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कहानियाँ 

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
भारत से साबिर हुसैन की कहानी -''गँवार''।


सुबह रघु के घर में कदम रखते ही उसके दिल की धड़कन अनायास बढ़ गई थी। उस समय वह छप्पर के नीचे रसोई बना रही थी। उन्होंने आकर बाबूजी के पैर छुए थे और उससे बिना कुछ बोले कमरे में जाकर लेट गए थे। थोड़ी ही देर में शायद थकान के कारण सो गए थे। जब से रघु की अधिकारी के पद पर नियुक्ति हुई है, माँ जी ने गँवार कह-कह कर उसमें हीनभावना की जड़ें इतनी गहरी जमा दी हैं कि उसमें प्रतिरोध करने की शक्ति भी शेष नहीं रही है।

वह गीली लकड़ियों से जूझ रही थी जो उसके रोने में सहायक बन रही थीं। रघु अभी नहा धो कर बाहर गए हैं। वह चाय बना रही है। खौलते पानी की तरह उसके अंतस में भी कुछ खुदबुदा रहा है। भविष्य की आशंका से उसकी आँखें लगातार बरस रही हैं। लकड़ियों का धुआँ उसके अंतर की कड़वाहट से कहीं कम है।

''तू रहेगी गँवार की गँवार ही, अभी तक चाय नहीं बना पाई। बाहर सब चाय का इंतज़ार कर रहे हैं'' माँजी कर्कश स्वर में बोलीं।

जब से रघु अधिकारी हुए हैं माँ जी अनायास ही कुछ अधिक ही तन गई हैं। उसके प्रति व्यवहार भी दिन प्रतिदिन रूखा होता जा रहा है। वह जानती है कि रघु अब उस गँवार को छोड़कर किसी पढ़ी लिखी से शादी कर लेंगे।

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