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तीसरा भाग

मनु ने वही कहा जो उसे शिष्ट और उचित लगा।
"लेकिन आप वही कीजिए, जिसमें आप ज़्यादा खुश हैं।"
राजन ने अपना मत भी दिया और ऐसे कि मुझे अपना निर्णय लेने के नतीजे साफ़ हो जाएँ।
"तुम्हें तो यहाँ का माहौल दिल्ली से ज़्यादा चुनौति वाला लगता है न वापस क्यों जाना चाहती हो।"
"इसलिए कि मुझे अब तक किसी ने यहाँ टिके रहने का न्योता नहीं दिया।"
"अभी तुम्हारा कांट्रेक्ट ख़त्म होने में चार महीने हैं। मुझे नहीं लगता कि तुम्हारा डिपार्टमेंटल बास तुम्हें आसानी से हिन्दुस्तान वापस जाता देखना चाहेगा।"
शान्तनु का दो टूक जवाब मिला था।
"यू डू व्हाट यू वांट! आप जो चाहे करें मौम। जस्ट अबंडन मी हेयर ओनली। मुझे यहीं मेरे हाल पर छोड़ जाएँ।"
शान्तनु को न हिंदी ठीक से आती थी, नहीं बोल पाता था। उसे उसके हाल पर छोड़ कर जाने की नौबत नहीं आई।

मेरा कांट्रेक्ट लंबा होता गया। तरक्की मिली, औहदे नसीब हुए। राजन युनीवर्सिटी से कभी सबैटिकल, कभी बिना तनख़्वाह की साल भर की छुट्टी पर आते। वरना गर्मियों की छुट्टी में वो तीन महीने न्यूयार्क में और सर्दियों में एक महीना हम सब वहाँ नई दिल्ली में। मेरे लिए दिन लंबे और रातें छोटी होती रहीं। कई सालों तक बरस में कम से कम सात – आठ महीनें। नहीं एक वक्त पर हम दोनों का जगना हुआ न सोना। सपने तक एक साथ देखना मुमकिन न हुआ। यहाँ जब दिन होता है, तो हिंदुस्तान में लोग सपने देखते हैं। यहाँ जब लोग गहरी नींद में होते हैं तो हिंदुस्तानी चलते-फिरते, घूमते-फिरते, चकाचौंध से बिना चौंधियाए, बरसात की फुहारों को सहेजते अपने काम-काज में लगे रहते हैं।

राजन की बरकरार ग़ैरमौजूदगी में कब और कैसे मनु मेरा दोस्त और शांतनु मेरा अभिभावक बन गया, मुझे याद नहीं।
उस साल दीवाली के दिन राजन का न्यूयार्क में होना मुमकिन न हुआ। हर साल की तरह उस बरस भी मैंने घर की तरफ़ जाती हुई लाल ईंटों वाली चौड़ी पगडंडी के दोनों तरफ़ चावल-हल्दी-आटे की रंगोली बनाई, बाहर छोटे से लॉन में लगी ऊँची-नीची झाड़ियों पर सफेद-नीली टिम-टिम करती बत्तियाँ लगाईं, अंदर शीशे की फर्शी दीवार तक उठती खिड़कियों के पीछे छोटे-छोटे पारदर्शी कसोले में मुटल्ली मोमबत्तियाँ जलाईं। यू.एन. में एक साथ काम करने वाले मेरे बास-पच्चीस सहकर्मी गप्प-शप में मशगूल थे और यहाँ वहाँ अपने नाम की मोमबत्ती जलाते हुए एक दूसरे दिन आफिस में आकर किस को यह ख़बर मिलेगी कि उसकी जलाई मोमबत्ती सुबह तक नहीं बुझी। मेरे अतिथियों में एक भी हिंदुस्तानी नहीं था। पूरे बरस भर उनके द्वारा दिए गए औपचारिक, व्यवसायिक लंच-डिनर में मेहमानी कबूल करने के बाद में दीवाली के दिन कुछ एक की मेज़बान हो जाती थी। इस साल आए अतिथियों में मेरे डिपार्टमेंट के अध्यक्ष जान मार्टेन्सन भी थे। न्यूयार्क में निरस्त्रीकरण विभाग के उप-महासचिव का पद लेने से पहले, वह स्वीडन के बादशाह को चीफ आफ प्रोटोकोल रह चुके थे। सहज-स्वाभाविक शिष्टाचार और औपचारिकता उनके लिए उठती-गिरती साँसों जैसा था। मेरे बेटों से मिलना चाहा तो मैंने मनु और शान्तनु का परिचय करवा दिया। उन्होंने पहले मनु और फिर शान्तनु से हाथ मिलाया और कहा,
"मुझे अब तक आप दोनों के पापा से मिलने का मौका नहीं मिला। आपकी माँ को पिछले पाँच बरस से जानता हूँ, यह मेरी खुशकिस्मती है। वह बहुत कम समय में मेरे विभाग के लिए एक अमूल्य निधि हो गई है। मुझे यकीन है कि आप को अपनी माँ पर गर्व होगा।"
बिना पलक झपके मनु और शांतनु ने एक साथ कहा जैसे कि रिहर्सल किए बैठे हों।
"हमने अपनी माँ का पालन-पोषण करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। हमें खुशी है कि वह आपना काम मन लगा कर करती हैं। हमारे लिहाज से भी वो ठीक-ठाक ही हैं।"

इस पालने-पोसने की भूमिका के रद्दो-बदल में कब इन दोनों भाइयों ने मेरी पीठ ठोकी और कितनी बार मुझसे शाबासी ली, इसको फिक्र मुझे तभी उठी जब-जब पता लगा कि वह मुझे अपनी होने वाली बीवियों से मिलाना चाहते हैं। सिनेमा-टी.वी की बात अलग है। शरत-बांकिम-प्रेमचंद की नायिकाओँ की अलग। असल ज़िंदगी में बेटों से वाह-वाही, शाबासी पाने वाले माएँ, बहुओं के सिर का बवाल भी हो सकती हैँ- ऐसा मैं देख और सुन चुकी थी, बस मन ही मन सोच लिया कि अपने सफल व्यवसायिक जीवन के चुटकुले सुना कर बेटों के साथ मिल अपना ही मज़ाक उड़ाती थी उसे होने वाली बहुओं के सामने दुहराने से करना होगा। वैसे मैं ऐसा न भी सोचती तो कोई फ़र्क न पड़ता।
"यह जो आपके मित्र-परिचित मुझसे अपनी कन्याओं का परिचय करवाने के लिए राज़ी हो जाते हैं यह या तो उनकी शराफ़त है या आपके प्रति उनका आदर। मेरे बारे में क्या जानते हैं वह? मैं निक्कमा और दुष्चरित्र भी हो सकता हूँ?" कहने वाले लाजार्ड इन्वेस्टमेंट बैंक के वाइस-प्रेसिडेंट मनु को अब हमने किसी से मिलवाने का इरादा छोड़ दिया था। उसने खुद ही एक बार पार्क में घूमने के लिए साथ चलने को कहा और हमेशा की तरह अपनी लंबी बाँह के कसे हुए घेरे में मेरे कंधे को दबोच कर याद दिलाया कि मैं उसके और शान्तनु के छः फुटे ही रह जाने की वो वजह हूँ जिसने उन्हें बास्केटबाल प्लेयर नहीं बनने दिया।
"अच्छा ममा। पिछले हफ्ते मैं अपने आफिस के ह्यूमन रिसोर्स सैंक्शन की एक लड़की से मिला। लगता है कि हम दोनों फिर मिलेंगे।"
"कैसी है? खूब पढ़ी लिखी है न?"
"बेकार है बिल्कुल! स्कूल की शक्ल तक नहीं कभी देखी उसने? क्या यही सुनना चाहती है आप?"
"बताओ न? देखने में कैसी है?"
"वैरी प्रिटी! खूब दिखती है लेकिन इससे कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता।"
"क्यों नहीं पड़ता? ज़रूर पड़ता है अपने पापा से पूछो न!"
"वो हिंदुस्तानी नहीं हैं, ममा, अमेरिकन है, ज्यूइश हैं।"
"तो क्या हुआ?"
"अभी तो कुछ नहीं हुआ और क्या होगा, यह भी नहीं कह सकता।"

शान्तनु की लीना और मनु की लीसा को राजन और मैं एक ही शाम एक ही जगह मिले। मैनहैटन के एक रेस्तरों में। मेज़ के इस तरफ़ मनु और राजन की दाईं ओर मैं। दूसरी तरफ़ शान्तनु और लीना के बायें बैठी लीसा। न किसी ने शरमा कर मुझसे पूछा कि "आप चाय में चीनी लेती हैं क्या?" न मैंने अपने गले से उतार कर सोने की चेन किसी को पहनाई। घर लौटते ही राजन ने पूछा,
"कहो भई? अपने लड़कों की लड़कियाँ कैसी लगीं?"
"तुम बताओ?"
"सवाल पहले मैंने किया है।"
"लगता है लीना और शान्तनु जल्दी ही शादी कर लेंगे।"
"और मनु?"
इससे पहले कि मैं कुछ कहूँ- टेलीफोन बज उठा। मनु का था।
"आज की शाम अच्छी रही न ममा! लीना और शान्तनु लुक सो गुड टुगेदर, वो दोनों एक साथ खूब खुश हैं। और आप? पापा?
"हम भी।"
"अच्छा यह बताइए ममा कि लीसा आपको कैसी लगी?"
"मैं तो आज पहली बार मिली हूँ मनु। तुम्हें कैसी लगती है।"
"अच्छी न लगती तो आपसे क्यों मिलवाता।"
"प्यार करते हो उसे?"
"वक्त लगेगा, ममा!"
"ठीक है तब तक के लिए, मुझे भी अपनी राय जताने का वक्त दे दो।"
"नहीं ममा, आप ऐसा नहीं कर सकतीं। मैं चाहता हूँ कि जिस लड़की से मेरा कोई संबंध हो उसे आप शुरू से ही जानें। ताकि जब मैं किसी निर्णय पर पहुँचू तो आपको बताने के लिए मुझे कोई मोनुमेंटल डीसिजन न लेना पड़े। आप तो जानतीं हैं न कि मेरे लिए इस बात की बड़ी अहमियत है।"
"किस बात की बेटा?"
"कि मैं जिससे शादी करूँ उसके साथ आपकी अच्छी निभे।"
"मेरी तरफ़ से आश्वस्त रहो मनु।" मैंने बात को हँस कर बढ़ने से रोकने की कोशिश की।
"बहुओं से तभी झगडूँगी न जब लगे कि उनको कुछ ऐसा मिला जो मुझे नसीब नहीं हुआ।"
"बात को उड़ाइए मत,ममा। मैं जानता हूँ कि आपकी वफ़ादारी रिश्ते से होती है रिश्तेदार से नहीं। चाहे वो पापा हैं। चाहे शान्तनु और माँ। गो ईज़ी आन यूअरसेल्फ, ममा। अपने ऊपर अपना ज़ब्त ढीला कर दें आप। औफ हम पर भी। यह मत भूलिए कि आप अगर रिश्ता निबाहेंगी और उससे खुश नहीं हैं तो इसका असर हमारे बीवियों के चुनाव पर भी होगा। इट वुड एफेक्ट अवर च्वाइस आफ अवर स्पाउसल। हो सकता है कि हम अपनी खुशी को रिश्ते से ज़्यादा अहमियत दें।"
शान्तनु ने खुल कर कुछ नहीं कहा। तो क्या हुआ? नानी तो दोनों की एक ही है न!
इतवार की शाम होने को आई थी। ईट-इन किचन की बैक-यार्ड की चौड़ी खिड़की के पार पेड़ पौधों के खिले हरे जमघटे की तरफ़ पीठ किए गोल मेज़ की ऊँची पीठ वाली कुर्सी पर जमे हुए राजन का चेहरा दोनों ओर से खुले अख़बार के पन्नों में छिपा था। आदतन कुछ मिनट पहले मुझसे पूछ लिया था,
"कोई मदद चाहिए?"
और अक्सर जैसा होता है, एक बार फिर मेरा जी चाहा कि कहूँ- मदद उस काम में देते हैं जो किसी दूसरे का हो। खाना मैं अकेली तो नहीं खाती? इसको बनाने के लिए मदद नहीं हाथ बँटाने की ज़रूरत है। लेकिन फिर से लगा कि ऐसी अल्फाज़ी बारीकियों को लेकर पूरी शाम बदरंग करने में कोई तुक नहीं। छोटी मोटी छीन-झपट में अपने अचूक हथियारों का इस्तेमाल क्या करना?
गराज से टी.वी रूम की तरफ़ खुलता दरवाज़ा धड़ाके से पूरा हिला और धमाके से बंद हो गया। शान्तनु होगा! मनु भी दरवाज़ा एक ही धक्के से खोलता है लेकिन सधे हुए कदमों की आहट होती है उसके साथ।

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