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खूब बड़ा घर था गुड्डो का। राजू और उसकी बहू भी साथ रहते थे। गुड्डो की नन्हीं-सी पोती थी उर्वशी। वह गुड्डो की गोदी में बैठी सबको टुकुर-टुकुर निहार रही थी। यों बार-बार वह कोई न कोई शरारत करने से बाज़ नहीं आती थी। कभी सामग्री बिखेरती तो कभी हवन की आग को छूने की कोशिश वह लगातार करती थी और दादी उसे और भी कस कर अपनी गोदी में समेट लेती थी।
जब तक हवन होता रहा किसी ने बाहर ध्यान नहीं दिया कि बर्फ़ का क्या हाल था। मंत्रपाठ के बाद सब बहनों ने मिल कर भजन गाएँ, शांतिपाठ हुआ। घर के अंदर की सारी हवा घी, धूप, सामग्री और हवन के सुगंधित धुएँ से महक रही थी। उस महक को साँसों से भीतर खींचते हुए प्रसाद से मिले सूजी के दानेदार मुलायम और चिकने हलवे को छकने का ख़ास मज़ा आ रहा था सबको। जैसे कि ताज़ी गिरी बर्फ़ का ठंडा भुरभुरापन उनके हाथों में पड़ते ही गुनगुना हो गया है।

देखते ही देखते मेज़ पर खाना भी लग गया था। पूरियाँ तलने की महक हवन की गंध पर हावी होने लगी। सब लोग मेज़ के ईद-गिर्द जमा होने लगे। गुड्डो ने दहीबड़े, गोभी की सूखी सब्ज़ी, रसेदार आलू, खट्टे चने और खट्टा कद्दू बनाया था। सब पूरी के साथ खानेवाली चीज़ें। खाना मेज़ पर लगते-लगते ही सब टूट पड़े जैसे बस इसी के इंतज़ार में बाकी कुछ सह लिया हो! तनिमा-अनिमा, राधिका-कनिका सभी के नन्हें-मुन्ने भी खूब चिल्लपो मचा रहे थे। तनिमा का पति अनुज और 'हवन' की लेखिका तथा कुछ और लोग थोड़ी दूर को हट कर बात करने लगे कि जब तक दूसरे खाना ले लें और मेज़ के गिर्द कुछ जगह खाली हो!

अनुज ने शुरु किया, "मैंने अभी-अभी 'हवन' पढ़ा। मुझे अपनी सास के बारे में बहुत कुछ समझ में आया जो कि पहले नहीं समझता था।
लेखिका हैरतंगेज़-सी, ख़ामोश सुन रही थी। अनुज ने फिर कहा, "सचमुच। उनके चरित्र के बारे में बहुत कुछ मुझे समझ आया है।"
लेखिका ने कुछ ग़ौर से उसकी ओर देखा, "लेकिन. . ."
"ख़ासकर गहनों वाली बात. . ."
"क्या?"
"गुड्डो अपनी बेटी से कहती है कि ससुराल गहने ले कर न जाए, सास रख लेगी। अब समझ में आया कि तनु क्यों अपने सारे गहने यहाँ लाना चाहती थी।"
"लेकिन मुझे तो इस सब का कुछ मालूम नहीं। मैं तो अपनी कल्पना से. . ."
"यह कैसे हो सकता है यह तो हूबहू बोलने का ढंग भी. . ."
वह हक्की-बक्की अनुज को देख रही थी जबकि पिंकी टपक कर उनकी बातचीत में शामिल हो गई। एकदम गुस्से में बोली, "यैस यू हैव बीन वाशिंग डर्टी लांडरी इन द पब्लिक। तूने तो यह दिखाया है कि पिंकी ने गुड्डो को घर से निकाल दिया। मैंने थोड़े न उसे घर से निकाला था? तूने जिस तरह से ज़बरदस्ती घर से निकालने की बात की है ऐसा तो नहीं हुआ था। सच को इस तरह मत मरोड़ो।"
"सच कौन लिख रहा था। मैं तो कहानी लिख रही थी।"
"कहानी लिख रही थी तो हमारी कहानी क्यों लिखी? कुछ और लिखना था।"
"मैं कहानी को किसी अनुभव पर आधारित करना चाहती थी ताकि उसमें सच्चाई का रंग हो, खुशबू हो, कि वह विश्वसनीय लगे, सिर्फ़ कपोल कल्पना वाली कहानियाँ मुझे अच्छी नहीं लगती, उनमें जीवन रस नहीं होता।"
"तो जीवनरस भरने के लिए तुझे हमारा जीवन मिला था. . ."
"आपका जीवन तो खूब बड़ा, खूब लंबा-चौड़ा है और वैसा ही रहे। मैं तो एक दिलचस्प टुकड़े की खोज में थी जो एक ख़ास तरह के जीवन का, तौर-तरीके का नमूना यानि कि प्रतिनिधि बन सके इसलिए कुछेक. . ."
"तो हम ही मिले थे तुझे?"
"नहीं आप की बात नहीं, मैं तो अपने आसपास से खोज रही थी - जिसे पहचान सकूँ, समझ सकूँ जो मेरे अपने अनुभव के क़रीब हो।"
"तो तेरे रिश्तेदार होने का हमें यह नुकसान हुआ कि तू हमी को आसपास. . ."
"नहीं मेरा यह मतलब नहीं, मैं आपको लेखक की रचना-प्रक्रिया समझाने की कोशिश कर रही हूँ। अनुभव तो एक बेस होता है जिस पर उपन्यास की इमारत खड़ी की जाती है, उसमें कल्पना, शिल्प यानि कि उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो अनुभव से इतर है, मेरा मतलब कि प्रामाणिक तो वह भी है, मेरा मतलब कि जो कल्पना से लिया जाता है उसमें भी प्रामाणिकता यानि कि सच्चाई तो रहती ही है, सच्चाई जिसे कि काव्य-सत्य भी कह सकते हैं, यानि कि ज़रूरी नहीं कि वह घटना सचमुच किसी के साथ घटी ही हो पर लेखक के अनुमान में वह घटनीय है, यानि कि किसी के भी साथ घट सकती है, चाहे वह आपके या मेरे साथ व्यक्तिगत रूप से घटी या न घटी हो, और शायद कभी आपके या मेरे जान-पहचान वाले के साथ न ही घटी हो पर संभावनीय हो, तो मेरा मतलब है कि. . ."

सच तो यह है कि लेखिका अपनी बात समझा नहीं पा रही थी और और उलझी जा रही थी लेखकीय शब्दजाल में। भला रचना-प्रक्रिया जैसा शब्द, वह भी संस्कृतनुमा हिंदी का, भला किसी के पल्ले पड़ सकता था उस पंजाबी-अमरीकी परिवार में। वह तो भूल गई थी कि कब, क्या और क्यों और कैसे लिखा था उसने 'हवन'।

'हवन' के प्रकाशित होने के कई साल बाद यह बातचीत हो रही थी। वह तो कबकी इस किताब से बाहर आ गई थी और अब किसी दूसरे उपन्यास में जी रही थी। लेकिन परिवार वालों ने उसकी ख़्याति फैल जाने के बाद पढ़ने की ज़रूरत समझी थी। इसलिए उनके लिए यह सब ताज़ा-ताज़ा ही घटा था और अगर लेखिका ने लिखा है तो लिखने वाले को तो अपना हर लिखा हुआ हर्फ़ याद होना ही चाहिए!
न ही पिंकी में वह सब सुनने की ताब थी। वह बोलती गई, "अपनी शोहरत के लिए कहानी लिखनी थी। हमें क्यों निशाना बनाया?"
तनु झमकती हुई आई और अनुज के गले में बाहें डाल इतराती हुई बोली, "जब से आप का 'हवन' पढ़ा है, अनुज मुझसे लड़ाई करता रहता है। तू ऐसी है, तेरी माँ ऐसी है, तेरा खानदान ऐसा है। इसको तो मुफ़्त में मसाला मिल गया है मुझसे लड़ने का। आप तो हमारा डाइवोर्स कराओगे!"
पिंकी लेखिका को कंधे से झिंझोड़कर बोली, "मुझे यह बता तूने खुद को किरदार क्यों नहीं बनाया। हमीं को क्यों बनाया। तीन बहने दिखाई है। चौथी कहाँ गई? मर गई चौथी? ज़रा देखते उसके बारे में क्या कहती?"
लेखिका मुस्कुराते हुए धीरे से बोली, "चौथी तो लिख रही थी बाकी तीनों के बारे में. . ."
"वही तो, अपने को भी एक कैरेक्टर बनाना था और दिखाना था कि कितनी घटिया है जो गंदी लांडरी धोती है घर की!"
गीता जो यों चुपचाप रहती थी और कभी किसी से लड़ती या ऊँचे बात नहीं करती थी, धीरे से लेखिका के कान के पास जाकर बोली, "वैसे यह तूने अच्छा नहीं किया। मैं तो इनको कभी भी तेरी किताब न पढ़ने दूँ, हमारे घर में तूफ़ान मच जाएगा। मैं तो इनसे छुपा-छुपा के रखती हूँ तेरी किताब। मैं पूरी पढ़ने के बाद घर पर रखूँगी ही नहीं तेरी किताब कि इनके हाथ न पड़ जाए।"
गुड्डो जो गरम-गरम पूरियाँ तलने में लगी हुई थी, मेज़ पर पूरी की थाली रखने आई और देखा कि अभी भी सब लेखिका को घेरे थे तो वह भी उनमें शामिल हो गई।

"यह तूने मेरा जुनेजा के साथ अफ़ेयर क्यों दिखा दिया। उसकी बीवी उससे लड़ती है कि वह मेरे साथ अफेयर कर रहा था। देख तो कैसे बैठे-बिठाए मुसीबत डाल दी तूने। अब वो मेरी मदद को भी नहीं आएगा। वह तो कहता है कि मैंने उसे फ़ालतू में बदनाम कर दिया।"
"लेकिन मुझे तो मालूम भी नहीं कि मैं तो गुड्डो का कोई प्रेमी दिखाना चाहती थी। यह उपन्यास की रचना की एक ज़रूरत थी। वही जो काव्य-सत्य की बात कर रही थी मैं। उसका आपसे तो कुछ वास्ता नहीं था। मेरा मतलब वह तो कल्पना की बात थी।"
"क्यों! तूने तो सचमुच का डाक्टर दिखाया है, उसे मैं जानती हूँ। उसने हमारी मदद भी की है। यह सब तो ठीक था ही पर तूने मनमर्जी से प्रेम-संबंध भी करा दिया।"
लेखिका ने ग़ौर किया कि गुड्डो के भीतर अचानक कोई तार जैसे छिड़ गया था।
शायद कुछ दबा भीतर हो जिसे 'हवन' में अभिव्यक्ति मिल गई हो - लेखिका ने सोचा और स्वाद लिया गुड्डो के शांत जल में पत्थर फेंकने का।

एक तरफ़ उसे सबकी टिप्पणियों का आनंद आ रहा था, दूसरी ओर मन होता सिर पीट ले अपना। किसको क्या समझाए आख़िर! जो ख़ुद नहीं लिखता क्या वह लिखने की सारी यात्रा, प्रक्रिया या सार्थकता को कभी समझ सकता है! खीझ भी हुई कि कैसे अनपढ़ों के बीच फँस गई थी। जिनको उसने अनपढ़ कहने का मन ही मन साहस किया था वे सारे के सारे इस समाज के सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग माने जाते थे - डॉक्टर, इंजीनियर, कारपोरेशंस में बड़े-बड़े ओहदोंवाले!

बर्फ़ अभी भी तेज़ी से गिर रही थी। सर्दी के मारे खिड़कियाँ-दरवाज़े सब बंद थे। पूरियाँ तलने से कमरे में धुआँ और चिकनी गंध भरती जा रही थी। मसालों की गंध तो वहाँ पहले से ही भरी थी। खाना खा कर सब निकलने को तैयार थे। पर फुटभर बर्फ़ में से निकलने की तैयारी किसी ने नहीं की थी। दरअसल ऐसे भारी तूफ़ान की ख़बर मौसमवालों के पास भी नहीं थी। अचानक तूफ़ान हवाओं के साथ न्यूजर्सी की ओर मुड़ गया था।

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