उसकी खनखनाती हँसी कमरे भर की
किताबों और तस्वीरों पर चिपकी हुई थी। यों उस कमरे में हँसी
कोई आम बात नहीं थी। सभी ओढ़े हुए, डरे हुए या कुछ और हुए होते
थे। ख़ास तौर से नए-नवेले छात्र। पर वह यहाँ आते ही एकदम सहज
हो उठती थी। वह मुझसे कहती भी थी, "आपका दफ़्तर इस पूरी
यूनिवर्सिटी से अलग है। हिंदी की किताबें, तस्वीरें ब़ड़ा
अपना-अपना-सा लगता है यहाँ आकर!''
अब कुछ-कुछ
वैसा ही चेहरा उम्र के बीस-पच्चीस अधिक साल लपेटे मेरे सामने
बैठा था। पर अनन्या से कितना फ़र्क। जिस तरह बाँह के दोनों
जोड़ों में मुठि्ठयाँ घुसाए तनी हुई बैठी थी ये महिला, अनन्या
तो कहीं दूर से भी इससे जुड़ी नहीं दिखती! वह तो या खड़ी रहती
थी या आराम से कुर्सी पर पसर जाती। पर मैं जानती हूँ कि सामने
बैठी महिला अनन्या की माँ है और इसीलिए वह मुझसे मिलने आई है।
माँ जब मजबूर
हो जाती है तो किसी के आगे भी झुकने या लड़ने को तैयार हो जाती
है वर्ना जब तक मजबूरी का अहसास नहीं हो जाता तब तक वह चाहे
अपने वात्सल्य के पात्र पर ही चोट करती रहती है। चाहे वह चोट
घंटे से टंकार उगारने के लिए ही हो। लेकिन वह टंकार तो दूसरों
के सुनने भर के लिए ही होती है। घंटे पर गुज़री तो घंटा ही
जाने!
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