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संस्मरण

बाबूजी
बेजी जयसन


पिछले हफ़्ते घर पर फ़ोन किया तो मम्मी ने बताया... पापा की तबीयत ठीक नहीं है... सुना तो परेशान हो गई... टेस्ट्स, डायग्नोसिस, ट्रीटमेंट... सुनते समझाते बीमारी तो याद रही... पापा कहीं ओझल से हो गए। आज बात हुई... वाक्य के कोनों पर हाँफ... जिसको मेरे कान सुने उससे पहले... आवाज़ फ़ोन से दूर हो जाती। फिर जो आवाज़ सुनाई देती उसमें ताज़गी। जैसे रुक-रुक कर ताज़गी की चुस्की की ज़रूरत हो।

पापा ऐसे कभी नहीं थे। सुबह चार बजे उठ जाते। पाँच साल की मैं भी। हाथ में दूध के लिए केटली लेकर पूछते... "बिजु... आएगा...?!"
मैं अपनी चप्पल में पाँव डालकर भागकर आ जाती। फिर उनकी छोटी उँगली के साथ उछलती, लटकती उनके साथ... दूधवालों की बस्ती तक। पापा बहुत तेज़ चलते हैं... आज भी.. मैं भी तेज़ चलती हूँ अब, पर फिर भी पीछे रह जाती हूँ। कॉलोनी में लाइन से लगे मकान, टीन की छतें... आँगन में गिरे हरसिंगार के फूल... मोगरे खिलते हुए... हल्के गुलाबी रंग के गुलाब गुच्छों में... हरे नींबू से लदे पेड़... अमरूद कुतरता तोता... अँगड़ाई लेती बिल्ली... और आते-जाते कई लोग, नमस्ते, सलाम कहते हुए।

दूधवाला आँख मलते हुए उठकर आता... पापा मुस्कुराते, "अभी तो उठे हो पानी नहीं मिला पाये ना" वह भी हँसता, कहता, "अरे आप के दूध में कैसे पानी मिला सकता हूँ?" लीपे हुए आँगन में बिछाए पलंग पर मैं पसर जाती, बछड़ा फुदक कर कभी इधर कभी उधर, शिकायत से मुझे ऐसे देखता कि उसकी माँ का दूध मैं क्यों पीने जा रही हूँ। लंबे घूँघट के पीछे से भी उसकी घरवाली की आँखे मुसकुरा कर पापा को देखतीं... फिर वह कहती, "बाबू जी यह सिर्फ़ आपके दूध में पानी नहीं मिलाता।"

पापा का हाथ एकदम सख्त हुआ करता था। पकड़ो तो लगता कि किसी मज़बूत सहारे को पकड़ रखा है। अक्सर हाथ लेकर बैठ जाती, "पापा आपकी भाग्य की रेखा कितनी छोटी है.?" पापा हँस कर कहते, "मेरी किस्मत में तुम्हारी मम्मी लिखी थी, बाकी सब उसकी किस्मत में लिखा है।" मम्मी उनके लिए ज़िंदगी से बढ़कर है। पापा को अट्ठाईस साल की उम्र में मम्मी मिली। दस साल का अंतर। बारहवीं कक्षा के तुरंत बाद। पापा के लिए जैसे ज़िंदगी की सबसे बड़ी सौग़ात मिल गई हो। नाना ने पूछा लड़की को पढ़ाओगे, कहा हाँ... दहेज लोगे... कहा ना... खुश रखोगे... जान देकर भी...''
नाना ने लड़की दे दी। बेहद गरीबी में पले थे पापा... भूख लगे तो तौलिया लेकर कमर पर बाँध कर स्कूल जाओ। आकर काम करो। कुछ हो तो खा लो। नहीं तो सो जाओ। पढ़ाई में ख़ास अच्छे नहीं रहे। ख़ास तौर पर अपने बाकी तीन भाइयों जितने.... दसवीं में उत्तीर्ण नहीं हुए। दादा जी थोड़े गुस्से में, ज़्यादा देसी दारू के नशे में मारते चले गए... उनसे बचकर भागे तो मुंबई पहुँचकर रुके। वहाँ छुटपुट काम... थोड़ा अनुभव... फिर राजस्थान के परमाणु ऊर्जा केंद्र में छोटी-सी एक नौकरी। मम्मी आई तो हैरान... नाना उस ज़माने के ज़मींदार... उनकी उम्मीदों से काफ़ी कम था जो मिला।
"टाइपिंग सीखनी है... शॉर्टहैंड... बी. ए." पापा मानते गए। बीच में भाई और मैं भी आ गए। माँ नौकरी में लग गई। पापा का एक ही जीवन का लक्ष्य था... अपने परिवार को खुश रखना और बहुत प्यार करना। मम्मी का एक ही लक्ष्य था... अपने जीवन के स्तर को बेहतरी के लिए बदलना।

रास्ता एक ही था... पढ़ना...।
पापा ओवरटाइम करते रहते... मम्मी घर, बैंक एकाऊंट्स, और हमें सँभालती। सोने से पहले प्रार्थना ज़रूर करते... सुबह फिर शुरू।
थक कर लेटते तो कहते, "पाँव पर चलेगी तो आराम आ जाएगा।" मैं झट तैयार। "कंधे पर लोगे? गुड़ की बोरी बनाओगे?" वो भी झट तैयार। उनकी लाड़ली थी मैं... नहला कर तौलिये में लपेट कर लाते फिर एक काला ठीका गाल पर लगा देते। भाई और मेरा झगड़ा होता तो कभी नहीं कहते कि मैं ग़लत हूँ। माँ नाराज़ होती तो कहते, "छोटी-सी अपनी गुड़िया है... इसे भी डाटें क्या।"

मैं जब उठती पापा काम कर रहे होते। मैं जब सोती तब भी पापा काम कर रहे होते। थकान कितनी भी हो काम से कभी शिकायत नहीं हुई। हर काम इतनी तन्मयता से करते कि कभी-कभार पापा के बॉस कहते, "इतने परफेक्शन की ज़रूरत नहीं है।"
काम पर जाने से पहले पापा दूध लाते, फिर मम्मी और उनके लिए चाय बनाते, मम्मी दोपहर का खाना बनाती, पापा सुबह के लिए आठ रोटियाँ... सबकी दो। साढ़े आठ बजे गाड़ी होती, पापा आठ बजे तैयार। आठ बजकर दस मिनट पर बस स्टॉप पर। मम्मी भी उसी गाड़ी से जाती थीं। जब पापा बस स्टॉप पर जाते मम्मी बाथरूम जाती। आठ बजकर पच्चीस मिनट पर मम्मी बस स्टॉप पर पहुँचती, दोनों एक दूसरे को निहारते, दूर अलग-अलग सीट पर बैठकर काम पर निकलते। मम्मी में हमेशा टीचर जैसा अंदाज़ रहा। और पापा में गाँव की ताज़गी।

जब बड़ी होने लगी तो महसूस किया पापा ज़रूरत से जल्दी गुस्सा हो जाते हैं। अपनी बात कह कर ही आते हैं भले ही उसके लिए कितनी ऊँची आवाज़ में बोलना पड़े। पापा में पढ़े लिखे अफ़सरों-सी तहज़ीब नहीं थी। थोड़ा परेशान होती। बाकी बच्चों के पापाओं को देखती, अफसरी अंदाज़, मैनरिस्म्स भी... बिल्कुल पौलिश्ड भी।

पर पापा फिर भी बहुत प्यारे थे, उनसे चाँद सितारा भी माँगो, वो ना नहीं करते। हर चीज़ हमें मिल जाती, सबसे अच्छे कपड़े, बैग, कामिक्स, खिलौने, हमें अहसास भी नहीं होता कितने ओवरटाइम का फल है। जब आठवीं कक्षा में आई, "क्यों" शब्द मुझसे जुड़ गया। मम्मी कुछ भी कहती मैं पूछती क्यों। हर क्यों का जवाब मम्मी नहीं देना चाहती, नाराज़ होती, दुखी होती। मम्मी को दुखी देखकर पापा दुखी हो जाते। उनके समझाने पर भी नहीं समझती तो उनका चेहरा उतर जाता।

उनके निर्णय करने का तरीका बिल्कुल आसान था। भाई और मेरे बीच की लड़ाई हो तो भाई ग़लत, मम्मी और मेरी हो तो मैं। उनके हिसाब से छोटी बहन को सिर्फ़ प्यार से समझाया जा सकता था और माँ को कभी ग़लत नहीं ठहराया जा सकता। मुझे ऐसा न्याय पसंद नहीं था। उन्हें बदलना नामुमकिन। तब अपने सही और ग़लत की बुनियाद रख रही थी और उनसे थोड़ी दूर हो गई।

जब दसवीं में थी तो भाई बारहवीं में। दोनों ने बोर्ड परीक्षा में स्कूल में टॉप किया। मम्मी पापा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पहली बार एक ही घर से दोनों बच्चों ने टॉप किया, वह भी निम्न मध्य वर्ग से। कहानी आगे बढ़ी। भाई कंप्यूटर इंजीनियर बना, अमेरिका में इंटेल में सीनियर स्ट्रैटजिस्ट, मैं बच्चों की डॉक्टर। बचत कर के रखी रकम से एक बंगला- पाँच बेडरूम का केरल में, दामाद पसंद का मिला जिसने दहेज नहीं माँगा और बेटी को आगे पढ़ाया।

हाँ, काफ़ी वक्त गुज़र गया।
दो पोतियाँ एक नाती एक नातिन....
हमेशा चिंता रहती थी कि भावुक-सी बेटी को प्यार करने वाला संयत जीवनसाथी मिलेगा कि नहीं। जयसन को उन्होंने एकदम उपयुक्त पाया था।

सुपरमार्केट पहुँच चुकी थी। लिस्ट पर नज़र डाली। गरम मसाला खत्म हो गया था। सांभर पावडर की ज़रूरत नहीं थी। पापा ने छुट्टियों में ही तैयार करके भेजा था। मम्मी एलर्जी की वजह से मसालों से दूर ही रहती हैं। बच्चे पीछे की सीट से चिल्ला रहे थे। दिवाली के लिए पटाखे लेना। मैंने उन्हें अनसुना किया, पार्किंग के लिए एक दिरहम नहीं मिल रहा था, झल्ला रही थी। अब छुट्टे कहाँ से आएँगे। तभी याद आया, गए साल पापा आए थे तो कहा था, "तेरी कार के इस दराज़ में छुट्टे डाल रहा हूँ, किसी दिन नहीं हो तो ले लेना और हाँ वापस भी रख देना।"

दराज़ खोली, पाँच साल की उनकी गुड़िया का विश्वास आज भी हिला नहीं था, पापा ने कहा था तो होगा ज़रूर, एक दिरहम के दस सिक्के सलीके से रखे थे।

१८ फरवरी २००८

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