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                     जब से रघु अधिकारी हुए हैं माँ जी 
                  अनायास ही कुछ अधिक ही तन गई हैं। उसके प्रति व्यवहार भी दिन 
                  प्रतिदिन रूखा होता जा रहा है। वह जानती है कि रघु अब उस गँवार 
                  को छोड़कर किसी पढ़ी लिखी से शादी कर लेंगे। वह सिर झुकाए चूल्हा फूँकती रही। उस दिन श्याम बता रहा था कि रघु 
                  भैया किसी शकुन्तला नाम की लड़की के घर अधिक आते जाते हैं। जब भी 
                  रघु आते हैं वह इस डर से सहम जाती है कि शायद अब वह अपनी दूसरी 
                  शादी की घोषणा कर उसे घर वापस भेज देने के लिए कह देंगे। अभी तक 
                  रघु ने ऐसा नहीं कहा और न ही उसका साहस हुआ कि वह रघु से इस विषय 
                  में कोई बात करे।
 चाय बन गई थी। उसने चाय की 
                  पतीली उतार ली। विशेष अवसरों पर उपयोग के लिए रखे कप उसने ट्रे 
                  में सजा दिए और चाय केतली में छान दी। ''श्याम, चाय दे आओ,'' उसने श्याम से कहा। वह सप्रयास शहरी बोली 
                  बोलती है, अपने रहन-सहन से हर प्रकार प्रयास करती है कि वह रघु 
                  के योग्य हो जाए।
 श्याम चाय की ट्रे लेकर बाहर चला गया था। उसकी मानसिकता में 
                  कितना अंतर आ गया है। पहले रघु के आने पर उसका मन अनायास पुलकित 
                  हो उठता था। किन्तु अब वह उनके आने से बिखरे भविष्य की आशंका से 
                  भयभीत हो उठती है। रघु की उन्नति उसी के लिए अभिशाप बन जाएगी, 
                  इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। रघु की पढ़ाई के बाद नौकरी की 
                  तलाश में भटकने में एक-एक करके सारे ज़ेवर बेच दिये थे उसने। 
                  बेकारी और आर्थिक तंगी के कठिन दिनों में उसने रघु को टूटने नहीं 
                  दिया था, सदैव आशावान बनाए रही, वरना यही माँ जी, जो बेटे के 
                  अधिकारी बन जाने पर फूली नहीं समा रही हैं बेटे को बात बात पर 
                  जली कटी सुनाने लगती थीं।
 औरतों के मध्य अक्सर माँ जी 
                  कहतीं रहती हैं कि रघुनंदन इस बांझ को छोड़ कर किसी पढ़ी-लिखी 
                  लड़की से शादी कर लेगा। गँवार के साथ उसका क्या निबाह होगा वंश 
                  चलाने वाला भी तो चाहिए। माँ जी बांझ कह कर उसके स्त्रीत्व को 
                  अपमानित करती हैं, वह उन्हें कैसे बताए कि उनके पढ़े-लिखे बेटे 
                  ने ही अब तक संतान नहीं चाही। उनका तो यही कहना रहा है कि पहले 
                  व्यवस्थित हो जाएँ, तभी बच्चे हों। कम उम्र में शादी कर माँ बाबू 
                  जी ने पहले ही समस्या खड़ी कर दी है।  उसने सदैव यही प्रयत्न किया कि 
                  रघु उसे अतिरिक्त भार न समझें उनके पढ़ने लिखने में उसने कभी 
                  व्यवधान नहीं डाला। और ना ही अपने लिये कुछ माँगा। और तो और 
                  शृंगार का मामूली सामान भी नहीं। उसने सदैव यही सोचा कि जब 
                  उन्हें नौकरी मिल जाएगी तो सारी इच्छाएँ पूरी कर लेगी लेकिन...।''तू तो हमेशा ऊँघती रहती है, अपने मन से तो कुछ कर ही नहीं 
                  सकती। सब्ज़ी काट ले और दाल चढ़ा ले'' माँ जी के कर्कश स्वर ने 
                  उनकी तंद्रा भंग कर दी।
 उसने डलिया में रखी सब्ज़ी 
                  निकाली और छीलने लगी। वह माँजी की किसी बात का प्रतिवाद नहीं 
                  करती। रघु की बेकारी के समय में माँ जी कितना कुछ सुनाती रहती 
                  थीं, कितनी ही बार अलग रहने की धमकी दे डाली थी। अलग किए जाने की 
                  बात पर रघु की दशा अर्ध विक्षिप्त-सी हो जाती थी। कितनी ही बार 
                  उसने रघु के आँसू पोंछे थे। बाबू जी आँगन में पड़ी खाट पर 
                  आकर लेट गए। बेटे के अधिकारी हो जाने पर भी उनकी दिनचर्या में 
                  कोई विशेष अंतर नहीं आया है। सुबह उठ कर खेत और खेत से लौट कर 
                  छप्पर के नीचे लेटे रहते हैं। घर में घटित होने वाले घटना चक्र 
                  से निस्पृह। जब कि माँजी सदैव बोलती रहती हैं। आजकल उनकी बातों 
                  के केन्द्रबिन्दु रघु हैं। पड़ोसियों से बात करते समय वे उसी के 
                  सामने कहती हैं कि रघु अब दूसरी शादी करेगा, इस बांझ को कहाँ तक 
                  ढोएगा। उसने तो एक पढ़ी लिखी लड़की देख भी ली है। उस समय औरतों 
                  की दृष्टि में उपजे दयाभाव को झेलना कठिन हो जाता है। |