'बेगम साहिबा, अब तो आप भी
कार चलाना सीख लीजिए। आप मोबाइल भी हो जाएँगी और कार चलाना तो
एक अच्छी कला भी है।'
'आप क्यों तकलीफ़ करते हैं? हम किसी मोटर ड्राइविंग स्कूल से
सीख लेंगे।'
'अरे बेगम, जब हम हैं तो स्कूल की क्या ज़रूरत! पूरे पाकिस्तान
में हम से अच्छा उस्ताद आपको कहाँ मिलेगा?'
'देखिए मैं ग़लती करूँगी, तो आपको गुस्सा ज़रूर आएगा। फिर आपका
मूड ख़राब होगा। चलिए हम कहीं घूम आते हैं। हम कार चलाना स्कूल
से ही सीख लेंगे।'
किंतु इमरान हाशमी आज बहुत
बढ़िया मूड में थे। नहीं माने। और हो गई कार की ट्रेनिंग शुरू।
'अरे बेगम ध्यान से। आप अगर क्लच दबाए बिना गेयर बदलेंगी तो
सोचिए बेचारा गेयर क्या करेगा। टूट-फूट जाएगा और नुक़सान होगा
सो अलग।'
नुक़सान की चर्चा सुनते ही नजमा के दिमाग में तनाव बढ़ गया।
ग़लतियाँ भी उसी हिसाब से बढ़ने लगीं। बार-बार इमरान का टोकना
और व्यंग्य कसना। 'नजमा जी, आप गाड़ी सांप की मानिंद क्यों चला
रही हैं? ऐ सड़क पर चलने वालों सब जा कर अपने घरों में दुबक कर
बैठ जाओ आज हमारी बेगम सड़क पर गाड़ी ले आई हैं, जिस-जिस को
अपनी जान प्यारी हो, भाग लो सर पर पाँव रख कर।'
नजमा ने एक बार फिर कहा कि
बाकी ट्रेनिंग फिर कभी हो जाएगी। लेकिन इमरान कहाँ मानने वाला
था। जब नजमा ने गल़त मोड़ की ओर मोड़ दी गाड़ी, तो इमरान फट
पड़ा, 'बेगम हम अगर भैंस को भी कार चलाना सिखा रहे होते, तो वो
भी अब तक बेसिक बातें सीख गई होती। आप तो कमाल करती हैं। आपके
हिंदुस्तान में लोग ऐसे ही कार चलाते हैं क्या?'
बस, अब बहुत हो चुका था, 'हम अब कार नहीं चलाएँगे।' कह कर नजमा
ने कार का दरवाज़ा खोला और कार से नीचे उतर गई। इमरान के अहम
को ठेस लगी, 'अरे भाई अगर छोटी सी बात कह भी दी तो क्या फ़र्क
पड़ गया?'
'हम ने कह दिया न, हमें कार चलानी नहीं सीखनी।'
'देखो नजमा, हम आख़िरी बार कह रहे हैं कि कार में बैठ जाओ और
कार चलाओ, वर्ना हम से बुरा कोई न होगा।'
'हमारा फ़ैसला आख़िरी है। आप ड्राइविंग सीट पर आ जाइए।'
'अगर मैं ड्राइविंग सीट पर आ गया, तो आपके लिए अच्छा न होगा।'
'...'
इमरान ड्राइविंग सीट पर आए,
कार स्टार्ट की और नजमा को घर से पाँच मील दूर सुनसान-सी सड़क
पर अकेले छोड़ कर कार आगे बढ़ा दी।
नजमा सोचती रह गई कि ये हुआ क्या। वह अभी भी उम्मीद लगाए बैठी
थी कि इमरान कार मोड़ कर वापस लाएँगे और उसे मना कर ले जाएँगे।
लेकिन इमरान नहीं आए। नजमा वहीं सड़क किनारे बैठ कर खूब रोई।
अल्लाह से ले कर संकटमोचन तक सभी को शिकायत भरे लहजे में याद
किया। फिर हारी हुई खिलाड़ी की तरह, अपनी बेइज़्ज़ती की पोटली
को साथ बाँधे, फटफटिया आटो रिक्शा पर घर पहुँची। वहाँ ज़ुबेदा
ने बताया, 'भाभी जान, भैया तो क्लब चले गए हैं। रात का खाना
वहीं खा कर आएँगे।' नजमा ने उस रात कुछ नहीं खाया। उसे एक बात
का विश्वास हो चुका था कि यह इंसान उसे ज़िंदगी के किसी भी
मोड़ पर अकेला छोड़ कर जा सकता है। विश्वास के काबिल नहीं है
इमरान।
आजकल नजमा अपनी कविताओं की
पेंटिंग बना रही थी। अपनी कविता को कैनवस पर उतारने का उसका
शौक उसे एक ही थीम को दो कलाओं के माध्यम से पेश करने का मौका
देता था। पाकिस्तान में राजनीतिक माहौल गरमा रहा था। कारगिल की
तैयारियों में कर्नल इमरान हाशमी की भूमिका बहुत अहम थी। इमरान
ने कभी नजमा को कारगिल के बारे में कोई सूचना नहीं दी।
कारगिल युद्ध शुरू हो गया। एक अजीब-सा युद्ध था। दोनों देश लड़
भी रहे थे और पाकिस्तान कहे भी जा रहा था कि उनका देश युद्ध
में किसी तरह से नहीं जुड़ा हुआ है। दोनों ओर से लोग मारे जा
रहे थे। बहुत से पाकिस्तानी सैनिक भी शहीद हुए। किंतु राजनीतिक
कारणों से पाकिस्तानी सरकार ने उन शवों को पहचानने या स्वीकार
करने से इंकार कर दिया। उन शवों में से एक शव कर्नल इमरान
हाशमी का भी था। इमरान को कहाँ पता था कि उसका अंतिम सरकार
हिंदुस्तान की थल सेना करेगी और वो भी भारत की धरती पर। उसका
परिवार उसके शरीर के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाएगा।
इमरान की मौत के बाद नजमा
पाकिस्तान में नितांत अकेली पड़ गई। अम्मी तो जन्नत के लिए कब
की रवाना हो चुकी थीं। दोनों ननदें भी अपने-अपने घरों वाली
थीं। नजमा को कराची कभी अपना घर लगा ही नहीं था और पाकिस्तान
सरकार ने इमरान की मौत को कोई महत्व ही नहीं दिया था।
मरणोपरांत कोई पदक तक नहीं। कोई ज़मीन या वजीफ़ा नहीं। राजनीति
की शिकार नजमा ने भारत जाने का फ़ैसला किया। अपने हिंदुस्तान
जा कर देखना चाहती थी कि वहाँ क्या कुछ बदला है।
लेकिन अब उसे भारत जाने के
लिए वीज़ा लेना पड़ेगा। जिस देश की ख़ातिर वह कभी पाकिस्तानी
नहीं हो पाई, आज वहीं जाने के लिए वीज़ा लेना होगा। इमरान की
अच्छी जान पहचान थी, उसकी बेवा होने का एक लाभ तो था कि काम हो
जाते थे। यह भी हो गया। किंतु अभी तो दोनों देशों में उड़ानों
पर ही प्रतिबंध लगा हुआ था। नजमा पहले अपने पुत्र रेहान को
मिलने लंदन गई, और वहाँ से ब्रिटिश एअरवेज़ से दिल्ली। बड़ी
भाभी और उनके बच्चे नजमा को लेने आए थे।
दिल्ली से बुलंदशहर का सफ़र
उसकी रगों में रक्त का बहाव बहुत तेज़ करता गया। सोच-सोच कर
परेशान थी कि क्या चंदर आज भी वहाँ रहता होगा, क्या डाक्टर बन
गया होगा, क्या उसे याद करता होगा? फिर मन ही मन मुस्कुरा भी
रही थी। कितनी बेवकूफ़ है वो, भला चंदर ने क्या अपना जीवन नहीं
जीना था। उसकी भी शादी हुई होगी, उसके भी बच्चे होंगे। कितना
मज़ा आएगा चंदर के बच्चों को देखकर। अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा
होता, तो वो बच्चे उसके अपने होते इ़स उम्र में भी उसके गाल
लाल हो आए थे।
बड़े भाई के घर जाने से पहले तो वह दिल्ली को पहचानने का
प्रयास कर रही थी। एअरपोर्ट इतना बड़ा और माडर्न हो गया था।
रास्ते में चौड़ी सड़कें, फ़्लाइ ओवर, और सभी माडर्न कारें। जब
भारत छोड़ कर गई थी तो बस एम्बेसेडर और प्रीमियर कारें ही तो
होती थीं। क्या चंदर के पास भी अपनी कार होगी। अ़गर डाक्टर बन
गया होगा तो ज़रूर होगी। चित्रा उसे देख कर क्या करेगी। बच्चे
अपने फूफी को देख कर ख़ुश थे मगर पहली बार मिलने वाली झिझक
ज़रूर थी। भाभी जान इमरान के बारे में बातें कर रही थीं। रेहान
की पढ़ाई, नौकरी और शादी। भला भाभी से चंदर के बारे में कैसे
पूछे। भाभी ने बताया कि चित्रा ने तो वहीं एक वकील से शादी कर
ली थी। उसके तीन बच्चे हैं - एक बेटी और दो बेटे। इंदु शादी कर
के लखनऊ चली गई थी। कमला से कोई संपर्क रहा नहीं था। चित्रा से
मिलने को बेताब थी नजमा। क्या उसे पहचान लेगी? अगर पहचान गई तो
कैसे व्यवहार करेगी?
घर आ पहुँचा। भाई जान से मुलाकात हुई। दुआ सलाम। औपचारिक
बातें। छब्बीस साल पुरानी कड़वाहट को दोनों ही भुला देना चाहते
हैं। बहन के जुर्म के लिए उसे देश निकाला देने के बाद मुलाक़ात
के अवसर बने ही नहीं। आठ भाई बहनों में सबसे छोटी नजमा के बाद
घर में कोई दूसरी शादी भी तो नहीं होनी थी जिसके लिए नजमा आने
का प्रयास करती। अम्मी और अब्बा के इंतकाल देहावसान का दुख भी
उसने पाकिस्तान में अकेले ही सह लिया था। वह एक ओर पाकिस्तान
में अपने अकेलेपन से लड़ रही थी, अपने वतन की याद में तड़पी,
वहीं वह यह भी नहीं भूली थी कि उसे कराची एक सज़ा के तौर पर
भेजा गया था। इमरान उसकी सज़ा था, इनाम नहीं। छब्बीस साल की
कैद हुई थी उसे, बामुशक्कत। जेल से छूट कर घर आई थी नज़मा। आज
सज़ा देने वाले भी इस दुनिया में नहीं थे और सज़ा भी।
घर में भी बड़े भाई के रूतबे
के साथ-साथ बहुत से परिवर्तन भी महसूस किए नजमा ने। बुलंदशहर
में भी अब दिल्ली की सुविधाएँ आ पहुँची थीं। सब कुछ देखते हुए
भी नजमा का दिल किसी भी चीज़ में नहीं लग रहा था। चित्रा का
पता मालूम नहीं था - न उसे और न ही भाभी जान को। चित्रा के
मायके जाना होगा। पता नहीं वहाँ कौन होगा। बिखरे हुए धागों को
समेटना भी तो आसान काम नहीं होता। धागे उलझते जाते हैं -
गाँठें नहीं खुल पाती हैं।
दो दिन के बाद चित्रा का पता
लग पाया। और चित्रा तो नजमा को देख कर जैसे पगला सी गई। भूल गई
कि तीन बच्चों की माँ है। समय जैसे थम-सा गया था। दोनों
सहेलियों में जम के बातें हुईं। दोनों ने मिल कर भोजन बनाया।
नजमा ने चित्रा को आश्चर्यचकित कर दिया, 'क्या कहा, तुम
शाकाहारी हो गई हो! यह चमत्कार कैसे हो गया?'
'वहाँ कराची में सब गाय का मीट खाते थे। हमने तो ज़िंदगी में
कभी नहीं खाया था। जब मना किया तो हम पर हिंदू होने का इल्ज़ाम
लगा दिया। हमने फ़ैसला कर लिया कि हम मीट खाना ही बंद कर
देंगे। हम ने घास फूस खाना शुरू कर दिया। अब तो यही खाना अच्छा
लगता है। पहले-पहले अम्मी के हाथ के गोश्त की याद आती थी मगर
अब तो सब पुरानी बातें हो गईं। वहाँ कराची में तो लोग हमें
हिंदू ही कहने लगे थे।'
'कितने साल बीत गए न? यहाँ की याद तो खूब आती होगी? हम
सहेलियाँ भी बिछड़ गईं। कोई लखनऊ में है तो कोई दिल्ली में।
कांता तो मुंबई चली गई है। और सुरेखा को अमरीका वाला आ कर ले
गया। पहले-पहले तुम्हारे बारे में खूब बातें करते थे फ़िर
आहिस्ता-आहिस्ता सब के काम बढ़ते गए और नजमा रानी पीछे छूटती
गईं। हे नजमा क़ुछ पूछना चाहती है न तू? पूछ न, डरती क्यों
है?'
'क्या पूछूँ चित्रा, अब तो पूछते हुए भी डर लगता है। तू बिना
पूछे ही बता दे न।'
'याद है, वो होली, तुझे कैसे भूलेगी? तेरी तो ज़िंदगी ही बदल
गई थी। उसका नाम, चेहरा क़ुछ भी याद है तुझे?'
'क्या कहूँ? क्या सुनना चाहती हो तुम? तुम्हें कैसे बताऊँ कि
छब्बीस साल की कैद किस चेहरे की याद में बीती है। होली का
त्यौहार तो मेरे लिए जीवन का पर्याय ही बन गया है। सच-सच बता
क्या चंदर इसी शहर में है? उसकी पत्नी, बच्चे, परिवार, सब कुछ
बता दे। मेरी बेशरमी से परेशान तो नहीं हो?'
चित्रा अपलक नजमा को देखती जा
रही थी, 'एक बात सच-सच बता। तू होली के आसपास उसी के लिए आई
है? क्या होली खेलने उसके पास जाएगी?'
'अब क्या होली, अब तो विधवा मुसलमान नजमा के होली खेलने वालों
के पास जाने भर से ही होली अपवित्र हो जाएगी?'
भाईजान के घर जल्दी ही नजमा
बच्चों के साथ घुल मिल गई। बच्चे रेहान के बारे में बातें
करते। उसके लंदन में रह कर पढ़ने से वे खासे प्रभावित लग रहे
थे। नजमा के शाकाहारी हो जाने से भाभी जान को भोजन का मीनू
बनाने में ख़ासी परेशानी हो रही थी। बच्चों के लिए गोश्त बनाने
के साथ-साथ अब सब्ज़ी और दाल भी बनानी होती। दो तीन दिन बस ऐसी
ही बातें होती रहीं, जिनके न होने से नजमा को कोई फ़र्क नहीं
पड़ता। कई बार तो नजमा बिना ठीक से सुने ही जवाब दे देती। उम्र
के इस पड़ाव पर भी किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की चाह कितनी
प्रबल हो जाती है जिसके हवाले कभी अपना जीवन कर देना चाहा था।
बस प्रतीक्षा की घड़ियाँ दिल की टिकटिक से जुड़ती जा रही थीं।
क्या ऐसे लोग दुनिया में सचमुच होते हैं जो अपने प्रेम की याद
में ही सारा जीवन होम कर देते हैं? सोच कर ही नजमा के शरीर में
सिहरन हो उठी। एक झुरझुरी-सी आ गई।
होली भी आ पहुँची। चित्रा
अपने कहे अनुसार अपनी कार और ड्राइवर लिए आ पहुँची। नजमा ने
पहली बार ध्यान से देखा कि चित्रा पहले से ख़ासी भर गई थी।
नजमा आज भी इकहरा बदन ही लिए थी। उस पर रेहान के जन्म ने अपने
अधिक निशान नहीं छोड़े थे। फिर नजमा एक्सरसाइज़ भी करती थी।
योग के कुछ आसन उसे अब भी आते हैं। प्राणायाम तो करती ही है।
इसलिए भी ससुराल में बदनाम थी।
चित्रा और नजमा ऊपर वाले कमरे
में चली गईं। नजमा के चेहरे का एक-एक अंग कुछ कहता-सा प्रतीत
हो रहा था। बेचैनी जैसे उसके आस पास एक छोटा-सा तालाब बनाए जा
रही थी। नजमा कुछ पूछना चाहती थी और चित्रा सब कुछ बताना चाहती
थी। अंतत: चित्रा ने ही शुरुआत की, 'नजमा, मैं जानती हूँ तू
कितनी बेचैन है चंदर के बारे में सब कुछ जानने के लिए। तेरा
चंदर अब सचमुच का डॉक्टर बन गया है। अच्छी प्रेक्टिस है उसकी।'
'मेरा चंदर!' सोच कर ही नजमा
को रोमांच हो उठा था। 'कितने बच्चे हैं उनके?' पत्नी के बारे
में पूछना शायद फ़िज़ूल सा सवाल होता। और फिर नजमा तो उन
बच्चों के बारे में ही सोच रही थी, जो कभी उसके अपने हो सकते
थे।
'बच्चों का तो पता नहीं। लेकिन पत्नी का पता है।'
'तो फिर बता न, जो कुछ भी पता है।'
'तू शायद सह नहीं पाएगी। लेकिन फिर भी बता देती हूँ। तेरे जाने
के बाद, मेरी बात ध्यान दे कर सुन, तुझे एक राज़ की बात बताने
जा रही हूँ। तेरे चंदर ने तेरे जाने के बाद आज तक शादी नहीं
की। डाक्टर साहब का बड़ा-सा घर है। घर में अकेला अपनी बूढ़ी
माँ के साथ रहता है, एक नौकर है घर में, बस। न किसी शादी ब्याह
में जाता है और न ही किसी पार्टी में। उसने फ्रेंच कट दाढ़ी भी
रख ली है। अब तो बालों में सफ़ेदी की लट भी दिखाई देने लगी है।
वैसे हमारा फ़ैमिली डाक्टर भी वही है। ग़रीबों का मसीहा बना हुआ
है।'
'शादी नहीं की? सच कह रही है?'
'अब तुम से क्या झूठ बोलूँगी। होली पर घर से बाहर नहीं निकलता।
साधु-सा हो गया है। तेरी तरह, शाकाहारी भी हो गया है। मैं भी
हैरान थी कि तुम दोनों इकट्ठे।'
अब नजमा को कुछ और सुनाई नहीं
दे रहा था। उसके चंदर ने शादी नहीं की। वो आज भी नजमा का है।
चाहे नजमा उसकी हो या नहीं, वह बस नजमा का है, केवल नजमा का!
नजमा का चेहरा आज फिर ठीक वैसे ही लाल हो गया, जैसे छब्बीस साल
पहले हुआ था। बस आज उसे देखने के लिए दुर्गा मासी ज़िंदा नहीं
थी।
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