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अनन्या इस बार जब क्लास में आई तो बताने लगी कि विषय का निर्णय उसने ले लिया है पर वह मेरे सुझाए विषय को नहीं लेना चाहती और अपनी मर्ज़ी से काम करना चाहती है। मुझे उसकी यह बात अजीब-सी लगी पर कुछ कहना भी ठीक नहीं लगा। वह परेशान-सी भी थी। मुझसे पूछने लगी कि विभागाध्यक्ष हिंदुस्तान के खिलाफ़ लगते हैं तो मैंने कह दिया कि नहीं ऐसी कोई बात नहीं। उसे मेरी असहमति अच्छी नहीं लगी। क्लास के बाद मुझसे बोली, ''इस क्लास में मैं कुछ सीखती नहीं, क्या आपके साथ इंडिविजुअल स्टड़ीज़ कर सकती हूँ।''

आधा सेमिस्टर बीतने को था और यों भी कोर्स कुछ आसान नहीं था। मुझे लगा वह बेबात ही ऐसा कर रही है क्योंकि इस क्लास में कम से कम आधे छात्र उसके स्तर के थे। मैंने कहा, ''बात सिर्फ़ पढ़ने की ही नहीं, दूसरों के साथ विचारों के आदान-प्रदान की भी है। क्लास में रहोगी तो यह सब सहज होगा। यों इस सेमिस्टर मेरे पास अलग से वक्त निकालना भी मुमकिन नहीं होगा।''

फिर मैंने ग़ौर किया तो पाया कि क्लास में वह किसी से ज़्यादा बात नहीं करती थी। दूसरे छात्र आपस में काफ़ी मैत्रीभाव रखते थे, पर यह उनसे अलग-थलग ही रहती।
एक दिन क्लास में औरतों के विषय पर बात होने लगी। ज़्यादातर विद्यार्थी भारत में औरतों के हालात पर शोक प्रगट कर रहे थे। अनन्या को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। वह बोल पड़ी, ''ऐसा क्यों है कि हम जब भी भारत के बारे में बात करते हैं तो उसकी बुराई ही करते हैं जबकि भारत में तो औरतों की समस्या है ही नहीं।''

उसका यह कहना सभी को चौंका गया। सवालों की बौछार होने लगी कि ऐसा कैसे कह सकते हैं। अनन्या कहती गईं, ''भारत में औरतें आज़ाद हैं, वे जो चाहे करती हैं, मेरी सारी बुआ या मौसियाँ डॉक्टर-इंजिनीयर या प्रोफ़ेसर हैं। कोई उन्हें मन का काम करने से रोकता नहीं, सब औरतों की इज़्ज़त करते हैं। उनके साथ विनम्रता से पेश आते हैं, उनकी भावनाओं की क़दर करते हैं, उनकी पूजा करते हैं। औरतों की समस्या सिर्फ़ इस देश में है, यहाँ औरतों की कोई इज़्ज़त नहीं। उन्हें कमअक्ल, नीचा और ग़ैरज़रूरी समझा जाता है, वे यहाँ सिर्फ़ सेक्स का ऑब्जेक्ट मानी जाती है, इससे अलग उनकी कोई जगह नहीं।''

क्लास के दूसरे अमरीकी छात्र उसकी बात से भड़क गए। एक छात्रा बोली, ''तुम बात क्या करती हो! भारत में तो औरते न अपनी मर्ज़ी से शादी कर सकती है न कहीं आ जा सकती है। पहनने ओढ़ने की इतनी छोटी-छोटी बातों पर जहाँ पहरे लगे हैं वहाँ तुम औरत को आज़ाद कहती हो!''
फिर सबके थैलों में से हिंदुस्तानी औरतों से जुड़ी एक-एक करके अनेकों समस्यायें निकाल कर मेज़ पर धरी गई, सती-प्रथा, बलात्कार, पति द्वारा प्रताड़ना, दहेज-हत्याएँ, विधवा-विडंबना।
एक दूसरी छात्रा बोली, ''भारत में तो लड़की के कुमारी होने को इतनी अहमियत दी जाती है कि उसके बिना शादी तक होना मुश्किल है, जबकि आदमी खुद जिस किसी से जो कुछ भी करे।''
अनन्या बोली, ''नहीं अब ऐसा नहीं है म़ुझसे बहुत से लड़के शादी करना चाहते थे पर मैं तो कुमारी नहीं।''
''पर क्या तुमने बता दिया था कि तुम कुमारी नहीं हो, ज़रा बताकर तो देखती।''
''ख़ैर! ऐसा कोई सवाल तो उठा ही नहीं वर्ना बता देती और मुझे नहीं लगता कि उससे कुछ फ़र्क पड़ता।''
वह कुछ ढीली पड़ी। फिर भी अपनी बात पर अड़ी रही।
''मैं यह नहीं कहती कि भारत में कोई समस्या है ही नहीं पर ज़्यादा समस्याएँ अमरीका में हैं। यहाँ कहीं ज़्यादा बलात्कार होता है, कहीं ज़्यादा घरेलू हिंसा की शिकार औरतें होती हैं। पर जब अमरीका के बारे में हम बात करते हैं तो यहाँ की तरक्की, उच्च शिक्षा और अमारत की बात करते हैं और जब भारत की बात हो तो हमेशा कोई न कोई नकारात्मक पक्ष ही उठाया जाता है। क्या मैं पूछ सकती हूँ कि ऐसा क्यों होता है?''

वह बात कहते-कहते बहुत आवेश में आ गई थी कि क्लास में अचानक बड़ी अटपटी खामोशी छा गई। अब मेरा दखल ज़रूरी था।
अनन्या की इस बात से मैं खुद सहमत नहीं थी कि हिंदुस्तान में औरतों की समस्या है ही नहीं। मैंने कहा, ''देखो अनन्या आत्मालोचन आत्मविकास की ही एक प्रक्रिया है। इसलिए आलोचना को नकारात्मक मान उससे दूर भागना कोई अकल की बात नहीं। दूसरे यह कहना कि भारत में औरतें आज़ाद हैं और मनमर्ज़ी से जो चाहे करती हैं तो वह भी ग़लत है। अभी तुमने भारत को देखा ही कितना है। एक बार वहाँ रहने लगोगी तो औरतों की असली हालत पता लगेगी। तुम्हारी यही मौसियाँ और बुआएँ तब तुम्हें अंदरूनी सच्चाइयाँ बतलाएगी।''

मेरी बात एक तरह से उस विवाद में हार-जीत का अंतिम फ़ैसला सुना रही थी। मैंने देखा अनन्या के चेहरे पर अचानक मुर्दनी सी छाने लगी है। जैसे कि एक ही व्यक्ति जिस पर उसे भरोसा था उसने भी उसका साथ न दिया था और अचानक वह एकदम अकेली पड़ गई थी। वह उठ खड़ी हुई, ''मुझे आज जल्दी जाना है, माफ़ कीजिएगा मैं चलूँगी।''
मुझे जैसे कुछ ध्यान हो आया कि वह कह रही थी एक बजे उसे कहीं जाना है पर अभी तो साढ़े बारह ही थे।
''पर तुमने तो एक बजे जाना था न?''
वह कुछ परेशान सी बोली, ''ओह! एक बजे जाना था, तो एक नहीं बजा लेकिन मुझे तो जाना है।''
वह कमरे से बाहर हो गई तो एक लड़की ने कहा, ''बड़ी अजीब-सी लड़की है यह! क्या आप इसे जानती हैं?''
यों अनन्या का प्रस्थान अजीब तो सभी को लगा था पर इस वजह से उसका खुद यह विशेषण बन जाना मुझे भाया नहीं था।
''अजीब तो नहीं। कुछ अपने ही ढंग से सोचती है यह लड़की। आज शायद कुछ डिस्टर्ब-सी थी, क्या जाने क्या कुछ होता रहता है तुम जवान लोगों की दुनिया में।''
और मेरा आख़िरी वाक्य जिस अंदाज़ से कहा गया था, सब मंद-मंद मुस्कुरा पड़े। पर कहने के बाद मैं खुद ही कुछ उदास हो आई थी। मन में कुछ कचोटता-सा रहा जबकि वजह बहुत साफ़ नहीं थी।

अनन्या अगली क्लास में फिर नदारद थी। उसके बाद वाली क्लास में वह कुछ देर से आई थी। पर जो हाल उसने अपना कर रखा था अगर सड़क पर मिल जाती तो मैं पहचान भी न पाती। बाल एकदम बिख़रे जैसे कि दिनों से कंघी न फेरी गई हों। चेहरा मैला और बुसा-बुसा-सा जैसे कि चार दिन से धोया न हो। और सबसे ज़्यादा हैरानी की बात तो यह थी कि उसने सर से पैर तक काले कपड़े चढ़ाए हुए थे, काली स्कर्ट, काला ब्लाउज़ और काले ही स्टाकिंग्ज़ और बूट। जबकि हिंदुस्तान से लौटने के बाद से उसे खिले रंग पहने ही देखा था। उसने एक बार खुद मुझसे यह कहा था कि सारी हिंदुस्तानी लड़कियाँ जब खूबसूरत, आकर्षक और स्मार्ट लगना चाहती हैं तो काला लिबास पहनती हैं। उन पर काला रंग फबता भी है और एक अमरीकी ढंग का अभिजात सौंदर्य आ जाता है। इसलिए अगर किसी पार्टी में जाइए तो ९० प्रतिशत अमरीकी-हिंदुस्तानी लड़कियाँ काले रंग की ही अलग-अलग किस्म की पोशाकें पहने होगी। पर वह उस भेड़चाल में शामिल नहीं होना चाहती थी। और भारत जाने के बाद उसे विकल्प मिल भी गया था। अब उसके पास बेशुमार खिले रंगों के पहनावे थे। दूसरी हैरानी की बात यह थी कि वह कोकाकोला की बोतल मुँह में लगा चुस्कियाँ ले रही थीं जबकि मुझे याद था कि मेरे घर पर इसने कोक पीने से इंकार कर दिया था और कहती थी कि वह सिर्फ़ चाय या जूस ही पीती है, कोक या दूसरे सोडेवाले अमरीकी पेय नहीं पीती।

वह सबसे पीछे चुपचाप बैठ गई थी। मैंने अपने-आप से कहा कि क्लास ख़त्म होने के बाद ज़रूर इससे बात करूँगी। इसका यह व्यवहार कुछ सहज नहीं लगता।
क्लास ख़त्म होने में अभी आधा घंटा बचा था कि वह झटके से उठी और सीधे दरवाज़े की राह ली। इससे पहले कि मैं कुछ कहती वह हवा के तेज़ झोंके की तरह मेरी कक्षा की हद के बाहर हो चुकी थी। मैंने सोचा इसका मूड कुछ ऑफ लगता है आज। शायद क्लास में उतनी सहज नहीं। घर से खुद ही मुझे फ़ोन करेगी नहीं तो चलो अगली क्लास में बात करूँगी। छात्र जब तक खुद न मदद मागे, उनके व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप यों भी उचित नहीं।

ऐसा तो मैं कभी नहीं सोच सकती थी कि वही क्लास उसके लिए मेरी आख़िरी क्लास थी। सोच पाती तो चाहे उसी दिन उसे रोक लिया होता।
उसके बाद तो बस फ़ोन पर फ़ोन! बस आवाज़ों का ही एक लंबा सिलसिला।
अनन्या ने ही मेरी आँसरिंग मशीन पर संदेश छोड़ा हुआ था, ''प्लीज़ प्रोफ़ेसर वर्मा! इस क्लास में मैं सच में कुछ नहीं सीखती। क्या मैं आपसे अलग से नहीं मिल सकती? भारत जाकर मैंने बहुत कुछ सीख लिया है, इन सब क्लास के लोगों को कुछ नहीं पता। ये लोग कुछ नहीं समझते, न समझना चाहते हैं। सब एक ही तरह से बात करते हैं, बस एक एटीट्यूड सा बना है भारत के बारे में। मैं आपको दुबारा फ़ोन करूँगी, मुझे इस बारे में आपसे बात ज़रूर करनी है।''

फिर एक फ़ोन था विभागाध्यक्ष का। फ़ोन उठाते ही बरसे थे स्वर।
''तुम्हें पता है कल क्या किया इसने। एकदम नाइटगाऊन में नंगे पैर चली आई मेरे ऑफ़िस, ऊँचा-ऊँचा चिल्लाने लगी। मैंने कुछ कहा तो मुझ पर हमला करने लगी, हाँ मेरे शरीर पर हमला, मैंने तुम्हें कहा था न शी इज स्किटज़ोफरैनिक, शी इज़ सिक।''
''किसकी बात कर रही हैं आप, मैं कुछ समझी नहीं।''
''अरे उसी अनन्या की! और किसकी! ये तो शुक्र करो कि मेरी एक छात्रा मेरे पास बैठी थी। वही बीच में आ गई वर्ना इसने तो मुझे मार डालना था। पता नहीं हो क्या गया है इसे, सोचो तो, ठंड में नंगे पैर, सड़क पर नंगे पैर क़हती है कि हिंदुस्तान में हज़ारों लोग नंगे पाँव चलते हैं, इसमें बड़ी बात क्या है। हर वक्त इंडिया और अमरीका की तुलना करती रहती है। पता नहीं क्या फितूर भर गया है इसके दिमाग में! तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा व्यवहार नहीं किया इसने?''
''इधर कुछ फ़र्क तो दिख रहा था उसके बर्ताव में। उस दिन क्लास से बिना कुछ बताए उठकर चली गई लेकिन ऐसा कुछ अवांछित व्यवहार तो नहीं।''
''अरे मैं कहती हूँ वो लड़की पागल है, मेरे पीछे पड़ गई कि मैं इंडिया का अपमान करती हूँ। इंडियन्स के लिए मेरे मन में इज़्ज़त नहीं कि सारे अमरीकी इंपीरियलिस्ट और रेसिस्ट है, मैं कहती हूँ पढ़ाई वगैरह उसके बस की नहीं।''
''अभी वह है कहाँ।''
''वहीं जहाँ उसे होना चाहिए था, दफ्तर से निकल कर सुना है उसने टैक्सी ली थी, टैक्सी वाले से बोली कि एयरपोर्ट ले चलो। वह कोई भलामानुस था, उसका पहनावा, नंगे पैर वगैरह देख कर समझ गया कि हालत ठीक नहीं सो सीधे हस्पताल ले गया, अभी वही दाखिल है। उसके माँ बाप को इत्तला दे दी गई है।''

एक फ़ोन डीन का था, ''अब वह कैंपस पर नहीं रह सकती, अगर आप सोचती है कि वह काम कर सकती है तो अपने घर से ही काम करके भेज दे। यहाँ उसका रहना ख़तरे से खाली नहीं। उसने प्रोफ़ेसर फिशर पर हमला किया है, वह किसी के लिए भी खतरनाक हो सकती है।''
मैं कहती रहती हूँ, "पर ऐसा तो कुछ मुझे लगा नहीं था, वह ठीक से ही काम कर रही थी और सामान्यत: बड़ी मेधावी और मेहनती है, यह सब..."

लेकिन मेरी बात का असर नहीं होता। जिस पर एक बार संदेह का धब्बा लग गया अब जाने क्या कुछ करना होगा संदेह मिटाने को। उल्टे और भी बढ़ी-चढ़ी कहानियाँ क़्या पता कब आक्रामक हो जाए, दौरा पड़ जाए। यों मैं खुद भी दावे के साथ क्या पैरवी कर सकती थी। मैं तो बस हैरान परेशान थी कि कितना कुछ उसके भीतर घट रहा था जिससे मैं इस कदर अनजान रही, बहुत कुछ देखकर भी कितना कुछ नहीं देख पाई!
विभागाध्यक्ष का फिर फ़ोन, ''उससे कुछ नहीं होगा, पढ़ाई करना उसके बस की बात नहीं, आई डोंट थिंक यू शुड वेस्ट योअर टाईम।''

मेरी कुछ समझ नहीं पड़ता है। अस्पताल में उसके माँ बाप के इलावा और कोई नहीं मिल सकता।
अब उसकी माँ बैठी है मेरे सामने! क्षुब्ध, त्रस्त। अंगारे सी जलती और जला देने को आतुर!
''आप काम बता दीजिए न, मैं सारा काम करवा लूँगी, वह ठीक हो जाएगी। इस प्रोफ़ेसर फिशर ने उस पर इतना दबाव डाला कि दो हफ्ते के अंदर-अंदर उसे थीसिस ख़त्म करना ही है। बस काम का प्रेशर बढ़ जाने से इसका ब्रेकडाउन हो गया है, डॉक्टर कहता है कि तीनेक महीने में वह एकदम दुरूस्त हो जाएगी और कालेज का काम कर सकेगी। आप बस इतना कर दीजिए कि कल ही सारे मैटेरियल की फ़ोटोकापी बना कर दे दीजिए। आगे मैं सँभाल लूँगी।''

उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि बेटी की मौजूदा हालत के बारे में मुझे कितना बताए या मुझसे कितना छुपाए, ना ही उसे यह अंदाज़ा था कि मुझे कितना मालूम है या नहीं मालूम। इस वक्त उसकी एक ही वृत्ति थी कि किसी तरह उसकी बेटी को डिग्री मिल जाए। बेटी को सचमुच में क्या हुआ है इस पर ग़ौर करने से भी ज़्यादा बी.ए. की डिग्री की फ़िक्र थी उसे।

मन उदास-सा हो गया। लगा कि यहाँ से घर जाकर भी क्या दुरूस्त हो पाएगी वह! उसकी माँ कहे जा रही थी, ''मैं तो पहले ही नहीं चाहती थी कि इतनी दूर न्यूयार्क में आकर पढ़ाई करे, मेरे पास होती तो अब तक बी.ए. ख़त्म कर चुकी होती, इसी की ज़िद थी आने की, अब तो यहाँ कभी नहीं भेजूँगी।''

मुझे बार-बार बस एक ही बात ध्यान आती रही कि उस दिन उसने काला लिबास क्यों पहना था और जो पहना था तो अगले ही दिन वह प्रोफ़ेसर फिशर के कमरे में इस तरह से लड़ने क्योंकर पहुँच गई। किस हक से लड़ रही थी, एक अमरीकी के हक से या कि अमरीका में रहने वाले हिंदुस्तानी हक से! या कि कुछ और ही गणित था उसका, तर्क से परे हम सबकी समझ से परे, डीन, प्रोफ़ेसर फिशर या इस समाने बैठी उसकी माँ की आवाज़ों के परे...

एक व्यक्ति क्या कुछ हो सकता है, कितने-कितने तरह के शब्दों में बँधा-तुला, कितनी-कितनी किस्म की आवाज़ों में कैद। यह मेरी समझ की कमी है या उन आवाज़ों की जिनसे मैं आज बुरी तरह से घिर चुकी हूँ, आवाज़ों के ये टुकड़े उन बर्फ़ के ओलों की तरह है जो अर्थ बनने से पहले ही पिघल कर तबाह हो जाते हैं और मैं सुनती हूँ सिर्फ़ उस टूटने को, उस चिथड़ा-चिथड़ा होती हस्ती को जो अपनी ही कोई आवाज़ बुन रही है, बस डर लगता है कि आवाज़ बुने जाने से पहले ही कहीं टूट-बिखर न जाए।

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दिसंबर २००६  

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