|  रघु जब से आए हैं उससे एक बार 
                  भी नहीं बोले हैं। नौकरी मिलने के बाद दूसरी बार ही गाँव आए हैं। 
                  दूसरों के साथ बातों से ही छुट्टी नहीं मिल रही है अथवा जान बूझ 
                  कर उसकी उपेक्षा कर रहे हैं।इस नौकरी के इंटरव्यू के लिए जाने के लिए उनके पास एक भी पैसा 
                  नहीं था और पैसा माँगने पर माँजी ने इतनी बातें सुना डालीं थीं 
                  कि रघु ने इंटरव्यू देने जाने का इरादा ही छोड़ दिया था। तब उसने 
                  समझाते हुए आखिरी पायलें बेचने के लिए दे दी थीं। उसके सारे 
                  ज़ेवर इसी तरह समाप्त हो गए थे। रघु के इंकार करने पर उसने कहा 
                  था कि जब नौकरी मिल जाए तो सोने से पीली और चाँदी से सफ़ेद कर 
                  लेना। खूब अच्छी साड़ी लाकर दिया करना और मैं रानी बनकर घूमा 
                  करूँगी।
 लेकिन अब वही त्याज्य वस्तु 
                  बनकर रह गई है। बीमार बापू जब सुनेंगे तब शायद यह झटका सहन ही न 
                  कर पाएँ। उसने पढ़े लिखे रघु के अनुरूप ही स्वयं को सदैव ढालने 
                  की चेष्टा की है। रघु के सामने वह शहरी बोली पूरी सावधानी से 
                  बोलती है। माँजी उसके इस प्रयास की हँसी उड़ाते हुए अक्सर कह 
                  देती हैं, 'देशी कौआ मराठी बोली'माँजी अपने धारदार शब्दों से उसे चीरने का कोई अवसर नहीं 
                  छोड़तीं।
 दो दिन हो गए लेकिन वह रघु से 
                  बात तक न कर सकी। दूसरी शादी के विषय में वह कोई चर्चा नहीं करना 
                  चाहती, कहीं रघु ने कह दिया कि वह दूसरी शादी करेगा तो? कल शाम 
                  रघु कमरे में थे और वह पहुँच गई थी तभी उसे माँजी ने बुला लिया, 
                  वर्ना उसने सोच लिया था कि वह रघु से याचना करेगी कि उसे वह न 
                  छोड़े। वह सौत को मालकिन समझेगी और नौकरानी बनकर रह लेगी। वह रघु 
                  से अलग होने की कल्पना से ही काँप उठती है। उसका रघु से कोई 
                  पूर्व परिचय नहीं था, किंतु विवाह के बाद वह रघु से इतनी जुड़ गई 
                  कि अलग से अपना अस्तित्व ही नहीं स्वीकार कर पाती। सभी आँगन में बैठे थे। बाबू जी 
                  खाट पर लेटे हुए थे। दूसरी खाट पर लेटा श्याम एक पत्रिका पढ़ रहा 
                  था जो उसके भैया ने शहर से लाकर दी थी। उसी के पास रघु बैठे थे। 
                  वह कमरे में दरवाज़े के पास आकर बैठ गई। आँगन में ही माँजी बैठीं 
                  थीं। वह रघु को कमरे में बुलाना चाह रही थी लेकिन साहस साथ नहीं 
                  दे रहा था। ''क्यों रघु, वह लड़की कौन है?'' माँजी ने पूछा।
 अनायास उसके दिल की धड़कन बढ़ गई, जिस स्थिति से वह बचना चाह रही 
                  थी वही उसके सामने आ गई।
 ''कौन! वह शकुंतला! वह बड़ी अच्छी लड़की है।'' रघु ने बताया।
 ''उसे कभी घर ले आ।'' माँ जी बोलीं।
 वह उनका मतलब समझ रही है, लेकिन 
                  कह ही क्या सकती है। सभी तो उसका सबकुछ छीनने को आतुर हैं।''अबकी आऊँगा तो ज़रूर लाऊँगा। हमारे पड़ोसी महेश जी की बेटी है। 
                  मैं बीमार पड़ गया था तो उसने बड़ी सेवा की थी, घर आने ही नहीं 
                  दिया।'' रघु बता रहे थे।
 वह देख रही है उसका सबकुछ उस शकुंतला ने पहले ही हथिया लिया है, 
                  अब तो शेष कार्यवाही में उसे तलाक मिलना ही बाकी है।
 ''उसे तो मैं साथ ही लाने वाला था, लेकिन उसके पिता की तबियत 
                  खराब हो गई थी। हाँ मैं उर्मि को साथ लिए जा रहा हूँ। उससे कह दो 
                  तैयार हो जाए। वहाँ खाने पीने की परेशानी होती है,'' रघु बोले।
 ''क्या?'' माँ जी ने अविश्वास से पूछा।
 ''हाँ माँ, मुझे सरकारी मकान मिल गया है।'' रघु उठते हुए बोले।
 एक बारगी वह स्वयं अवाक रह गई 
                  उसे अच्छा ही लगा कि वह साथ रहेगी, भले ही नौकरानी के रूप में, 
                  वह है भी तो गँवार नौकरानी जैसी।''अरे! तुम यहाँ बैठी हो, तैयारी करो। चलना नहीं है क्या?'' रघु 
                  अंदर आते हुए बोले।
 ''मैं गँवार आपके साथ।" उसने आगे कुछ कहना चाहा, किन्तु कंठ 
                  अवरुद्ध हो गया।
 ''क्या गँवार गँवार की रट लगाए हो, अब मैं तुम्हारी तपस्या से 
                  अफसर हो गया तो क्या तुम मेरी पत्नी नहीं रह गईं? श्याम ने बताया 
                  था कि सब समझ रहे हैं कि मैं दूसरी शादी करूँगा, लेकिन मैं इतना 
                  कृतघ्न नहीं हूँ और शकुंतला तो तुम्हारी छोटी-सी ननद है। तुम 
                  जैसी भाभी पाकर वह बहुत खुश होगी। वह तो रोज़ कहती है कि भाभी को 
                  ले आओ तो मैं उनके साथ खेलूँगी। उनसे गुड़िया बनवाऊँगी।
 रघु कह रहे थे और उसकी आँखें खुशी से बरसे जा रही थीं।
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