बैठे-बिठाए स्थायी आमदनी शुरू
हो जाने की खुशी तो आनंद को हो रही थी पर पता नहीं क्यों
उन्हें अपने पिताजी की याद आने लगी थी। पिताजी को गाँव भेजकर
क्या हमने अच्छा किया? उन्होंने हमें पाला-पोसा... खिलाया,
बड़ा किया... अच्छी तरह रखा और हमने?
''लक्ष्मी, हमारा ऊपरवाला
कमरा तीन सौ में चढ़ गया है। किराया एडवांस मिल गया है।
रमाकांत अंकल के ही किसी आदमी ने लिया है। वे ही बात तय करने
आए थे। उन्हीं की ज़िम्मेदारी पर मैंने चाभी उन्हें दे भी दी
है। सामान लेने गए हैं वे...''
लक्ष्मी यह सुनकर खुशी से
उछल पड़ी, ''अब बताइए..कैसी रही मेरी योजना? पिताजी को गाँव
भेजकर फ़ायदा हुआ कि नहीं... अब इन तीन सौ रुपयों में से
चाहे सौ-डेढ़ सौ पिताजी को गाँव भेजते रहें तब भी फ़ायदा है।
पिताजी यहाँ रहें तो...कमरे का किराया एक तरफ़... उपर से
रोटी-पानी का खर्चा और आज़ादी में खलल। गाँव पचास रुपल्ली का
मनीऑर्डर भी करेंगे तो चार जगह नाम होगा कि बाप को पैसे
भेजते हैं, कितने आज्ञाकारी हैं।''
तभी नया किरायेदार अपना
थोड़ा-बहुत सामान लेकर आ गया। आनंद ने देखा तो देखता ही रह
गया, ''पिताजी आप... आप तो गाँव...?''
''हाँ बेटे...मैं ही हूँ।
तूने तो गाँव भेज दिया था। पर बेटा, मैं तुम लोगों से दूर
कैसे रहूँ? मैं इधर साइकिलवाले के यहाँ नौकर हो गया हूँ। हाथ
में हुनर है... भूखा नहीं मरूँगा। यह सब रमाकांत की मदद से
हुआ है। मैं बस तुम्हें अपनी आँखों के आगे देखना चाहता हूँ।
तेरा और पोते-पोतियों का मुँह देख-देखकर जी लूँगा। तुम्हें
कमरे का किराया चाहिए न... वो मैं किसी भी तरह कैसे भी भरता
रहूँगा। मैं तुम पर बोझ नहीं बनूँगा। गाँव से भी बटाई का ही
तीन-चार हज़ार सालाना आता रहेगा.. रोटी चल ही जाएगी। मेरी
विनती है बेटा...मुझे अपना किरायेदार बना लो ताकि मैं अपने
इस परिवार को फलता-फूलता देख सकूँ।''
९ जून
२००८ |