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आठवाँ भाग

जमी हुई बर्फ़ की लटकती हुई लड़ियों नुमा बतियों का सेहरा पहन कर हमारा घर बाहर से दुल्हा बन कर सज गया। अंदर वाले कमरे में इस दीवार से उस दूर की दीवार को मिलाती चौड़ी खिड़की के सामने दुल्हन के घर में लगाई जाने वाली विवाह-वेदिका बनी। मंगल कलश, हल्दी-कुंकुंम के रंगों वाले ताज़े फूलों की रंगोलियाँ, आम के पत्तों की लड़ियाँ और बंदनवार सभी कुछ सजावट शगुन मनाए गए। दो दिन से लगातार गिरने वाली बर्फ़ की घनी-घनी फुहारों ने घर के चारो तरफ़ उँघते ठिठुरते पेड़ों की सूखी टहनियों को चाँदनी जैसे उजले चंदोवे बना दिया। बाहर बर्फ़ गिरती रही। और भीतर हमारे परिवार, परिवार जैसों की आमद-रफ़्त बढ़ती रही।

अपनी निर्धारित भूमिका निबाहने के लिए मेरा रंगमंच ठीक वैसा ही सजा जैसा मैं चाहती थी। मेरे अनुरोध पर भारतीय विद्या भवन के सम्मानित स्थापक-निर्देशक और इंग्लिश-संस्कृत के विद्वान डॉक्टर जयरमण ने विधिवत अनुष्ठान का दायित्व जब से अपने उपर लीया था, मैं पूर्णतया आश्वस्त थी कि वर-वधू यथोचित सम्मान सहित मंगल फेरे और सप्तपदी लेकर उन सब आशीषों के भागी होंगे जो आस्था की थाती हैं।

एक छोटी-सी दुविधा उठी ज़रूर। लेकिन डॉक्टर जयरमण ने उसका तुरंत ऐसा समाधान निकाला कि वह मौलिक अनुष्ठान-सा ही उचित रहा। अकस्मात हुई हिप-सर्जरी से हाल ही में निवृत्त हुए लीसा के पिता प्रतिकूल मौसम के कारण हमारे घर आने से रह गए। कन्यादान कौन करेगा? इस सोच में पड़ने से पहले ही डॉक्टर जयरमण ने युक्ति बना दी। और उसमें उनके सहयोगी हुए राजन! वह तो वैसे भी पुराने अनुभवी है न इस मामले में।

''मैं राजेंद्र सिंह राणा अपने आशीर्वाद सहित श्री आइसाक हैन्काफ़ की सुपुत्री लीसा हैन्काफ़ का पाणिग्रहण अपने सुपुत्र मनु सिंह राणा के साथ करता हूँ।''

मेरी पटकथा में यह पंक्ति ठीक वैसे ही सज गई जैसे कि जोड़े जामा में दुल्हा और लहंगा चुनरी चोली में दुल्हन की सुंदर छवि। बस इसके अलावा, मेरी भूमिका वाले पृष्ठ का हर किरदार अपने ही रचे स्वांग भरता रहा। और उनका सहयोग दिया, हाल कमरे से फर्स्ट फ्लोर को मिलाती दस सीढ़ियों ने जिनके तरफ़ कमर तक उँची रेलिंग और दूसरी तरफ़ छत तक उठती दीवार है। मेरी पटकथा में इन सीढ़ियों की कोई भूमिका नहीं थी फिर भी मैंने इनके दोनों तरफ़ छोटे-छोटे फूलों वाले गमले सजाकर रख दिए थे। सीढ़ियाँ उपर जाकर एक चौड़े गलियारे में रुक जाती है जिसके तीनों कोनों में हमारे बैडरूम्स मेहमानों से भरे थे। सीढ़ियों के बाएँ तरफ़ की रेलिंग गलियारे में पहुँच कर कोने वाले बैडरूम तक जाती है और उसके आगे की खाली जगह को एक छोटे से रंगमंच का रूप दे देती है जिसके उपर की छत से लटकते शैंडेलियर की बत्तियाँ उसे यों भी कुछ नाटकीय-सा बना डालती हैं। पर उस दिन एक के बाद एक तैयार होकर नीचे विवाह वेदिका की तरफ़ आने वाले मेहमानों की छोटी-सी भीड़ वैसे ही कुछ नाटक मंडली जैसी लग रही थी। उसपर तुर्रा यह कि उपर या नीचे आने के लिए जिसने भी इन सीढ़ियों पर पाँव रक्खे वही नौटंकीबाज़ हो गया। दर्शक और अभिनेता का भेदभाव बिल्कुल मिट गया। पटकथा, संवाद और निर्देशन हाथों हाथ उछलते गए। ठहाकों और ठिठोलियों की तालियों में जो कुछेक रस्मोंखामात निभ पाए, उन पर भी मनोनीत अदाकार ने अपने मख़सूस अंदाज़ की मोहर लगा कर छोड़ी। नए अदाकार अपनी ही उलटफेर में लगे रहे।

घर की बहू को घर से बाहर जाकर घर की अन्य औऱतों समेत एक पड़ोसी के घर से छोटी-सी मटकी में जल लाकर अपने घर में रखना था। ऐसा करने से विवाह वाले घर की ही नहीं पास पड़ोस की भी मंगलकामना होती है। यह रस्म लीना को निबाहनी थी। और मैं तजुर्बे से जानती हूँ कि लीना जब कोई रस्म अदा करती है तो पूरी निष्ठा के साथ। शादी के छः महीने बाद रैसिडैंसी मुकम्मिल करने पर जब उसे पहली बार अपनी नई नौकरी पर जाना था, तो शांतनु काम से बाहर गया हुआ था। मैंने शाम को फ़ोन किया और लीना से कहा कि वह चाहे तो दूसरे दिन सुबह घर से निकलने से पहले एक चम्मच दही और शहद खा कर जाए- शगुन होता है।

''अभी तो मेरे पास दही नहीं है।''
''ठीक है, सुबह जाती बार कहीं से ख़रीद लेना।''
कोई तीन घंटे बाद लीना को फ़ोन आया। रात के दस बज चुके थे और बाहर बर्फ़ गिर रही थी।
''मैं चौबीस घंटे खुले रहने वाली दुकान से दही ले आई हूँ। कल सुबह मुझे बहुत जल्दी निकलना है। आप अभी बता दें कि खाते वक़्त चम्मच में दही उपर रखना है या शहद?''

सीढ़ियों के पास नीचे खड़ी मैं लीना को ढूँढ़ रही थी। तभी देखा कि रेशमी सलवार कुर्ते पर चुन्नट वाला दुपट्टा गले में लपेटे, सिर पर मटकी रखे। उसे दोनों हाथों थाम कर वह सधे कदमों के खिल-खिल कटती हुई सीढ़ियाँ उरत रही है। उपर गलियारे में और नीचे हॉल में दर्शक तालियाँ बजा कर उसके कदम गिन रहे हैं- एक, दो, तीन।

जब वह सबसे नीचली सीढ़ी पर पहुँची तो मैंने कहा, ''चलो अब इसमें जल भरने चलें।''
''वो तो मैंने भर लिया।''
''कहाँ से?''
''उपर! आपके बाथरूम के सिंक वाले नल से।''

मनु के तैयार हो जाने पर उसको अपने साथ सीड़ीयों से नीचे लाकर राजन के हाथों सेहरा बँधवाने का ज़िम्मा शांतनु का था। डॉक्टर जयरमन वक़्त के खरे पाबंद हैं। ठीक छः बजे यह रस्म निबाही जाने का तय हुआ था। छः बजने में दो मिनट पर बादामी बोस्की के चूड़ीदार पजामें और कुदरती सिल्क के कुरते पहने दोनों भाई सीड़ियों के उपर गलियारे में नमूदार हो गए।
''व्हॉट नैक्स्ट मौम? अब क्या करें?'' शांतनु बोला।
''मनु को अपने साथ लेकर नीचे पहुँचा दो।'' मैंने कहा।

मैंने अपनी बात मुश्किल से ख़त्म की थी कि हर रोज़ सुबह एक घंटे कसरत करने वाले शांतनु ने गोल्फ़ और तैराकी के शौकिन मनु को अपनी बाहों में उठा लिया।
''यहीं से नीचे फेंक दूँ इसे?'' शांतनु ठहाकेदार आवाज़ में बोला और फिर अपनी गर्दन को कसती मनु की बाहों को देख कर कहा,
''तुम्हारे लिए यह अच्छा मौका है मनु कि तुम स्वीकार कर लो कि बचपन में तुमने मुझे दोनों पैरों से पकड़ कर सिर के बल लटका पूछा था कि क्या मैं ज़मीन पर सिर के बल खड़ा होना चाहूँगा?''

विवाह-वेदिका की ओर जाते हुए सेहरा बाँधे मनु की गोद में शांतनु और लीना में भरत को थमा दिया। पैतृकत्व का सम्मान करने वाली यह रस्म अदा करते हुए मनु के सिर पर एक खानदानी फुलकारी के चारों कोने पकड़े शांतनु और जयसिंह खड़े थे। जयसिंह राजन के फुफेरे भाई के दामाद हैं। राजस्थानी अंगरखा-धोती पहने, सिर पर बाँकुड़ी वाली टोपी चिपकाए भरत ने मनु की गोद में जाने से कोई हील-हुज़्ज़त नहीं की। लेकिन जब मनु ने उसे प्यार से निहारना शुरू किया तो साहिबज़ादे ने अपने छोटे से मुँह से इतनी बड़ी जम्हाई ली कि लगा संपूर्ण विश्व का विराट रूप लघु कर के दिखा रहे हों।
''शादी तुम्हारे बड़े काका की हो रही है, बेटा मस्त! तुम इतना बोर क्यों हो रहे हो?'' जयसिंह पूछ रहे थे।

विवाह संपन्न होने के बाद कुछ देर उपर आराम करने के लिए लीसा और मनु को भेजा था। यह तब हुआ था कि जब वह दोनों सीड़िया उतरेंगे तो मैं नीचे खड़ी रहकर द्वारा पूजन की रस्म पूरी करूँगी। एक थाली में चावलों से भरी छोटी-सी लुटिया रख कर मैंने निचली सीड़ी के सामने सज़ा दी। लीसा और मनु जब वहाँ तक पहुँचे तो मनु वही रेलिंग से टिक कर बैठ गया। लगता था जैसे पूछ रहा हो, 'अब और कितनी कवायत करवाओगी आप?' लीसा कुछ अपना लहंगा-चुनरी और कुछ अपने को सँभाले चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाकर शायद अंजली और सोनाली को ढूँढ़ रही थी। सोनाली राजन के फुफेरे भाई की बेटी है- जयसिंह की पत्नी। अंजली राजन की भांजी है। पिछले छः बरस से दोनों ही लीसा की हमजोलियाँ हैं। सारी शाम उसके आस-पास मंडरा रही थी- अब नहीं दिखी। लीसा ने ज्योत्स्ना से पूछा, जो वहाँ सीढ़ियों के पास खड़ी थी।

''क्या मुझे अब इस चावल वाले टंबलर को पैर से उछालना है?''
''सिर्फ़ पाँव के अंगूठे से उलट दोगी तो भी चलेगा,'' ज्योत्स्ना ने कहा। फिर मुझसे बोली, ''अगर पूरे ज़ोर से उछाल दें तो कैसा रहे? देखें किस के भाग खुलते हैं। हमारा ब्राइडल बुके ही तो है यह।''

ज्योत्स्ना मेरी युवा मित्र है। एम.ए. में मेरे प्रोफ़ेसर की बेटी। यही शिकागो में सोशिऔलॉजी की प्रोफ़ेसर हैं।
''मुझे लगता है ज्योत्स्ना कि और कोई प्रतिभा मुझ में हो न हो,'' मैंने कहा, ''लेकिन मैं एक सफल पटकथा लेखक या निर्देशक कहीं से कहीं तक हो ही नहीं सकती।''
''हो सकता है कि तुम निर्देशन की एक नई प्रणाली शुरू कर दो जिसमें अदाकार खुद अपनी पटकथा लिखें ताकि उनका अभिनय बिल्कुल सहज और स्वाभाविक हो।'' ज्योत्स्ना ने मेरा मन रखना चाहा।
''मेरा तो ख़याल है कि हमारी आज जैसी अगड़म-तिगड़म को देखने के बाद ही यहाँ पर शादी के एक दिन पहले बाकायदा रिहर्सल की प्रथा बनाई गई होगी,'' मैंने कहा।

रिहर्सल उसी चैपल में हुआ जहाँ अगले दिन शादी होगी। न इसके बाहर से दिखने वाले कोई गुंबद, शिखर या कंगूरे हैं जिन को देखकर यह लगे कि यह एक मस्जिद, मंदिर, गिरिजाघर या गुरुद्वारा है। न इसके भीतर कोई मूर्तियाँ या चित्र है, न रंगीन शीशों की खिड़कियों पर अंकित किसी धार्मिक प्रणाली की छवियाँ हैं। दर असल यह चैपल युनाइटेड नेशन्ज़ के हैडक्वार्टर की इमारत को मुख़ातिब करता सड़क के इस छोर खड़ी एक बहुमंज़िला बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर का एक हॉल है जहाँ करीबन दो सौ लोग इकट्ठा बैठ सकते हैं। एक दीवार से सटा प्रवक्ता मंच और उसके पास रखा पुराना पियानो ही इसकी सज्जा है।

रिहर्सल का निर्देशन किया प्रसन्नवदना और स्फूर्तिमयी रैवरेंड सूज़ाना ने। कहीं किसी अटकल की गुंजाइश नहीं। कब, कौन, कहाँ से उठ कर, कितने कदम चल, किस स्पॉट पर पहुँच, क्या करेगा या कहेगा, सब तफ़तीश से बताया, फिर कहलवाया और करवाया। मजाल है किसी से कहीं कोई भूल चूक हो जाए! घऱ में छोटा-मोटा काम करने को कहने पर टी.वी. देखना छोड़कर उठने में कम से कम दस मिनट लगाने वाले राजन ने भी बिना सवाल किए वही किया जो उनसे करवाया गया। कहने वालों के हाथ में सफ़ाई से प्रिंटेड पर्चियाँ थमा दी गई। हिंदी में शांतिपाठ का मंत्र लिखी एक पर्ची मुझे भी मिली। मैंने शिष्टता-वश हाथ में ली और हाथ जोड़, आँखें मूँद कर ''ओम घ्यो शांति अतरिक्षगं'' का पाठ कर लिया।
मेरे पास ही खड़ी सूज़ाना ने अतिशय औपचारिकता से पूछा, ''अगर मैं आपको शांतिपाठ का भावार्थ इंग्लिश में लिख दूँ तो क्या आप पढ़ सकेंगी?''
जवाब मनु ने दिया।

''हिंदी लिपी में उच्चारण सहित लिख दें तो आप पढ़ लेंगी न, ममा!''
''आई थिंक आई वुड मैनेज टू डू इट, इफ़ मनु विशेज़ सो। मुझे लगता है कि अगर मनु चाहे तो मैं ऐसा कर पाऊँगी।'' मैंने कहा।

सुज़ाना अब खुल कर मुस्कुराई और मुझे एक तरफ़ ले गईं।
''मिसेज़ राणा। मैं पूरी शाम आपसे कुछ कहना चाह रही थी, अब कह सकती हूँ?''
''कहिए न!''
''विश्व के प्रमुख धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन मेरे लिए एम.ए. का विषय था। पिछले पंद्रह वर्षों में मैंने कई बार अंतरजातीय, अंतर्राष्ट्रीय, अंतरधार्मिक विवाहों के अनुष्ठान करवाए हैं।'' वह कुछ रुकी।
''मनु का परिचय पाकर मेरा पनपता हुआ विश्वास सशक्त हो चला है कि अपने धर्म, अपनी संस्कृति का आपका ज्ञान जितना ही गहरा है, उतना ही आप दूसरों के धर्म और संस्कृति के प्रति सहिष्णु हो जाते हैं।''
''सुन कर अच्छा लगा, '' मैंने कहा।
''यह सुन कर आपको औऱ भी अच्छा लगना चाहिए कि जब यही बात मैंने मनु से कही तो वह बोला कि उसे इसी तरह की सोच के साथ पाला-पोसा गया है।''

अप्रत्याशित गर्व का यह ऐसा पल था जिसमें सराबोर होकर माँ-बाप सदा के लिए अपनी संतान के अनुगृहित हो जाते हैं। मैंने चाहा कि राजन को भी इस पल में शामिल कर लूँ। नज़रें इधर-उधर दौड़ाई और कुछ दूर खड़े राजन को थोड़ा ही देखते पाया। बस मुस्कुराने भर का मौका मिला। काफ़ी था।

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