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और हरदीप अपने पुत्र को देखे बिना ही इस दुनिया से चला गया था। अपनी रणनीति के अनुसार हरदीप बैंकॉक होते हुए टोकियो पहुँच गया था। अपने पुराने साथियों के साथ ही जाकर रहने का ठिकाना भी कर ही लिया था। एक ही कमरे में दस-बारह अवैध रूप से घुसे लड़के वहाँ रहते थे। कुछ एक की पत्नियाँ पीछे हिंदुस्तान में प्रतीक्षा कर रही थीं। कुछ एक जापान में ही विवाह करने की जुगाड़ बना रहे थे। जापानी कन्या से विवाह करने पर वो जापान में रहना वैध हो जाता।
फ़रीदाबाद का वैध नागरिक, खाते-पीते घर का 'काका', जापान में अवैध काम करके को अभिशप्त था। वहाँ वो कुली भी बन जाता था तो कभी रेस्टॉरेंट में बर्तन भी माँज लेता था... हर वो काम जो हरदीप अपने देश में किसी भी कीमत पर नहीं करता, जापान में सहर्ष कर लेता था। कारण? झूठी शान के अतिरिक्त, और क्या हो सकता है... कि लड़का जापान में काम करता है।

काम करता है! ...दार जी सब समझते हैं, कि काका क्या काम करता है। घर में एक वहीं तो हैं जो पम्मी की बात से सहमत हैं कि हरदीप को जापान नहीं जाना चाहिए। पर काके को बीजी की पूरी शह है। बीजी का मन तो इम्पोर्टेड सामान के साथ बँधा रहता है। फिर न जाने उन्हें इम्पोर्टेड बहू के ख़याल से क्यों डर लगता था।
डर तो पम्मी को भी था कि कहीं कोई जापानी गुड़िया उसके हरदीप को अपने जाल में न फँसा ले। हरदीप को सख्त हिदायत थी कि हर सप्ताह वह पम्मी को फ़ोन करेगा। हरदीप भी अपना वादा हर सप्ताह निभाता था।
फिर एक सप्ताह हरदीप का फ़ोन नहीं आया। पम्मी का माथा ठनका। बीजी ने झिड़क दिया, 'ना! जे एक हफ्ता फ़ोन नहीं आया तां हो की गया...मुंडा कहीं बिजी हो गया होगा। आजकल की लड़कियाँ तो अपने खसम को गुलाम बनाकर ही रखना चाहती हैं।'
पम्मी ने भी एक गुलाम की तरह चुप्पी साध ली थी। अपनी भावनाओं को दिल में ही दबा दिया था।
परंतु विदेश में बैठे हरदीप का बुख़ार उसके शरीर में दबकर रहने को तैयार नहीं था। भेद खुल जाने के डर से डॉक्टर से दवा लेने में भी नहीं जा सकते थे। दोस्त लोग मिलकर ही दवा करवा रहे थे। शरीर कमज़ोर पड़ गया था। दो कदम चलते ही चक्कर आने लगते थे। अवैध कर्मचारी को तो रोज़ के पैसे रोज़ काम करने पर ही मिलते हैं। काम नहीं तो दाम नहीं। मन ही मन हरदीप को यह चिंता भी खाए जा रही थी। बस इसीलिए कमज़ोरी की हालत में भी काम पर निकल पड़ा था।
पम्मी को हर दिन काटने को दौड़ रहा था। वह अपनी माँ से मिलने तक नहीं जा पा रही थी। अगर पीछे से हरदीप का फ़ोन आ गया तो? माँ का फ़ोन तो कई बार आ चुका था और पिता जी भी दो बार लेने आ चुके हैं। आखिरकर, पम्मी ने सेक्टर पंद्रह से अटठारह के बीच की सड़क लाँघने का मन बना ही लिया।
सड़क पार करते हुए हरदीप को ज़ोर का चक्कर आ गया। तेज़ रफ्तार से आती कार के ड्राइवर ने पूरे ज़ोर से ब्रेक लगाई थी। परंतु हरदीप के जीवन का दीप गिज़ा की व्यस्त सड़क के बीचों बीच बुझा पड़ा था।

हरदीप के साथियों में शोर मच गया। हड़कंप की-सी स्थिति थी। अवैध लाश! लावारिस! उसे लेने कौन जाए? हरदीप के दसों दोस्त भी तो अवैध थे - लावारिस ज़िंदा लाशें। जो भी लाश लेने जाएगा, वही धर लिया जाएगा। पर सतनाम के पास तो वैध वीज़ा था। वो तो हरदीप की दोस्ती के कारण सबके साथ रहता था। फिर गुज़ारा भी सस्ते में हो जाता था। सतनाम ने जाकर लाश को पहचाना। पर अब लाश का करें क्या?
ज़िंदा इंसान का हवाई जहाज़ का किराया कम लगता है, परंतु लाश को जापान से भारत भेजना बहुत महँगा सौदा बन जाता है। किसी प्रोफेशनल से लाश पर लेप चढ़वाना, ताबूत का इंतज़ाम, सरकारी लाल फीताशाही, और हवाई जहाज़ का किराया! सतनाम ने सभी दोस्तों से बातचीत की, सभी बड़े दिल वाले थे। पंजाबी ख़ून ने ज़ोर मारा और दो दिन में ही तीन लाख भारतीय रुपये के बराबर पैसा इकट्ठा हो गया। सभी दोस्तों ने अपने यार को श्रद्धांजलि के रूप में यह पैसा एकत्रित किया था।
सतनाम भारतीय दूतावास जाने की सोच रहा था। एक नया अफ़सर है, नवजोत सिंह। सुना है ख़ासा मददगार इंसान है। दोस्तों ने टोका, 'यार, यह एम्बेसी के चक्कर में न पड़ो। हिंदुस्तानी एम्बेसी वाले तो बनता काम बिगाड़ने के लिए मशहूर हैं।'
'याद नहीं पिछली बार अवतार सिंह के साथ क्या किया था।' सतनाम परेशान हो उठा, 'भाई, एक बार चलकर तो देख लें।'

सभी सतनाम की बात मान गए। आखिर इन सभी 'इल-लीगलों' में एक वही तो 'लीगल' था। गैर कानूनी ढंग से दूसरे देश में जाकर सिंह भी कैसे चूहे हो जाते हैं।
नवजोत सिंह भारतीय दूतावास में पिछले साल भर से है। पिछली बार पंजाब के एक लड़के ने आत्महत्या की थी, तब भी उसी के सिर सारा काम आन पड़ा था। उस लड़के का मृत शरीर, अभी तक नवजोत को झुरझुरी दिला जाता है।
सतनाम सिंह की बात नवजोत पूरे ध्यान से सुनता रहा। उसने सतनाम की पीठ ठोंकी, 'तुम सबने तो अपनी दोस्ती निभा ली यारो। दो दिन में तीन लाख रुपये इकट्ठे कर लिए! अब मुझे कुछ सोचना है।'
सतनाम मुँह नीचा किए खड़ा रहा। नवजोत के माथे पर पड़ते बल इस बात की घोषणा कर रहे थे कि वह गहरी सोच में डूबा हुआ है।
'एक बात बताओ सतनाम सिंह तुम कह रहे थे कि हरदीप सिंह की बीवी और एक बच्चा भी है।' नवजोत ने ठंडी साँस लेकर पूछा।
'है जी!'
'तुमसे एक बात कहूँ, तो बुरा तो नहीं मानोगे?'
'कहो न साबजी! इस परदेस में आप ही तो हमारे माई-बाप हैं।'
'सतनाम, अगर यह सारा पैसा इस लाश को हिंदुस्तान भेजने में खर्च हो गया, तो हरदीप की बीवी को क्या मिलेगा...बस एक लाश! उस पर वो अभागन क्रिया-कर्म का खर्चा करेगी, सो अलग।'
'आप कहना क्या चाहते हैं बाऊ जी?'
'अगर हम इस लाश का क्रिया-कर्म यहीं जापान में कर दें, तो इसकी अस्थियाँ तो मुफ्त में भारत भेजी जा कती हैं डिप्लोमैटिक मेल में भेज देंगे। ये पैसा उसके काम आ आएगा।'

सतनाम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गया था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था, कि उसकी प्रतिक्रया क्या हो। उसे नवजोत सिंह बहुत ही घटिया आदमी लगा, क्यों कि भावनाओं की कद्र उस इंसान में बिल्कुल भी नहीं थी। उसे नवजोत सिंह बहुत अच्छा इंसान लगा। क्यों कि वह जीवित व्यक्ति के बारे में सोच रहा है सिर्फ़ लाश के बारे में नहीं। 'बाऊ जी, आप जो ठीक समझें, वहीं करो जी।'
सतनाम ने वापस आकर सारे मित्रों को नवजोत सिंह के मन की बात बताई। सभी की आँखों में नवजोत का चरित्र पेंडुलम की तरह नायक और खलनायक के बीच झूल रहा था। बुत बने बैठे थे सब। किसी भी निर्णय पर पहुँच पाना आसान था क्या? एक राय पर सभी मित्र एकमत थे कि फरीदाबाद में हरदीप की बेवा से बात की जाए। जो वह ठीक समझे वही किया जाए।

फ़ोन की घंटी बजी। दोपहर का समय था। दार जी ने फ़ोन उठाया। जापान से फ़ोन था। दार जी की आवाज़ स्वयमेव ही ऊंची हो गई, 'हां जी! मैं उसका फ़ादर बोल रहा हूँ जी। उसकी वाईफ़ घर में नहीं है। जी! व्हाट!'
'हलो, मिस्टर सिंह! आप हमारी आवाज़ सुन रहे हैं?'
दार जी की गीली भर्राई हुई आवाज़ निकली, 'क्यों जी? काके का फ़ोन था, क्या बोला?'
'अब वोह कभी नहीं बोलेगा, भागवाने!'
'शुभ-शुभ बोलो जी! वाहेगुरु मेहर करे!'
'हरदीप दी बीबी, काका सानूं छड के चला गया। जापान वाले काके दा क्रिया-कर्म वहीं करके उसके पैसे पम्मी के नाम भेज रहे हैं।'

तूफ़ान का झोंका एक भूचाल की तरह आया। बीजी फटी हुई आँखों से अपने पति को देख रही थीं, जिसने ऑल इंडिया रेडियो की तरह अपने पुत्र की मौत का समाचार सुना दिया था। बीजी का स्यापा घर की दीवारों की सीमा पर करके पड़ोसियों के घरों तक पहुँचने लगा था। वह बदहवास हुए जा रही थीं। हरदीप के दोनों भाई भौंचक्के खड़े थे।
'पुत्तर नूं तां खा गई, हुण ओसदे पैसे बी खा जाएगी।'
'अकल दी बात कर, कुलवंत! ओस बेचारी को तो अभी तक यह भी नहीं पता कि वो विधवा हो चुकी है।' दार जी को दु:ख और गुस्से दोनों पर काबू पाना भारी पड़ रहा था।
'दार जी, भरजाई को बुलाने से पहले एक बात हम आपस में तय कर लें।'
'हमें क्या तय करना है पुत्तर जी?'
'दारजी या तो वीर जी की लाश लेने हम दोनों भाइयों में से कोई जाएगा...या फिर...!'
'बोलो पुत्तर, चुप क्यों हो गए?'
'या फिर जापान वालों से कहिए कि पैसे बीजी के नाम से भेजें।'
'पुत्तर जी, अगर तुम लाश लेने जाओगे तो क्या ख़ास बात हो जाएगी?' दार जी का गुस्सा बाहर आने को बेताब हो रहा था।
'दार जी, हम वहाँ वीर जी की जगह टोकियो में रहने का चक्कर चला सकते हैं।' कुलदीप ढिठाई से बोला।
'ओये, हरदीप की मौत से भी तुमने कोई सबक नहीं लिया?'
'चलो जी हम एक मिनट के लिए मान भी जाएँ कि काके दा क्रिया-कर्म जापान में हो जाए, तो सारे पैसे कल दी आई कुड़ी को क्यों मिलें। पुत्तर तो हमारा गया है!' बीजी ने कुलदीप के सुर में आवाज़ मिलाई।

दार जी सिर पकड़कर बैठ गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इस औरत के साथ उन्होंने इतना लंबा जीवन बिता डाला, 'ओ, जिसका खसम गया है, पहले उसे तो बताओ कि वोह बेवा हो चुकी है।'
'पर दार जी, पम्मी भाभी के आने से पहले हम घरवालों को कोई फैसला तो कर लेना चाहिए। दोबारा जापान से फ़ोन आ गया तो क्या जवाब देंगे?' यह गुरप्रीत था, सबसे छोटा।
दार जी अपने परिवार को देखकर हैरान थे, क्षुब्ध थे... अपने ही पुत्र या भाई के कफ़न के पैसों की चाह इस परिवार को कहाँ तक गिराएगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था। मन किया सब कुछ छोड़-छाड़कर संन्यास ले लें। पर अगर वे नहीं होंगे तो पम्मी का क्या होगा? यह गिद्ध तो सामूहिक भोज करने में ज़रा भी नहीं, हिचकिचाएँगे। 'पुत्तर जी आप अपणे भाई और माँ के साथ फ़ैसले करो, मैं ज़रा जाकर अपनी बहू को उसकी बरबादी की खबर दे आऊँ।'

पंद्रह सेक्टर पर गिरी बिजली को दार जी अट्ठारह सेक्टर अपने साथ ले गए। सरदार वरयाम सिंह और सुरजीत कौर के तो पैरों के नीचे से मानों ज़मीन ही निकल कई। पम्मी तो चीख मारकर बेहोश ही हो गई। बस चार-पाँच महीने ही तो बिताए थे अपने पति के साथ।
'वरयाम सिंह जी, आप जी दी क्या राय है? जापान वालों को क्या जवाब दिया जाए?'
'सरदार साहब, आप बड़े हैं, अक्लमंद हैं, दुनिया देखी है आपने। आप जो फैसला करेंगे, वोह तो ठीक ही होगा।' सरदार वरयाम सिंह के हाथ जुड़े हुए थे।
'देख भाई वरयाम सिंह, यह फैसला मैं अकेला नहीं कर सकता। मेरी हालत से तो तू अच्छी तरह वाकिफ़ है। अभी तक न जाने कैसे सब कुछ सहे जा रहा हूंफ'
'सरदार साहिब, आप जो भी फैसला करें, ज़रा पम्मी के भविष्य का ज़रूर ख़याल करें।'
'भविष्य की बात तो बाद में सोचेंगे। अभी तो पम्मी को मेरे साथ रवाना करें। घर मे सौ अफ़सोस करने वाले आएँगे।' दारजी उठ खड़े हुए।
वरयाम सिंह और सुरजीत कौर पम्मी और उसके पुत्र को लिये पंद्रह सेक्टर की ओर चल दिए। भीम बाग और जैन मंदिर पम्मी की सूजी आँखें देखकर भी चुप थे। निरपेक्ष खड़े थे।

बीजी ने सबको देखा तो उनका स्यापा और ऊँचा हो गया। दार जी ने पम्मी को अलग से बुलाया और उससे एक बार फिर वही सवाल किया। पम्मी के पास सिवाय रोने के और कोई जवाब नहीं था। दार जी के दिमाग़ में वरयाम सिंह की आवाज़ गूँज रही थी, 'ज़रा पम्मी के भविष्य का ख़याल ज़रूर करें।'
जापान से फ़ोन आया। दार जी ने फ़ोन उठाया। पम्मी की ओर देखा। पम्मी की रोती हुई आँखों में लाचारी साफ़ दिखाई दे रही थी। बीजी, कुलदीप और गुरप्रीत की आँखें और कान दार जी की ओर ही लगे हुए थे।
'हाँ जी, नवजोत सिंह जी, आप... ड्राफ़्ट परमजीत कौर के नाम से ही बनवाइएगा।...और...और अस्थियाँ थोड़ी इज़्ज़त से किसी कलश में भिजवा दीजिएगा।' दार जी के आँसुओं ने उनकी आँखों से विद्रोह कर दिया। और वे निढाल होकर ज़मीन पर ही बैठ गए।
पूरा घर तनाव से भर गया। बीजी ने पूरा घर सिर पर उठा लिया, 'ऐस कमीनी नूं तां पैसा मेरे पुत्तर तो ज़्यादा प्यारा हो गया। अपने पुत्तर दे आखरी दर्शन वी नहीं कर सकांगी। खसमां नूं खाणिये तेरा कख ना रहे।'

दार जी ने पम्मी के सिर पर हाथ फेरकर उसे कमरे में जाने को कहा। पम्मी एक लुटे-पिटे मुसाफ़िर की तरह किसी तरह अपने कमरे तक पहुँच गई।
रात को बीजी ने एक और चाल चली, 'सुणो जी, मैं एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे।'
'बोलो', दार जी की दर्द भरी आवाज़ उभरी।
'अगर कुलदीप पम्मी पर चादर डाल दे, तो कैसा रहे? घर की इज़्ज़त भी घर में रह जाएगी और...'
अस्थियाँ और बैंक ड्राफ़्ट आ पहुँचे हैं। बाहर बीजी का प्रलाप जारी है, दार जी दुखी हैं। और अंदर कमरे में पम्मी अपनी सूजी आँखों से कलश को देख रही है। उसने तीन लाख रुपये का ड्राफ़्ट उठाया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह उसके पति की देह की कीमत है या उसके साथ बिताए पाँच महीनों की कीमत।
उसका पुत्र अभी भी जुकाम से बंद नाक से साँस लिए जा रहा है।

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२८ जनवरी २००८

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