तलाश जाकर पूरी हुई सेक्टर
अट्ठारह में। बीजी के मन में थोड़ा झटका लगा। पुत्तर की पसंद
टिकी भी तो जाकर सेक्टर अट्ठारह में। भला पंद्रह सेक्टर वाले
अट्ठारह वालों के घर रिश्ता लेकर जाएँ तो कैसे! बात बड़ी
सीधी-सी है - सेक्टर पंद्रह है कोठियों और बंगलों वाला
सेक्टर... हर बंगले में कम से कम एक कार तो है ही और सेक्टर
अट्ठारह में हैं हाउसिंग बोर्ड के दो कमरों वाले मकान। बीजी
सोच में पड़ गईं। बीजी
सोचते-सोचते ही सेक्टर अट्ठारह में पहुँच गईं। भला-सा घर! सीधे
सादे लोग! छोटा-सा परिवार! सरदार वरयाम सिंह, पत्नी सुरजीत
कौर, परमजीत और छोटा भाई सुखविंदर! बस इतना ही परिवार। दीवार
पर गुरु नानक देव और गुरु गोबिंद सिंह के चित्र और लाल कपड़े
में लिपटा गुरु ग्रंथ साहिब परिवार के आस्तिक होने का ऐलान कर
रहे थे। बाहर गुरुद्वारे के लाउडस्पीकर पर आवाज़ आ रही थी,
'श्लोक महल्ला पंजवां... अपने सेवक की आपे राखे... आपे नाम
जपावे... जहाँ-जहाँ काज किरत सेवक की।' बीजी को लगा ऐसे समय
में यह श्लोक उनकी सफलता का ऐलान है। परमजीत उस दिन कालेज नहीं
गई थी। उसे हल्का-सा बुखार था।
बुखार में जो लड़की इतनी सुंदर
लग सकती है, वो सजने-सँवरने के बाद क्या लगेगी! वरयाम सिंह और
सुरजीत कौर प्रसन्न कि उनकी बेटी विवाह के बाद नज़दीक भी रहेगी
और रहेगी भी सेक्टर पंद्रह में। होने वाला जमाई जापान में काम
करता है। माता-पिता के लिए इतना ही काफ़ी था। उन्हें हाँ करने
में देर ही कितनी लगनी थी। वे दोनों भी कन्यादान कर स्वर्ग में
अपना स्थान पक्का करने की योजना बनाने लगे।
परमजीत को तो कन्यादान शब्द
से ही वितृष्णा हो उठती थी। दान वाली वस्तु बनना उसे गवारा
नहीं था। इसीलिए विवाह कचहरी में करना चाहती थी। परंतु शादी
विवाह के मामले में बेटियों को नहीं बोलना चाहिए। संभवत:
इसीलिए परमजीत बोलना चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई। और 'लाल सूट
वाली कुड़ी' लांवा फेरे लेकर, ज्ञानियों के श्लोकों पर सवार
होकर सेक्टर अट्ठारह से पंद्रह के बीच की सड़क लाँघ गई। रास्ते
में भीम बाग और जैन मंदिर उसके विवाह के मूक साक्षी बने खड़े
थे।
साक्षी बनने के लिए बिजली
तैयार नहीं थी। इसीलिए तो जब घर पहुँचे तो बत्ती नदारद थी।
फरीदाबाद में बिजली तो हर रोज़ गुल हो जाती है, दिन में लगभग
चार से छह घंटे तो बत्ती के बिना बिताने ही पड़ते हैं। 'साढ्ढे
घर बिजली दी की ज़रूरत है जी, साढ्ढी तां बहू ही ऐनी चमकीली है
कि सारा घर उजला होया पाया है।' बीजी अपनी खुशी छिपा नहीं पा
रही थीं।
उजली बहू तो आज भी घर में है।
पर आज घर में गहरा काला अंधेरा छाया हुआ है। बीजी अपने कमरे
में रो-रोकर आँखें सुजा रही हैं। तो हरदीप के दोनों भाई अपनी
भाभी को पत्थर दिल करार दे रहे हैं। चुप हैं तो केवल दार जी!
दार जी ने सदा ही पम्मी को पिता का-सा प्यार दिया है। वास्तव
में उनका व्यवहार सरदार वरयाम सिंह के साथ समधियों जैसा रहा ही
नहीं, दोनों ऐसे दोस्त बन गए, जैसे वर्षों से एक-दूसरे को
जानते हों। निकले भी तो पड़ोसी ही। सरदार वरयाम सिंह मौड़ मंडी
के रहने वाले थे और दार जी का बचपन मानसा में बीता था। भला
मानसा और मौड़ में दूरी ही कितनी थी! बस इतनी ही दूरी फरीदाबाद
में भी थी। किंतु हरदीप तो बहुत दूर चला गया था। हरदीप को दूर
जाने का शौक भी बचपन से ही था। उसके ताऊजी जब से आस्ट्रेलिया
जाकर बस गए थे तब से हरदीप के मन में बस एक ही साध थी कि कहीं
विदेश में जाकर ही बसना है। पर पढ़ाई-लिखाई में तो उसका मन लगता
ही नहीं था। बस, किसी तरह दार जी के रसूख से हर वर्ष पास हो
जाता था। परंतु हायर सेकंडरी में तो बोर्ड की परीक्षा होती है।
वहाँ तो रसूख नहीं चलता है ना! बस, उसी साल थोड़ी मेहनत की थी।
बी.ए. की डिग्री तो कुकुरमुत्तों की तरह उगे किसी 'पब्लिक
कालेज' से ख़रीद ली गई थी।
ख़रीदने को तो दार जी नौकरी भी
ख़रीद देते। परंतु हरदीप को तो न नौकरी करनी थी और न ही दार जी
के व्यापार में हाथ बँटाना था, उसे तो किसी भी तरह विदेश जाना
था...बस... वहाँ जाना था... पैसा कमाना था और ऐश की ज़िंदगी
जीनी थी। उन्हीं दिनों एअरलाइन में उड़ान परिचारकों की नौकरी
निकली थी। विदेश की सैर का खुला न्यौता! हरदीप को कहीं से भनक
लग गई कि पगड़ी-धारक सिखों को यह नौकरी नहीं मिल सकती... बस! कर
आया केशों का अंतिम संस्कार! कर दिया दार जी की भावनाओं का
खून! हो गई नौकरी की तैयारी!
पर क्या नौकरी ऐसे मिलती है?
लिखित परीक्षा देनी होती है, पास करनी पड़ती है... साक्षात्कार!
या फिर तगड़ी सिफ़ारिश। हरदीप के पास तो कोई भी अस्त्र-शस्त्र
नहीं था इसलिए कोई भी बाधा लाँघ नहीं पाया। पहली ही सीढ़ी से
फिसल कर गिर पड़ा।
आज पम्मी न जाने कितनी सीढ़ियों से नीचे गिर पड़ी है। उसमें उठकर
बैठने की ना तो ताक़त ही है और ना ही हिम्मत! ऐसा कैसे हो जाता
है? एक ही घटना आप के समूचे जीवन को कैसे तहस-नहस कर देती है।
जिजीविषा बहुत निर्दयी वस्तु होती है। इंसान को जीवित रहने के
लिए मजबूर करती रहती है। वरना क्या आज पम्मी के पास जीने का
कोई बहाना है। उसके जीवन पर छाया अंधेरा तो और भी विकराल होता
जा रहा है।
अंधेरे में जीने का अभ्यास है
पम्मी को! तभी तो बीजी की कटु बातें और देवरों का निर्दयी
व्यवहार भी उस अंधेरे को चीर कर उसे क्षत-विक्षत नहीं कर पा
रहे हैं। 'मैं तां पहले ही कहन्दी सी, कुड़ी मंगली है। ऐथे
ब्याह नहीं करणा! मेरी तां कदी कोई सुणदा ही नहीं!' बीजी का
विलाप जारी था।
'ना, उसके माँ पयो ने कुछ छुपाया था क्या? साफ़-साफ़ बोल दिता था
कि हमारी कुड़ी तां मंगली है। ओस वक्त तो तेरे काके ने ही कह
दिया था कि वोह इन बातों को माणता ही नहीं। फिर आज किस बात की
शिकैत है?'
'मेरा तां पुत्तर चला गया! तुसी मैंनूं ही लेक्चर दे रहे हो?'
'ओये जे तेरा पुत्तर गया है तो, ओस अभागन का भी तो खसम चला
गया! ओय सोच भागवाने, विधवा का जीवन किसी को चंगा लगदा है?'
'हाय ओये, कुड़ी न निकली, डायण निकली, लोको! माँ पयो ने अपनी
डायण हमारे हवाले कर दिती...हुण मैं की करां जी?'
'करणा क्या है, बस अपणी बहु नू सँभालो! ....हरदीप की निशाणी है
उसदे पास... निक्के बच्चे नूं उसने संभालणा है।...मैं तो कहता
हूँ...!' और दार जी चुप्प हो गए।
'की कहंदे हो...। कुछ बोलो तां सही!'
'मैं तो कहता हूँ... असी आप ही थोड़े वकत के बाद कुड़ी दा दूसरा
ब्याह कर दें। कुड़ी दा जीवन संवर जाएगा...ते साड़ी इज़्ज़त रह
जाएगी।'
'हाय ओये रब्बा! कैसा बाप है एह बंदा! ...अभी पुत्तर नूं मेरे
हफ्ता नहीं होया, ते बहू दे दूजे ब्याह दी गल करदा पया है!
...हाय ओये!'
'अपणे बैण बस कर! पम्मी की तरफ़ ध्यान दे।' दार जी का धैर्य
चुकता जा रहा था।
पम्मी अब भी उस कलश को ताके
जा रही है जो मरा है, उसकी राख इसी कलश में पड़ी है। मरने वाला
मरा भी तो जापान जाकर। 'काका, जा पान लै आ !' बीजी की बात
सुनकर पम्मी की हँसी छूट गई थी। भला उनका काका पूरा जापान कैसे
ला सकता है! किंतु आज तो उसी जापान ने उनके काके को और पम्मी
के हरदीप को पूरे का पूरा निगल लिया था।
जापान जाने की हठ भी तो हरदीप की ही थी। कोई पक्की नौकरी तो
वहाँ थी नहीं। फिर भला क्या आवश्यकता थी वहाँ जाने की। विवाह
से पहले पम्मी को यह कहाँ बताया गया था कि काका अवैध तरीके से
जापान जाता है और दो-तीन वर्ष वहाँ बिताकर, जेबें भरकर, वापस आ
जाता है।
'क्यों जी, आप ऐसा 'इल-लीगल' काम क्यों करते हैं। अगर कभी पकड़े
गए तो?'
'ओय झलिल्ये, जब तक रिस्क नहीं लेंगे, तो यह ऐशो आराम के सामान
कैसे जुटाएँगे। यह सारी इम्पोर्टड चीजें कहाँ से आएँगी?'
'मुझे इन चीज़ों में कोई दिलचस्पी नहीं जी! आप बस यहीं रहिए
जी! हम बस अपनी दाल-रोटी में ही खुश हैं।'
'तो, आदरणीय पम्मी जी, तुसी दाल-रोटी विच खुश रहो। ते बस आह ही
खांदे रहो! सरदार हरदीप सिंह दाल-रोटी में खुश रहने के लिए
नहीं पैदा हुआ!'
'नहीं जी, मैं अब आपको वहाँ नहीं जाने दूँगी। आप एक बार तो
वहाँ हो ही आए हैं। शौक तो पूरा हो ही चुका है, फिर दोबारा
जाने की क्या ज़रूरत है? यहाँ दार जी का अच्छा-भला बिजनेस
है... वही सँभालिए।'
'ओये तुम जनानियों को मर्दों की बातों में दखल नहीं देना
चाहिए। तुम अपना घर सँभालो। बस पैसे कमाना हम मर्दों का काम
है। वोह हमारे ऊपर ही छोड़ दो।'
बुरी तरह से आहत हो गई थी पम्मी! उसने अंग्रेज़ी साहित्य में
पढ़ाई इसलिए नहीं की थी, कि घर के आँगन में गाय की तरह बँधी खड़ी
रहे और पति अपनी मनमानी करता रहे। पम्मी अपने पति के हर काम
में बराबर की भागीदार होना चाहती थी...उसे अपने काम में
भागीदार बनाना चाहती थी। उसकी ताक़त बनना चाहती थी पर काका तो
दार जी और बीजी की कमज़ोरी था, वोह भला एक कमज़ोरी की ताक़त कैसे
बन पाती?
ताक़त की तो पम्मी में कोई कमी नहीं... उसका चरित्र इतना
शक्तिशाली है कि वह किसी भी मुसीबत का सामना करने में सक्षम
है। परंतु जब से हरदीप ने उसे बताया है कि वह किस तरह अवैध
तरीके से टोकियो पहुँचता है, तो उसकी शक्ति भी जवाब देने लगी
थी।
'बड़ी सीधी-सी जुगत है पम्मी! तीन वर्ष पहले भी चल गई थी; अब की
बार भी चल जाएगी। अपना एजेंट हमें दिल्ली से बैंकाक तो अपनी
देसी एअरलाइन से भेजेगा। वहाँ से सिडनी का टिकट बनवाएगा, वाया
टोकियो। टोकियो में आठ घंटे का ट्रांज़िट हॉल्ट होगा... बस, उसी
आठ घंटे में अपना एजेंट हमें एअरपोर्ट से बाहर निकाल कर ले
जाएगा। मैं पहुँच जाऊँगा टोकियो में अपने अड्डे पर!'
'मुझे तो डर लगता है जी!'
'ओये, मैं वहाँ कोई अकेला थोड़े ही होऊँगा। कितने लड़के
पाकिस्तान से होते हैं, कितने बंगलादेशी, और कितने अपने पंजाबी
भाई। यही नहीं फिलीपीन और कोरिया वाले भी 'इल-लीगल' होते हैं।'
'पर होते तो 'इल-लीगल' ही हैं न जी!'
'ओ तू यहाँ कानूनी और ग़ैर-कानूनी के चक्कर में पड़ी है और मुझे
अपनी ज़िंदगी बनाने की फिक्र है।'
पम्मी को तो कुछ समझ ही नहीं
आ रहा था। उसके पल्ले तो यह बात ही नहीं पड़ रही थी कि इतने
पचड़ों में पड़कर जापान जाने की ऐसी मजबूरी क्या है? क्या इसी को
ज़िंदगी बनाना कहते हैं? पर... काका तो बहुत अकलमंद है न...
पिछली बार ही पाँच लाख बचाकर लाया था, इम्पोर्टेड चीज़ें अलग।
भला सफल आदमी भी कभी ग़लत हुआ है! किसकी मजाल जो सफलता को उसकी
कमियाँ बता सके? फिर पम्मी ही भला कैसे अपने हरदीप को समझा
सकती थी!
उल्टा हरदीप ने ही उसे समझा दिया था। हरदीप के समझाने का नतीजा
भी महीने भर में सामने आ गया था। शर्म से लजाकर पम्मी ने बताया
था कि उसका जी खट्टा खाने को करने लगा है। दार जी तो बच्चों की
तरह भंगड़ा पाने लगे थे। बीजी ने बलैयाँ ली थीं, बहू को काला
टीका लगाया... उसकी नज़र उतारी... गुरुद्वारे ले जाकर माथा
टिकवाया... घर में अखंड पाठ रखवाया। अबकी बार बीजी ने भी
पुत्तर को समझाने की कोशिश की थी, 'पुत्तरा, कुड़ी दा पैर भारी
है। मेरी गल मन, ऐस वार नां जा...पहला बच्चा है, तूं साथ
होएंगा, तां कुड़ी चंगा महसूस करेगी।'
'बीजी, कोई निक्की बच्ची थोड़े ही है पम्मी! फिर आप हो, दार जी
हैं ने, दो छोटे वीर ने, कोई इकल्ली थोड़ी है।'
'पुत्तरा असी सारे बेगाने! उसका अपणा तो बस, तू ही है।'
कितना सच कहा था बीजी ने! आज
हरदीप की मौत के बाद सब बेगानों का-सा व्यवहार ही तो कर रहे
हैं। हरदीप तो बेटे का मुँह देखे बिना ही चलाना कर गया।
'पम्मी, इंसान अपने भविष्य के लिए क्या कुछ नहीं करता! दिल
छोटा नहीं करदे पगली!'
'पता नहीं क्यों जी, मेरा तो दिल ही नहीं मानता कि आप जापान
जाओ। मेरी तो बस यही तमन्ना है कि जब अपना बच्चा पैदा हो, तो
सबसे पहले आप ही उसका चेहरा देखें।'
चेहरे कैसे दूर चले जाते हैं। गायब हो जाते हैं। पम्मी की माँ
जचगी के लिए अपनी बेटी को अपने घर ले गई थी। आजकल घर में कहाँ
बच्चे पैदा किए जाते हैं? दाइयाँ तो केवल कहानियों में रह गई
हैं... या फिर पिछड़े हुए गाँवों में। शहरों में तो बच्चे
नर्सिंग होम में ही पैदा होते हैं। मायके वाले तो बस पैसे
खरचते हैं, परेशानी उठाते हैं ताकि होने वाला बच्चा उनके जमाई
के नाम को आगे बढ़ा सके। पम्मी का पुत्र अपने पिता की
अनुपस्थिति में ही इस दुनिया में आ गया था। |