सुनिए, इतनी जल्दी क्या है?
मैं आहिस्ता-आहिस्ता अपने आप को तैयार कर लूँगी।
मैं यह बिल्कुल बरदाश्त नहीं
कर सकता कि मेरी बीवी के पास हिंदुस्तान का पासपोर्ट हो। अगर
किसी को पता चल गया तो लोग क्या कहेंगे। मेरी तो सारी ज़िंदगी
पर बदनुमा दाग लग जाएगा।
आप सोचिए, पूरी ज़िंदगी एक हिंदुस्तानी हो कर बिताई है। अचानक
अपने वजूद को कैसे बदल लूँ? आप तो जानते हैं मैं थोड़ी
सेंसिटिव नेचर की लड़की हूँ। मुझे तो सुहाग रात मनाने में ही
कितना वक्त लग गया था।
देखिए बेगम, अल्लाह से डरिए, कुरान-ए-पाक भी कहती है कि बीवी
को शौहर की बात माननी चाहिए। इस मामले में हम आपकी एक नहीं
सुनेंगे। आप आज ही पाकिस्तानी पासपोर्ट की अर्ज़ी भर दीजिए। इस
बात को लेकर हम आपसे अब और बहस नहीं करना चाहते।
रात भर रोती रही नजमा। तकिया
भीगता रहा और इमरान करवट बदल कर गहरी नींद सोता रहा। सुबह होने
को रोका जा सकता तो नजमा ज़रूर उसे रोक लेती। लेकिन सुबह हुई
और सुबह के साथ ही शुरू हो गया इमरान का पासपोर्ट राग। नजमा की
रोती हुई आँखों का इमरान के निर्णय पर कोई असर नहीं हुआ। इमरान
की अम्मी और दोनों बहनें इस तरह चुपचाप काम कर रही थीं जैसे
उन्हें इस मसले से कुछ भी लेना देना नहीं है। जुबेदा ने तो आ
कर पूछ ही लिया, इमरान भाई, नाश्ता तो करके ही जाएँगे न आप
दोनों? वैसे आलू के परांठे बना दिए हैं।
नजमा ने कह दिया कि उसकी
तबीयत ठीक नहीं है। वह नहीं खाएगी नाश्ता। इमरान पर इसका भी
कोई असर नहीं हुआ। नजमा हैरान थी कि इमरान का ख़ानदान
कुरेशियों का तो नहीं ही है फ़िर इतनी बेरहमी क्यों?
इमरान मियाँ ने कायदे से बैठ कर आलू के दो परांठे दही के साथ
खाए, उस पर मसाले वाली चाय पी - एकदम फ़ौजी अंदाज़ में, चाय को
प्लेट में डाल कर।
नजमा से रहा नहीं गया, सुनिए, आप ख़ुद ही फ़ार्म वगैरह भर
दीजिए, हम साइन कर देंगे। हमसे नहीं भरा जाएगा। और नजमा लगभग
भागते हुए बाथरूम में जाकर, अंदर से दरवाज़ा बंद करके खुल कर
रोने लगी। उसे याद आ रही थी अपनी सहेली चित्रा की बातें, देखो
नजमा, यह जो संकटमोचन का मंदिर है न, इसकी बहुत मान्यता है।
यहाँ जो भी आ कर मन्नत मानता है, वो ज़रूर पूरी होती है।
मंगलवार को संकटमोचन का व्रत रखना होता है। हनुमान जी बहुत
भोले हैं, जल्दी ही सबकी इच्छा पूरी कर देते हैं। उसने कितने
मंगल को जाकर संकटमोचन के मंदिर से प्रसाद के रूप में मिठाई
खाई है। आज तो मंगल नहीं है; भला जुमेरात को हनुमान जी कैसे
हमारी बात सुनेंगे? नजमा मन ही मन दुआ माँग रही थी, हे
संकटमोचन मुझे इस हालत से बचा लीजिए, आज दफ्तर बंद हो जाए।
मुझे पासपोर्ट देने के लिए अफ़सर मना कर दे। मैं जब भी वापस
अपने मुल्क आऊँगी, आपके मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने ज़रूर आऊँगी।
किंतु जुमेरात को मस्जिद की अज़ान के सामने संकटमोचन की दुआ
नहीं सुनी गई।
और थोड़ी ही देर में आवाज़ भी आ गई, सुनती हैं बेगम, हमने
फ़ार्म पूरा भर दिया है, इस पर साइन कर दीजिए। और नजमा ने
अपने डेथ वारंट पर ख़ुद ही अपने हस्ताक्षर कर दिए।
वक्त ने नजमा के ज़ख़्मों के
दर्द को कम कर दिया। लेकिन उन ज़ख्मों के निशान नजमा की आत्मा
पर स्थाई रूप से चिह्नित हो कर रह गए। वह जीवन भर अपने पति के
इस कृत्य को माफ़ नहीं कर पाई। और इमरान को भी कुछ फ़र्क नहीं
पड़ा, वो भी हमेशा जानबूझ कर नजमा के सामने हिंदुस्तान की
बुराई करता। नजमा ने कविता लिखनी शुरू कर दी। उसकी कविताओं में
हमेशा दोहरा अर्थ छिपा रहता। वह कभी भी इकहरे अर्थ वाली कविता
नहीं लिखती थी। वह अपनी कविताओं में अपने देश, अपनी सहेलियों,
अपने परिवार, अपने वजूद को याद करती रहती। एक बार नजमा ने अपनी
कविता कुछ यों शुरू की, मन करे माथे लगाऊँ मैं वतन की ख़ाक
को/ कर के सजदे सिर झुकाऊँ उस ज़मीने पाक को।
जुबेदा ने झट से कहा था, भाभी जान ये उस ज़मीने पाक नहीं, इस
ज़मीने पाक होना चाहिए। इमरान की झुंझलाहट साफ़ सुनाई पड़ रही
थी, जुबेदा मैं तो ज़िंदगी भर इंतज़ार करता रहूँ, तब भी
तुम्हारी भाभी जान इस ज़मीन को पाक नहीं कहने वाली। ये तो
मुहाजिरों से भी गई गुज़री है।
मुहाजिरों से गई गुज़री - यह कहने वाला मेरा अपना शौहर है!
नजमा कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी। पराया देश, पराये
लोग। अपना पति भी पराया-सा क्यों लगने लगता है। ग़िद्धों का एक
समूह, बेचारी-सी नजमा! किंतु जीवन तो जीना ही होता है। नजमा ने
भी अपने आसपास के माहौल में रुचि लेनी शुरू की।
अपने पति के साथ नजमा फ़ौजी
पार्टियों में भाग लेती तो उसकी ननदें उसे कराची के
उच्च-मध्यवर्गीय माहौल से परिचित करवाती रहतीं। पति इमरान को
बस एक ही रट रहती - कश्मीर आज़ाद करवा कर ही रहेंगे।
नजमा की समस्या यही थी कि उसका शरीर, आत्मा और दिमाग पूरी तरह
से भारतीयता में रंगे थे। उसे पाकिस्तान की मिट्टी पर बारिश की
हलकी फुहारें पड़ने के बाद मिट्टी से वैसी भीनी-भीनी सुगंध आती
नहीं महसूस होती थी जैसी कि अपने गाँव में। उसे लखनऊ
विश्वविद्यालय में बिताया एक-एक पल परेशान करता है। वहीं तो
उसकी मुलाकात हुई थी एक नौजवान से - चंद्र प्रकाश। सब उसे चंदर
कह कर बुलाते थे। कुछ ही दिनों में नजमा चंदर के व्यक्तित्व
में इस कदर रंग गई कि अन्य विद्यार्थियों ने उन्हें चाँद-तारा
कह कर बुलाना शुरू कर दिया। दूर-दूर से एक दूसरे को देख कर
ख़ुश हो जाने वाले चंदर और नजमा ने धीरे-धीरे भविष्य के सपने
बुनने भी शुरू कर दिए थे। चंदर वैसे तो डाक्टर बनना चाहता था
लेकिन उसके मन में एक कवि पहले से विद्यमान था। कृष्ण और राधा
की होली के नगमें वह इतनी तन्मयता से गाता था कि नजमा भाव
विभोर हो जाती। उसे होली के त्यौहार की प्रतीक्षा रहती। अपनी
सहेलियों के साथ मिल कर होली खेलती और अपनी माँ से डाँट खाती।
उसका होली के रंगों में रंग जाना उसकी आवारगी का प्रतीक था।
किंतु माँ को उन रंगों का ज्ञान ही कहाँ था जो नजमा के
व्यक्तित्व पर चढ़ रहे थे। नजमा अब चंदर की सुधा बनने को
व्यग्र थी।
होली खेलने की आदत, सखियों के
साथ मौज-मस्ती, मावे से भरी गुजिया का आनंद, नजमा का बस चलता
तो सारा साल होली ही खेलती। बांग्ला देश के जन्म के बाद की
होली, नजमा के जीवन की आख़री होली, पहली बार चंदर ने अपने
हाथों से नजमा के कंवारे गालों पर गुलाल मला था। गुलाल के बिना
ही नजमा के गालों की शर्म ने उसे जो लाली दी थी, गुलाल उसके
सामने पीला पड़ रहा था। और उन गालों को लाल होते देख लिया था
दुर्गा मासी ने। दुर्गा मासी अपनी भांजी सुपर्णा के साथ चंदर
के विवाह के सपने सजाए थी। नजमा के लाल होते गालों ने जैसे
दुर्गा मासी पर लाल सुर्ख लोहे की छड़ जैसा काम किया था। शाम
होते-होते इस्लाम ख़तरे में पड़ चुका था, नजमा का कॉलेज जाना
बंद; अचानक पूरा घर अभागा हो गया था, मैं तो उस वक्त भी कहती
थी, कि जब सभी लोग पाकिस्तान जा रहे हैं, तो हम ही क्यों यहाँ
रहें। उस वक्त मेरी किसी ने नहीं सुनी। इस अभागन को पूरे शहर
में एक भी मुसलमान लड़का नहीं मिला, जो काफ़िरों के घर जाने को
तैयार बैठी है। हमारा तो परलोक ही बिगाड़ दिया है।
अम्मा चिल्लाए जा रही थी और
अब्बा गु़स्से से आग उगल रहे थे। इससे पहले कि नजमा कुछ भी समझ
पाती, उसे विमान में बैठा कर कराची भेज दिया गया था - इमरान
मियाँ के घर। एम.ए. हिंदी बीच में ही रह गई। शरीर पर इमरान की
मोहर लग गई थी, लेकिन दिल और आत्मा पर चंदर का कब्ज़ा था। होली
के रंग में रंगे चंदर की सूरत ही चंदर की अंतिम तस्वीर थी जो
कि नजमा के दिल में बसी उसके साथ कराची चली आई थी।
जुबेदा तुम्हें मालूम है कि मोहन जोदड़ो और हड़प्पा कहाँ हैं
पाकिस्तान में?
वो क्या होता है भाभी जान?
अरे, तुमने यह नाम कभी नहीं सुने? हमारे हिंदुस्तान में तो
स्कूल के बच्चे भी जानते हैं उनके बारे में।
नहीं तो। वैसे भाभी जान आप बार-बार हिंदुस्तान के गुण गाने कम
कर दीजिए। भाई जान को ये कतई पसंद नहीं है।
हैरान, चुप नजमा अपनी ननद को बताती तो क्या बताती। लेकिन
जुबेदा ने उसकी मुश्किलों को बढ़ा ही दिया, भाई जान ये मोहन
जोदड़ो और हड़प्पा कहाँ हैं पाकिस्तान में?
तुम्हें क्या करना है वहाँ जा कर?
भाभी जान पूछ रहीं थीं।
क्यों नजमा साहिबा क्या आपके हिंदुस्तान वाले मोहन जोदड़ो और
हड़प्पा को भी कश्मीर की तरह हड़प जाना चाहते हैं? उनको कहना
कि यहाँ तो तक्षशिला भी है। उनका बस चलता तो उसे भी बाँध कर
अपने साथ ले जाते। इन सब शहरों का इस्लाम से कुछ नहीं लेना
देना। वहाँ जा कर आप क्या करना चाहती हैं बेगम साहिबा? अगर
आपको कहीं चलना ही है तो मक्का मदीना का सफ़र करिए, शायद आपका
कुछ कल्याण हो जाए।'' चुभती बातें, कटु वचन, हर वक्त याद
दिलाया जाना कि वह हिंदुस्तान की यादों से बाहर आए - नजमा अब
रात को चाँद से बातें करने लगी थी। उसे पूर्णमासी के चाँद में
कृष्ण और राधा होली खेलते दिखाई देते। कृष्ण की पिचकारी से
निकला रंग, चाँद को भी रंगे हुए था। चाँद की चाँदनी का रंग उस
पर चढ़ने लगता। एक फ़ौजी की पत्नी चाहे किसी भी देश में क्यों
न हो, अकेलापन उसका सबसे बड़ा साथी होता है। फिर नजमा तो अपने
साथ अपना अकेलापन सरहद के पार ले गई थी। वह कभी-कभी सोचती कि
उसकी सास और ननदें उसकी मन:स्थिति को समझ क्यों नहीं पातीं।
फिर शीघ्र ही अपने आपको समझाने लगती कि इसमें उनका क्या कसूर।
वे बेचारी उतना ही तो सोच सकती हैं जितना उन्होंने सीखा है।
उसकी सास हैरान भी होती कि उसे कैसी बहू मिली है।
नजमा बेटी तुम बाहर जा रही हो तो पंसारी से थोड़ा सामान भी
लेती आना।
जी अम्मी। मुझे लिखवा दीजिए।
एक किलो मूँग साबुत, मलका, काले चने और ६ टिकिया लक्स साबुन।
ओवलटीन का एक डिब्बा।
अरी बहू तुम ये कौन सी ज़बान में लिख रही हो?
जी अम्मी हिंदी में लिख रही हूँ।
अरे तुम्हें उर्दू लिखनी नहीं आती क्या?
नहीं अम्मी हमारे हिंदुस्तान में तो सभी लोग हिंदी लिखते
हैं।
अरे हिंदू चाहे किसी ज़बान में लिखें, हमें क्या फ़र्क पड़ता
है। मगर तुम तो मुसलमान हो। अपनी ज़बान में लिखो।
मगर अम्मी मुझे तो उर्दू लिखनी नहीं आती है। हाँ पढ़ ज़रूर
लेती हूँ। हमारे हिंदुस्तान में तो बहुत से मुसलमान सिर्फ़
तेलुगू, तमिल या मलयालम जानते हैं। वहाँ हर मुसलमान की ज़बान
उर्दू नहीं है।
या अल्लाह! कैसी लड़की मिली है, नजमा ये बात तुम समझ लो अच्छी
तरह कि उर्दू तो तुम्हें सीखनी ही पड़ेगी।
नजमा की समस्या ये थी कि वह
अपनी मर्ज़ी के विरुद्ध इमरान से विवाह करके पाकिस्तान रवाना
कर दी गई थी। ऐसे में अगर उसे थोड़ा अतिरिक्त प्यार मिल जाता
या फिर उस की मन:स्थिति को समझने का प्रयास किया जाता तो वह
अवश्य ही अपने ससुराल से हिलमिल जाती। लेकिन कसूर ससुराल का भी
कहाँ था। पूरे परिवेश में खलनायक कोई नहीं था। बस स्थितियाँ ही
ऐसी थीं कि नजमा के लिए उनमें पिसना उसकी विवशता थी।
अपनी भोली गल़तियाँ करने से
भी बाज़ नहीं आती थी नज़मा। एक दिन जुबेदा से पूछ ही तो लिया,
जुबेदा, यहाँ कराची में होली कहाँ खेलते हैं?
होली! ये क्या होती है?
यह एक त्यौहार होता है जिसमें सब एक दूसरे पर रंग डालते हैं।
अम्मी ने सुन लिया, नजमा बेटी, तू काफ़िरों जैसी बातें क्यों
करती है। रंग खेलना इस्लाम में हराम है मेरी बच्ची। मैं तो समझ
भी लूँगी क्यों कि मैं भी हिंदुस्तान की पैदायश हूँ, अगर कहीं
इमरान के कानों में ये बात पड़ गई तो ग़ज़ब हो जाएगा। अब तू
शादी करके यहाँ आ गई है बेटी, यहाँ के रस्मो-रिवाज़ में ढाल
मेरी बच्ची। तू भूल जा कि तू हिंदुस्तान से यहाँ आई है। अब तू
इस घर की इज़्ज़त है। इस इज़्ज़त को बनाए रख बेटी। तेरी
ज़िंदगी अब इमरान है, होली नहीं।
नजमा प्रयत्न भी करती कि
इमरान के प्रति उसके मन में कोई कोमल तंतु जन्म ले ले। किंतु
इमरान का फ़ौजी अक्खड़पन उस तंतु को जन्म लेने से पहले ही कुचल
देता। उसे रत्ती भर फ़र्क नहीं पड़ता था कि नजमा क्या महसूस कर
रही है। उसे तो अपनी भूख शांत करनी होती थी जो हो ही जाती थी।
प्रकृति ने बनाए हैं नर और मादा शरीर और प्रकृति ने ही बनाई है
वासना। सृष्टि ने उत्पत्ति के लिए ही वासना को जन्म दिया है।
सभी जानवर उत्पत्ति के लिए संभोग भी करते हैं। इंसान ने अपने
आप को जानवरों से अलग करने के लिए प्रेम जैसी कोमल भावना का
आविष्कार किया है। यदि प्रेम एवं वासना दोनों का समन्वय हो जाए
तो जीवन के अर्थ ही बदल जाते हैं।
प्रकृति ने अपना रंग यहाँ भी
दिखाया और नजमा गर्भवती हो गई। रेहान के जन्म ने इमरान के अहम
की तुष्टि तो की ही। नजमा की थोड़ी इज़्ज़त भी बढ़वा दी। नजमा
सोचती रह गई कि अगर कहीं गलती से भी बेटी पैदा हो जाती तो
इमरान से क्या-क्या सुनने को मिलता। इमरान ख़ुश था कि
पाकिस्तानी फ़ौज के लिए एक और सिपाही ने जन्म लिया है।
फ़ौजी स्कूलों में पढ़ते
रेहान के साथ भी नजमा के कोमल तंतु नहीं जुड़ पा रहे थे। वह
उसे अपने पुत्र से कहीं अधिक अपने पति का पुत्र ही लगता। उसके
नाक नक्श भी इमरान पर ही गए थे। वैसे वह देख कर हैरान अवश्य
होती कि कैसे प्रकृति एक छोटे से बालक में अपने पिता की शक्ल
हू-ब-हू डाल देती है।
समय बीतता रहा। बांग्ला देश
युद्ध को लोग भूलने लगे थे। लेकिन इंदिरा गांधी का नाम आज भी
वहाँ एक बला की तरह लिया जाता था। बांग्ला देश इमरान के मन में
एक नासूर बना बैठा था। वह हमेशा किसी ऐसे मौके की तलाश में
रहता कि वह बांग्ला देश का बदला कश्मीर में ले सके। समय ने
रेहान को भी बड़ा कर दिया। समय ने ही ऐसा भी किया कि रेहान के
किसी भी और भाई या बहन ने जन्म नहीं लिया। इमरान और नजमा ने
रेहान को अपनी-अपनी ओर से बेहतरीन परवरिश देने का प्रयास भी
किया। लेकिन इससे हासिल ये हुआ कि रेहान चकरा-सा गया। दो लोग
जिनकी सोच एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत थी, एक बच्चे को
अपनी-अपनी तरह से परवरिश देने का प्रयास कर रहे थे।
रेहान लंदन में पढ़ाई कर रहा
था। शादी के छब्बीस साल बाद भी नजमा और इमरान के बीच यदि किसी
चीज़ की कमी थी तो वो थी विश्वास की। इमरान का नजमा पर
अविश्वास का सीधा-सीधा कारण था नजमा का हिंदुस्तानियत से बाहर
न आ पाना, हिंदी भाषा का प्रयोग करना, होली में अतिरिक्त रुचि
होना, उसकी स्कूल कॉलेज की सहेलियों की सूची में सभी नाम हिंदु
लड़कियों के नाम होना और बार-बार अपना तकिया क़लाम दोहराना कि
हमारे हिंदुस्तान में तो ऐसा होता है। वहीं नजमा के दिल में ये
बात गहराई तक उतरी हुई है कि इमरान उसे कभी भी कहीं भी छोड़
सकता है। नजमा के दिल से इस घटना को हटा पाना लगभग असंभव है।
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