राजू जो अब एक सफ़ल डॉक्टर था,
माँ से बोला, "मुझको तो हस्पताल पहुँचना ही है। ड्राइव वे से
बर्फ़ हटानी होगी।"
वह जाने को ही था कि अणिमा लेखिका की ओर मुख़ातिब हो बोली,
"आपने राजू का क्या कर दिया। बेचारे को ड्रगडीलर बना दिया।
आपने ऐसा क्यों किया?"
"हाँ और राधिका को मार दिया।" राधिका ही कह रही थी। मुझे
मालूम है कि वह मैं हूँ पर आपने मेरे किरदार को बदल दिया
है।" राधिका भी अब डैंटिस्ट बन चुकी थी और खूब प्रैक्टिस चल
रही थी उसकी।
लेखिका हँस रही थी, "अगर वह कोई बदली हुई लड़की ही है तो
तुमने यह क्यों सोचा कि वह तुम हो?"
"क्यों कि गीता की दो बेटियाँ दिखाई है तो मेरे अलावा और कौन
हो सकता है?"
"वाह! क्या खूब तर्क है!"
तभी लेखिका का अपना बेटा आगे आया, "ममी ने राजू तो मेरे बचपन
पर बेस किया है। मैं ही देखा करता था ऐसे टीवी, राजू का तो
खाली नाम ही दिया है। सच है न ममी?"
लेखिका ने उसके कहे को नज़रंदाज़ करते हुए राधिका से कहा,
"पर तुमने तो कभी अपना नाम बदलने की बात नहीं की?"
"हाँ वह शायद आपने किसी और का कैरेक्टर मुझमें मिला दिया।"
"तो फिर तुम्हारा कैरेक्टर वह हुआ कैसे?"
अब गीता बीच में आई बेटी की
तरफ़दारी का ज़िम्मा लिए, "वही तो बात है। तूने हमारे
कैरेक्टर्स लिए पर उनको पूरी तरह नहीं लिया, उठा के बदल
दिया।"
"आपका मतलब है मैं अपने परिवार की कथा कह रही थी। सचमुच अगर
मैं परिवार की जीवनकथा कह रही होती तो ज़रूर आप ही के चरित्र
उठाती। पर मैं तो उपन्यास लिख रही थी।"
"ठीक है उपन्यास तू लिख रही थी तो फिर हम पर क्यों लिखा?"
"आप पर तो नहीं लिखा। मैं तो कहानी लिख रही थी। अब अगर उनमें
आपको कुछ बातें अपने साथ घटित हुई जैसी लगे तो यह तो बहुत से
दूसरे लोगों ने भी कहा है। मेरा घटनाओं का चुनाव तो जीवनरस
के ही मुताबिक़ होना था न। नवों रस समाहित है उस जीवनरस में,
लड़ना-झगड़ना, प्यार-मुहब्बत, हँसना-रोना, नफ़रत-भक्ति,
वीरता-डरपोकपन, मोह-विरक्ति, सभी कुछ। कभी कोई घटना तो कभी
कोई सारे जीवन-रंग लाने थे न!
अब पिंकी और भी गुस्से में आई, "तू मना नहीं कर सकती कि
कहानी तो तूने हमारी ही ली है। वर्ना इतनी समानता थोड़े ही
हो सकती है। ये तूने ठीक नहीं किया। तुम्हें इसका फल भुगतना
होगा।"
लेखिका को भी गर्मी आ गई, "तुम कहना क्या चाहती हो?"
गुड्डो बोली, "ईश्वर तुम्हें सज़ा देगा!"
"अरे यह तो आपने 'हवन' का संवाद मारा।" अचानक लेखिका के
चेहरे पर मुस्कान बिखरी।
"हाँ तो मेरे संवाद तूने 'हवन' में ले लिए हैं तो मैं क्या
करूँ। मैं तो ऐसे बोलती ही हूँ।"
सारे परिवार ने लेखिका को घेर लिया था और हर तरह से सब बड़े
हिंसात्मक हो रहे थे। सतिंदर जो अब तक चुपचाप सारा खेल देख
रहा था, अचानक बोला, "सँभल के भई ज़रा सँभल के। अब वह इस
सारे किस्से की भी कहानी बना देगी। तुम सब इसे कोई भी अपनी
निजी बात मत बताना।"
गुड्डो ने झट से जवाब दिया, "अब घर की बातें घरवालों से
छिपाई कैसे जा सकती है। जो कुछ हो रहा है इसके सामने है।"
फिर दुबारा बोली, "अब यह तो इसी का फ़र्ज़ बनता है न कि घर
के भेद न खोले! सचमुच घर का भेदी लंका ढाए। यह भी विभीषण है
विभीषण!"
लेखिका ने थोड़ा तेज़ आवाज़
में कहा, "तो कौन-सी लंका ढह गई।"
"ढह ही गई। अब सारी दुनिया पढ़ रही है हमारी भी रामायण।"
"वह तो अच्छा हुआ, आपकी कहानी तो अमर हो गई। आपको तो खुश
होना चाहिए।"
अब गुड्डो मुस्कुरा पड़ी, "हाँ यह तो है। मेरी तो कुछ
दोस्तों ने भी यह कहा कि आप पर तो किताब लिखी गई है। आप तो
ज़रूर कोई बड़ी चीज़ है। यह तो सच है कि किसी पर किताब लिखी
जाए तो लेकिन मेरा नाम तो बदला हुआ है।"
पिंकी ने कहा, "तो क्या हुआ, कहानी तो आपकी है न। मुझे तो
अफ़सोस इस बात का है कि आपको तो इसने अच्छी रोशनी में दिखाया
है, मुझे तो खलनायिका दिखाया है कि मैं आपको घर से निकालती
हूँ। भला यह बताओ कि मैंने आपको घर से कब निकाला। आप ने इसे
झूठ बताया।"
"ले, मैंने कब कहा कि घर से निकाला। मैंने तो इससे कोई बात
ही नहीं की। यह तो इसने अपने मन से लगाया है। क्यों मैंने
तुझे बताया था क्या।"
"नहीं, आपने नहीं बतलाया पर मुझे अपनी नायिका को घर से
निकलवाना ही था ताकि यहाँ की ज़िंदगी के कुछ दूसरे पक्ष भी
दिखाए जा सके। मुझे क्या मालूम कि. . ."
गुड्डो बोल पड़ी, "पर वैसे इसने निकाला तो था। बात तो तूने
सच ही लिखी है। अब चाहे धक्के देकर न निकाला हो पर हालत तो
ऐसी हो ही गई थी।"
पिंकी चिल्ला पड़ी, "चुप
करो। फ़ालतू में मुझे बदनाम मत करो। एक तो आपको वहाँ से
बुलाया। आपके बच्चे इतने बढ़िया सेटल हो गए हैं। अब और क्या
चाहिए आपको? सबसे ज़्यादा तो आपके बच्चे कमा रहे हैं। घर
ख़रीद लिया है, अमीर हो गए हो इतने! शुक्रिया करने के बजाए
यह आपकी असलियत दिखाता है। कि आप घटिया इंसान हो!"
गुड्डो को भी जोश आ गया था, "मुझे घटिया मत कहो। मैं तुम
सबसे बड़ी हूँ। सबको अपने हाथों से पाला है मैंने। तमीज़ से
रहो। मैं तुझे यह कह सकती हूँ। अभी भी तू ठीक बर्ताव नहीं
करेगी तो मैं तुझे सिखा सकती हूँ। होगा अमरीका पर मैं अभी भी
तेरी बड़ी बहन हूँ। मेरा हक बनता है तुझे सिखाने का, ऐसी
बातें मत बोल मुझे।"
''पिंकी,हमेशा अपने बड़े होने का रौब मत मारा करो मुझ पर।
यहाँ यह सब नहीं माना जाता। बड़े-छोटे सब बराबर है। यहाँ तो
अपने बच्चों को भी बुरा-भला कहो तो ये लोग जेल में डाल देते
हैं। आप कहाँ की मूली हो!"
गुड्डो रोने लग गई तो अणिमा ने माँ को सहारा देते हुए पिंकी
से कहा, "आँटी आपको ममी से ऐसे नहीं कहना चाहिए था। आपको
मालूम है वह चाहे कितना भी बदली हो पर पूरी अमरीकी नहीं हो
सकती। बड़े-छोटे का फ़र्क अब भी उनके लिए मायना रखता है।
उनको ऐसी बातें बुरी लगती है। आपसे बड़ी तो वे हैं ही।"
पिंकी ने बेपरवाही से कहा, "यहाँ रहना है तो उन्हें बदलना
होगा।"
पिंकी ने अनमने में बहुत
गहरा घाव किया था। गुड्डो बड़ी थी और छोटों से सिर्फ़
इज़्ज़त पाना उसका हक था। उसने खुद भी अपने से बड़ों को वह
हक दिया था अब अपना हक कैसे छिनने देती।
कोने में अभी तक ख़ामोश बैठी खा रही थी, कनिका जो कांजीवरम
की कत्थइ बार्डरवाली गहरी हरी साड़ी पहने और जूड़ा बाँधे
चुपचाप सारा खेल-झगड़ा देख कर सुन रही थी। ज्यों ही उसने
गुड्डो को रोते देखा तो प्लेट मेज़ पर रखकर उसके पास आ गई।
"आपको इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। अब मुझी को देखिए न! मुझे
भी आँटी ने अपने उपन्यास की पात्र बनाया है। मेरा एक काला
ब्वाय-फ्रेंड बना दिया है। कहने को मैं भी बहुत कुछ कह सकती
हूँ। लड़-झगड़ भी सकती हूँ, पर मुझे मालूम है कि वे तो आराम
से मुकर जाएगी और मैं ही बुरी पड़ जाऊँगी। यों यह भी सच है
कि मैं कोई सबसे अलग तो हूँ नहीं। मेरे जैसे और भी बहुत से
होंगे। फिर जाने किस-किस की वह कहानी हो!"
गुड्डो अचानक कुछ आत्मसजग-सी
हो आई, "नहीं जी बुरा कौन मानता है। इसे कहानी लिखना तो आता
है। अब यही सब अगर हमारे साथ हुआ तो हमें भी तो मालूम था।
फिर हम क्यों नहीं लिख सके उपन्यास। यह तो मानना ही पड़ेगा
कि इसने कुछ नहीं को बहुत कुछ बना दिया। हमारे साथ तो
रोज़-रोज़ ही कुछ न कुछ होता ही रहता है। इसने बना दी तो वह
कहानी बन गई वर्ना याद भी नहीं रहती बातें।"
लेखिका ने हैरानी से कनिका को देखा और सोचा वह सचमुच बहुत
समझदार हो गई थी। किसी ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए कहा,
"तूफ़ान थम गया है।"
इससे पहले कि दूसरे ज़्यादा किस्से में उँगलियाँ डालते,
लेखिका अपने पति से बोली, "खाना हो गया। अब घर चलें।"
पति ने कहा कि अभी तो बर्फ़ गिर रही है। पर लेखिका तो कोट
पहन बाहर बरामदे में आकर खड़ी हो गई और पति से बोली, "इतनी
थोड़ी-थोड़ी तो शायद देर तक चलती रहे। कम से कम हाइवे तो
साफ़ हो ही गई होगी! नहीं, मैं अब यहाँ एक मिनट भी नहीं रुक
सकती। वर्ना जाने कितने किरदारों के भूत पैदा हो जाएँगे
देखते-देखते!"
पति ने हँसकर कहा, "किरदारों के भूत या अवतार?"
"एक ही बात है न?"
"एक कैसे हुई?"
"भूत? नहीं नहीं, अवतार!"
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