वृक्षों और फूलों के की साहित्यिक परंपरा का प्रतीक है। परंपराएँ, जिन्हें हम बहुत से कारणों से याद नहीं रख पाते। कभी पाश्चात्य बाज़ारवाद के प्रहार में तो कभी तेज़ जीवन के बहाव में। आज मैंने बचपन में पढ़ी महेन्द्र सिंह रंधावा की किताब सुहावने उद्यान फिर से खोली है। वे उद्यान शास्त्र के जाने माने विद्वान थे। भारतीय पारंपरिक वृक्षों के प्रति उनका प्रेम देखते ही बनता है। इनके सौंदर्य और उपयोगिता के विषय में जब वे लिखते हैं तो मन अनायास ही इस वानस्पतिक सौन्दर्य के प्रति श्रद्धा से भर उठता है। प्रकृति वैसे भी ईश्वर का वरदान है। उसको याद रखना, उसके गुणों को पहचानना और उसका संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है और कर्तव्य निभाने के पुरस्कार में हमें मिलता है प्रकृति के सान्निध्य का अनिर्वचनीय सुख। इस सुखद परंपरा को समर्पित है अभिव्यक्ति का कचनार विशेषांक। भारतीय साहित्य और लोकगीतों में कचनार के वृक्ष और इसके फूलों का सौंदर्य बिखरा पड़ा है। इसके सौंदर्य से प्रभावित होकर ही हांगकांग ने इसे अपने राष्ट्रीय फूल के सम्मान प्रदान किया है। शायद यह विशेषांक कुछ दिलों को छुए, शायद इसे पढ़कर कोई नया महेन्द्र सिंह रंधावा बने, शायद कोई परिवार कचनार का एक पौधा अपने कच्चे आँगन में रोपे, शायद कोई इसके साहित्यिक संदर्भों को टटोले इस छोटी सी आशा के साथ, -पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)

इस सप्ताह विकिपीडिया पर
विशेष लेख-
देहरादून

सप्ताह का विचार
विज्ञान के चमत्कार हमारा जीवन सहज बनाते हैं पर प्रकृति के चमत्कार धूप, पानी और वनस्पति के बिना तो जीवन का अस्तित्व ही संभव नहीं। -मुक्ता

क्या आप जानते हैं? कि सुप्रसिद्ध हिन्दी कथाकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने केवल तीन कहानियाँ लिखी हैं।

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।

प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

 

 

 

 

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