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बाबा की पुरानी कोठी।
लम्बे-लम्बे किवाड़ों वाला फाटक, जहाँ पहुँच रेल की पटरी ट्राम
की पटरी जैसी चौड़ी हो जाती। जब बन्द होता, ताँगों की कतार लग
जाती कोठी के सामने। रेल क्रॉसिंग के पार झाड़-बिरिख और कुछ दूर
पर सौंताल। कभी इसका नाम शिवताल रहा होगा पर सब उसे अब सौंताल
कहते। उसके पार जंगम जंगल। बीच-बीच से जर्जर टूटी दीवारें।
कहते हैं वहाँ राजा सूरसेन की कोठी थी कभी। घर की छत पर मोरों
की आवाज़ उठतीं- 'मेहाओ मेहाओ।' जब तक हम दौड़-दौड़े छत पर
पहुँचे मोर उड़ जाते। लम्बी उड़ान नहीं भरते। बस सौंताल के पास
कभी कदम्ब पर या कटहल पर बैठ जाते। सौंताल से हमारी छुट्टियों का
गाथा-लोक बँधा हुआ था। शाम को ठंडी बयार चलती। दादी हाथ का
पंखा रोक कर कहतीं, ''जे देखो सौंताल से आया सीत समीरन।'' कभी
आकाश में बड़ी देर से टिका एक बादल थोड़ी देर के लिए बरस जाता।
दादी का आह्लाद देखने वाला होता, ''आज सिदौसी से मोर-पपीहा
मल्हार गा रहे थे। मैं जानू मेह परेगौ।''
दादी दिन-रात सौंताल की रागिनी से बँधी रहतीं। बाज़ार में
पहली-पहली कटहरी आई, हरी कच्च। दादी कुँजड़िन से पूछें, ''सौंताल
की है न।''
कुँजड़िन को गहकी करनी है, सत्त कमाने नहीं निकली है।
''हम्बै मैया।''
''और जे कचनार, जे लाली सेम? सब सौंताल की है न!''
''हम्बे मैया। सारा झउआ उँहई भरायौ ए।'' |