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सामने वाली महिला का चेहरा बड़ा क्षुब्ध-सा है। चेहरे के छोटे गोल नक्श शायद गुस्से की वजह से कुछ सूजे हुए से दीख पड़ते हैं। यों मुझे उससे हमदर्दी है लेकिन उसका जन्मजात रूखापन मुझे भीतर कहीं सुखाए दे रहा है। अनन्या ने कभी मुझसे कहा भी था, ''मेरी माँ के लिए सबसे ज़्यादा अहम उसका कैरियर है ह़म सब उसके बाद आते हैं!'' अब इस तरह अपने सामने उसे कसा हुआ बैठा देख मैं कोई सांत्वना के शब्द भी नहीं उड़ेल पा रही। वैसे इसको मुझसे अनन्या की सिफ़ारिश करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैंने पहले ही डीन से कह दिया है कि अनन्या एक मेधावी और मेहनती छात्रा है और मुझे कभी उससे किसी तरह की भी शिकायत नहीं हुई। पर मेरे दफ़्तर आने से पहले इस महिला ने मुझे फ़ोन कर कहा था, ''मैं डाक्टर मनोचा बोल रहीं हूँ, अनन्या की मदर। मैं आपसे मिलना चाहती हूँ।''

मुझे उसका फ़ोन पाकर हैरानी नहीं हुई थी, मिलने की बात से भी हैरानी नहीं हुई थी। फिर भी उसकी आवाज़ का अंदाज़ कुछ ऐसा था, रौबीला-सा कि मुझसे कुछ कहा नहीं गया। उसकी आवाज़ फिर सुनाई पड़ी, ''मैं अनन्या के बारे में जितना ज़्यादा जान सकूँ, जानना चाहती हूँ। मुझे आपकी मदद की ज़रूरत है, वह आपके बारे में बहुत बात किया करती थी।

जिस तरह पत्नी पति की हरकतों को जाननेवाला आख़िरी व्यक्ति होती है उसी तरह जवान बच्चों की माँ बच्चे की हरकत को जाननेवाला शायद अंतिम व्यक्ति होती है। ख़ास तौर से जब बच्चे पंख लगा कर कालेज की दुनिया में उड़ आए हो तो! अब खेत चुगे जाने के बाद क्या ये फिर से खेती करना चाहती है।

हमदर्दी की जगह में एक कड़वा-सा वाक्य उछाल देती हूँ, ''वह घर से शायद कुछ असंतुष्ट थी। आप शायद उसे डाक्टरी पढ़वाना चाहती थी आ़प और आपके पति दोनों डॉक्टर हैं न।''
वह कुछ चिढ़ती हुई-सी बोली, "जी मैंने तो कभी उस पर कोई दबाव नहीं डाला, बचपन से ही जो चाहा करने दिया। बचपन में भी यह पियानो सीखती थी। यह तो जब से हिंदुस्तान से लौटी है बस तभी से इसे कुछ हो गया है।''
उन्होंने आख़िरी वाक्य कहकर एक लंबी साँस भरी और हिंदुस्तान का नाम लेकर फिर कुछ बुड़बुड़ाई।
मुझे कुछ हँसी-सी आई। बंगाल का जादू तो सुना था मैंने पर यह हिंदुस्तान का जादू क्या था?
यों हिंदुस्तान से लौटकर मुझे भी कुछ हो जाता है, जैसे कि घंटो सुस्त पड़े रहना। काम में मन न लगना। आवाज़ों की याद, दोस्तों और सगे-संबंधियों की याद, मौसम की याद, स्वादों और गंधों की याद, बस एक मीठी-सी खुमारी छाए रहना। पर वह सब कुछ दिनों बाद छट जाता है, ज़िंदगी देर-सबेर ढर्रे पर आ ही जाती है। ऐसा तो नहीं होता कि कुछ आमूल-चूल परिवर्तन आ जाए। यों परिवर्तन होगा भी क्या? वही की मिट्टी से ही तो गढ़ी हुई हूँ मैं। बस वहाँ न हो पाने की कसक भर ही कभी-कभी उठ जाती है। लेकिन अनन्या तो यहीं की पैदाइश, यहीं पर पली-बढ़ी है। उसके भाई-बहन, माँ-बाप और दोस्त सब यहीं है। फिर उसे किस बात की कसक। हिंदुस्तान का जादू उसके सर चढ़ क्यों बोल रहा था।

हिंदुस्तान के प्रति कौतूहल तो ज़रूर उसमें पहले से रहा होगा क्योंकि कालेज के पहले साल में ही उसने हिंदी पढ़नी शुरू कर दी थी और मेहनत करके क्लास में अव्वल रहती थी। उसने बतलाया था कि इंडियाना में हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान भी अपने माँ-बाप के किन्ही मित्र की पत्नी से उसने कुछ हिंदी सीखी थी। इसीलिए शायद मेरी क्लास में वह इतनी आसानी से आगे बढ़ती जा रही थी। दूसरे साल के शुरू में ही उसने ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि वह यूनिवर्सिटी के ''ज्यूनियर इयर अब्राड'' प्रोग्राम के तहत साल भर के लिए पढ़ाई करने भारत जाना चाहती है। उसकी काबिलियत देख मैंने उसके लिए सिफ़ारिशी पत्र भी लिख दिया था। हर साल ही मैं कम से कम दो-चार विद्यार्थियों के लिए सिफ़ारिश के ख़त लिखती ही हूँ और अक्सर उनमें से एकाध भारतीय मूल का भी होता ही है। अपनी जड़ों की पहचान की जिज्ञासा भी कोई नई बात तो नहीं। हाँ वह सिर्फ़ संवेदनशील युवक-युवतियों में ही होती है। और अनन्या की संवेदनशीलता तो उसके चेहरे से ही झलक जाती थी, बहुत कोमल, खूब घनी साँवली त्वचा और गहरी-गंभीर बेहद इंटेंस आँखें। देखने में बहुत सुंदर नहीं थी पर उन आँखों की शिद्दत और त्वचा के साँवलेपन में एक तरह की लुनाई उसे बहुत आकर्षक बना देती थी। बहुत मतलब के सवाल पूछती थी और फालतू बात एकदम नहीं। फिर भी भारतीय मूल के अन्य अमेरीकी विद्यार्थियों से कुछ अलग नहीं दीखती थी वह, उन्हीं की तरह अमरीकी पहनावा, तौर-तरीके, बातचीत का लहजा और खुशमिज़ाज़।

हिंदुस्तान में साल भर रह कर लौटने के बाद कुछ तबदीली ज़रूर दीखी थी मुझे अनन्या में। सबसे पहली बात तो पहनावे की थी। वह जब-जब मुझसे मिलने आई, रंगीन छपे कपड़े या कढ़ाई के कुरते सलवार पहने होती। उसका रंगों का चुनाव अमरीकी लड़कियों से फ़र्क हो गया था। अब वह काले-भूरे या सलेटी रंगों के स्कर्ट-ब्लाउज़ या पैटो की जगह हमेशा खिले हुए रंग पहने होती। सलवार कमीज़ न हो तो भी कपड़ों का डिज़ाईन भारतीय किस्म का होता। एक बार वह मेरी साड़ी पर ग़ौर करती हुई बोली थी, ''आपकी साड़ियाँ बहुत खूबसूरत होती हैं।''
फिर कुछ रुक कर कहा, ''मेरी मम्मी कभी साड़ी नहीं पहनती, हमेशा पश्चिमी पोशाक पहनती है।''

अब अपने सामने बैठी उस महिला को देख, अनन्या का उस वाक्य को कहते समय चेहरे का भाव याद कर मैं सोच रही थी कि यह महिला भी कहीं ज़्यादा गरिमामयी और नयनप्रिय लगती अगर इसके जिस्म के बेढब मोड़-जोड़ इस तरह इसके कसे पैंट-टॉप्स से न झाक रहे होते तो। लेकिन इस पहनावे में ये खूब चुस्त-दुरुस्त दीख रही है, इसमें कोई शक नहीं। अपनी डॉक्टरी प्रैक्टिस में इसके लिए यही पहनावा सहूलियत का होगा।

भारत से लौटकर अनन्या ने यह भी बतलाया था कि वह वहाँ साल भर कत्थक नृत्य सीखती रही थी और यहाँ अमरीका में भी उसे कत्थक सिखाने वाली गुरु मिल गई है - इसलिए वह बी. ए. की शिक्षा नृत्य के मुख्य विषय के साथ ख़त्म करेगी और इसके लिए उसे विभागाध्यक्ष की विशेष अनुमति भी मिल गई है। साथ ही चूँकि हिंदी भाषा भी अच्छी तरह सीख ली थी इसलिए अब उसने मेरे हिंदी साहित्य के कोर्स में भी दाखिला ले लिया था।

कुछ दिन बाद वह मुझसे बोली थी कि अपनी थीसिस भी वह हिंदी साहित्य या नृत्य के विषय पर ही लिखना चाहती है। क्या मैं उसकी सुपरवाइज़र बनने को राज़ी हो जाऊँगी? और मैंने खुशी से हाँ कर दी थी।

थीसिस के विषय पर बात करने के सिलसिले में ही एक दिन उसने मुझे घर पर फ़ोन किया था और मिलने चली आई थी। इसके बाद वह कई बार घर पर किसी न किसी बात के सिलसिले में आ जाती थी और घंटो अपने भारत के अनुभवों की या घर की बातें करती रहतीं। कभी-कभी मुझे लगता उसके भीतर हिंदुस्तान की ही एक ज़रूरत बन गई है जिसे वह मेरे हिंदी भाषा और साहित्य या नृत्य द्वारा पूरा करने की कोशिश करती रहती है। क्योंकि बातचीत का विषय हमेशा भारत से ही जुड़ा होता, वह अपनी बुआ, मौसियों और कज़न की बातें करती कि कितना प्यार देते हैं वे सब। कभी अपने नृत्य के गुरु के बारे में बताती। उसकी बातचीत में अक्सर अमरीका के प्रति आलोचना और भारत के प्रति स्नेह झलकता। वह कहने लगती, ''पढ़ाई ख़त्म करके मैं भारत जाऊँगी। बड़ी अजीब बात है कि मेरे माँ-बाप को मेरा भारत जाना पसंद नहीं जबकि वे खुद वहीं के हैं।''
मैं यों ही पूछ बैठी थी, ''तुम्हें क्या लगता है कि तुम कहाँ की हो?''
''मैं तो अमरीकी ही हूँ इसमें कोई शक नहीं, लेकिन मुझे यह देश पसंद नहीं य़हाँ के लोग पसंद नहीं। यह बात और भी बुरी लगती है कि मेरे माँ-बाप भी इनके जैसे हैं। मेरी बड़ी बहन भी, उसने तो एक गोरे अमरीकी से शादी भी कर ली है। यों उसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, अपनी पसंद की बात है। पर वैसे कह रही हूँ कि मेरे घर वाले अपने-आपको गोरों जैसा समझते हैं, उन्हीं की तरह व्यवहार करते हैं। पहले मैं भी उनकी ही तरह थी पर अब समझ आने पर यह बात बड़ी अजीब-सी लगती है कि हम जो नहीं हैं वो बनने की कोशिश करें क़िसी और की नकल करें जबकि हमारा अपना कल्चर इतना अमीर है।''

कभी मैं उससे पूछ लेती कि भारत उसे क्यों इतना पसंद है तो उसके पास कोई बहुत साफ़ जवाब नहीं होता था सिवा कुछ चलती-सी बात के कि वहाँ के लोग ज़्यादा प्यारवाले, मिलनसार और भले हैं, यहाँ की तरह चालाक या निष्ठुर नहीं। मुझे लगता कि वह और भी शायद बहुत कुछ महसूस करती है और कहना चाहती है पर ठीक शब्द नहीं खोज पाती क्योंकि उसका वाक्य कुछ इस तरह ख़त्म होता कि बहुत कारण हैं, बहुत ज़्यादा कि वह सब गिना नहीं सकती। कभी इन कारणों में मौसम और रग शामिल हो जाते, कभी हवा और माहौल तो कभी नृत्य और संगीत और उनसे जुड़ी भारत की सांस्कृतिक संपन्नता।

कभी-कभी मुझे लगता कि उसे भारत से एक तरह का रूमानी जुड़ाव ही है। सच में जब वहाँ रहने लगेगी तो ऐसे बात नहीं करेगी। अभी सब कुछ ऊपर-ऊपर से ही देखा है इसने। पर ऐसा कुछ कहकर अभी से उसका मन तोड़ने की हिम्मत कभी नहीं की मैंने। यों भी रूमानी रिश्तों के बनने या टूटने में कार्य-कारण की कोई स्पष्ट तरतीब तो रहती नहीं। इसलिए कोई ज़बरदस्ती तोड़ने की कोशिश करे भी तो परिणाम अनर्थ या प्रलय ही हो सकता है। फिर मैं अधिकार के साथ कह भी कैसे सकती हूँ कि यह रिश्ता रोमानी ही है।

एक बार बात-बात में वह ऐसा कुछ कह गई थी कि मुझे लगा था कि शायद भारत के साथ उसके रिश्ते को रूमानी कह कर मैं उसके साथ ज़्यादती कर रही हूँ। शायद वह कुछ और गहरे कहीं महसूस करती है पर वह ऐसा विषय है जिस पर साफ़ बात यहाँ कोई नहीं करता क्योंकि वह एक शर्मनाक घाव की तरह है जिसे हमेशा ढक दिया जाता है। फिर आख़िरकार वह एक संपन्न भारतीय परिवार की है। अमरीका की एक अभिजात यूनिवर्सिटी में पढ़ती है। उसका ऐसा कुछ कहना ढोंग ही लग सकता है कि सब कुछ होते हुए भी शिकायत। पर उसके उन वाक्यों ने मुझसे वह अकथनीय कह ही डाला था। बात वही भारत को लेकर ही थी। कहने लगी, ''वहाँ जाकर मैं वहीं की हो जाती हूँ। कोई मुझसे यह नहीं पूछता कि मैं कहाँ से हूँ, मैं किसी को विदेशी नहीं लगती। और यहाँ जहाँ कि मैं पैदा हुई हूँ, जहाँ मेरा घर है, हमेशा से रहती आ रही हूँ, वहाँ हर नया मिलनेवाला सबसे पहले यह पूछता है कि मैं किस देश से हूँ जैसे कि मैं अमरीकी हो ही नहीं सकती। जबकि मैं भी उन्हीं की तरह यहाँ की नागरिक हूँ। यह सवाल चाहे मैंने अमरीकी कपड़े पहने हो या भारतीय, उठाया ही जाता है। दूसरी तरफ़ कोई गोरी लड़की अगर भारतीय पोशाक भी पहन ले तो भी उसे सब अमरीकी ही मानते हैं जैसे कि यह देश सिर्फ़ गोरों का ही हो।''

यों मेरे लिए यह समझ पाना मुश्किल था कि यह लड़की चाहती क्या है। एक तरफ़ हिंदुस्तानीपन बनाए रखने की बात करती है दूसरी तरफ़ इसे शिकायत है कि इसे अमरीकी नहीं माना जाता। क्या यह हिंदुस्तानीपन बनाए रखने की बात भी इसके विद्रोह का ही एक चेहरा है? आख़िर यह चाहती क्या है और जो वह चाहती है क्या उसे पाना मुमकिन है।

एकाध बार उसने मुझसे विभागाध्यक्ष के खिलाफ़ भी कुछ कहना शुरू किया था कि भारत के प्रति उनका स्र्ख कुछ संवेदनशील नहीं। पर मैंने ज़्यादा तूल नहीं दी तो वह खामोश हो गई।

फिर एक दिन वह निश्चित वक्त से कुछ देर बाद घर पर आई, अलमस्त, झूमती-झामती। मैंने कौतुहल दिखाया तो कहने लगी कि वह शॉपिंग करने हारलम गई थी। हारलम काले अमरीकियों का इलाका था जहाँ ज़्यादातर गोरे अमरीकी जाने से घबराते थे।
''आप कभी गई हैं हारलम? बहुत सस्ती चीज़ें मिलती हैं, ये देखिए यह स्वेटर सिर्फ़ दस डालर में मिला और यह टॉप छह में..."

वह थैले में से चीज़ें निकाल कर बड़े उत्साह से दिखलाती चली जा रही थी।
फिर पता लगा कि उसने अपार्टमेंट भी हारलम में ले लिया है। एक दिन मुझे चैलेंज-सा करती हुई बोली, ''आप तो कभी नहीं आएगी मेरे अपार्टमेंट, हारलम में जो है, वहाँ कोई नहीं आना चाहता। सब डरते हैं। मुझको समझ नहीं आता सब डरते क्यों हैं य़े लोग तो गोरों से ज़्यादा अच्छे हैं।''
उसकी बातचीत में गोरों का ही ज़िक्र दूसरी जाति के रूप में होता, कालों का नहीं।
इन दिनों वह बहुत उल्लास और उमंग से भरी दीखती। एक दिन किसी रौ में आकर बोली, ''आपको एक खुशखबरी दूँ?''
''क्या बात है? आजकल खूब खुश दीखती हो?''
''हाँ बहुत खुश हूँ क्योंकि मुझे मेरा मनपसंद ब्वायफ्रेंड मिल गया है।''
''कंग्रेचुलेशन्स।''
वह जैसे कुछ और कहने को बेचैन थी पर मेरे सवाल के इंतज़ार में थी।
''आपने पूछा नहीं कि कौन..."
''हाँ बताओ।''
''एक काला लड़का है।''
वह कुछ पल मेरे जवाब-टिप्पणी का इंतज़ार करने के बाद बोली।
''आप शॉक्ड नहीं हुई। औ़र सब को तो एकदम शॉक लगता है!''
''तुम्हारे माँ-बाप को मालूम है?''
''नहीं, वे तो एकदम गश खाकर गिर जाएँगे, अभी नहीं बताऊँगी।''
पल भर को मुझे लगा कहीं यह सबको चौकाने के लिए ही तो काले लड़के से दोस्ती नहीं कर रही। यह इसका अपने माँ-बाप के ख़िलाफ़ या अपने देश के गोरों के ख़िलाफ़ प्रछन्न द्रोह भी तो हो सकता है। प्रगट में मैंने पूछा,
''क्या शादी करने का सोच रही हो?''
''कर भी सकती हूँ पर अभी कुछ पता नहीं, यों कल शाम मैं उसके परिवार से मिली थी। बहुत अच्छे लोग हैं वे, बहुत वार्म और विनीत और बहुत सुसंस्कृत भी, यह लड़का जाज़ संगीत सीख रहा है। उसका पिता एक मशहूर कंपोज़र है, माँ भी गाती है, पूरा परिवार संगीत में है।''
''और तुम भी त़ुम भी तो संगीत में हो।''
उसके इंटेंस चेहरे पर पहली बार शर्मीली मुस्कान दिखी।
''वे लोग हिंदुस्तानी संगीत के बारे में भी जानना चाहते हैं, वे मेरी डांस परफार्मेंस में आएँगे। आप भी आएँगी न!''
''कब कर रही हो तुम?''
''अगले शनिवार आप ज़रूर आइएगा।''
''तुम तो क्लास के लिए भी छोटा सा नृत्य प्रदर्शन देनेवाली थी, उसका क्या हुआ?''
''आप चाहती है कि दूँ?''
''बिलकुल।''
''तो ज़रूर दूँगी। अगली क्लास में तारीख तय कर लेंगे।''

लेकिन उसके नृत्य प्रदर्शन में मैं नहीं जा सकी थी। क्लास में से और कोई भी नहीं जा सका था। न ही अगली क्लास में वह क्लास के प्रदर्शन की तारीख नियत करने के लिए वहाँ मौजूद थी। यहाँ तक कि उसके कई दिन बाद तक मैंने उसे देखा भी नहीं, वह क्लास में भी नहीं आई। मुझे फिक्र होने लगी कि इसने शायद थीसिस का काम तो शुरू ही नहीं किया होगा, कहीं ज़्यादा देर न हो जाए।

इसके बाद जब वह क्लास में आई तो मेरे थीसिस का सवाल उठाने पर उसने कहा कि वह इस बारे में पहले ही विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर फिशर से बात कर चुकी है और अगले दिन उनसे मिलने वाली है। प्रोफ़ेसर फिशर का नाम लेते हुए उसके चेहरे पर अजीब उलझन-सी दीखी थी मुझे, जैसे कि कोई बड़ी मुसीबत में फँसने वाली हो।
मेरे नृत्य प्रदर्शन की तारीख का पूछने पर रुखाई से बोली, ''रहने दीजिए। किसी की दिलचस्पी तो है नहीं।''
''ऐसी बात तो नहीं।''

पर उसने चेहरे का रूखा भाव बनाए रखा और बात आगे बढ़ने नहीं दी। फिर मैंने उसके काले ब्वायफ्रेंड का हाल पूछा तो उसके चेहरे पर विद्रुप-सा झलका। धीरे से बोली, ''ओह, देयर इज़ नथिंग सीरियस।''
लगा कि कुछ है तो मुझे बता नहीं पा रही। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसने अपनी सहजता में मन ही मन उस काले परिवार को अपना लिया हो और वे अभी ऐसे अपनापे के लिए तैयार न हो। आख़िर उनकी दुनिया की ज़रूरत तो अनन्या को ही है, या इसे अपने माँ-बाप का भी डर।
वह फिर कुछ दिन ग़ायब रही। क्लास से कुछ देर पहले दफ्तर में आई तो परेशान सी लग रही थी क़ुछ बिख़री-बिख़री-सी। कहने लगी, ''ये बस अपनी बात बोलती रहती है। न तो इनको मेरी बात समझ आती है और मैं मुँह खोलूँ तो झट ये कुछ कह कर चुप करा देती है मुझे। प्रोजेक्ट मेरा है या इनका, काम तो मुझे ही करना है म़ैं भी चुपचाप सुनती रही, करूँगी तो वही जो मुझे करना है।''

मैं समझ गई थी कि वह विभागाध्यक्ष से मिलकर आई है पर मैंने खुलासा जानने की कोई जिज्ञासा नहीं दिखाई। यों भी किसी प्रोफ़ेसर के ख़िलाफ़ छात्र की बात सुनना मेरी अपनी नैतिकता पर सवाल लगा देता था। पर चूँकि उसकी सुपरवाइज़र मुझी को होना था इससे मैंने उससे विषय के बारे में फ़ैसला लेने की बात कही। मैंने उसे विषय के बारे में एक-दो सुझाव भी दिए जो उसे अच्छे लगे। फिर वह बोली कि कल परसों तक फ़ैसला लेकर वह काम शुरू कर देगी।

इस दौरान मेरी विभागाध्यक्ष से भी बात हुई और वे बताने लगी कि अनन्या काफ़ी जटिल लड़की है सो उससे काम करवाने में मुझे दिक्कत तो होगी, अपने परिवार से भी उसकी तकरार चलती रहती है। पर मैंने आश्वासन दिया कि मुझे अनन्या के साथ कोई मुश्किल नहीं, वह पहले भी मेरे कोर्स ले चुकी है और अच्छा काम करती रही है।

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