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इस बीच रति को दिल का दौरा पड़ा था। घबराकर तारक को फोन कर डाला था रजत ने।

तारक आया तो रजत उसे अपनी गाड़ी में साथ हस्पताल ले आता जाता रहा। दोनों में एक दोस्ती का नाता तभी बना था। दुनिया जहान की बातें, रजत ने उसे घर पर ही ठहराया था। तारक तीन दिन बाद चला गया था वापस, पर दोनों की फोन पर बात हो जाती। रति अस्पताल से वापस आ गई थी। धीरे-धीरे वह सामान्य होकर वापस अपना काम सँभालने लगी।

रति का जन्मदिन फिर से आनेवाला था। रति ने उसे कहा था, ''रजत अपने आप ही बोल रहा है कि तुम आ जाओ इस बार मेरा जन्मदिन मनाने, बोलो आओगे?''
तारक पुरानी बात याद करके घबरा गया था, ''नहीं।'' फिर से उसके भीतर सब घुमड़ने लगेगा स़बको तकलीफ़ होगी।''

यह सच भी था। रजत कभी तो उसके प्रति बहुत मित्रवत हो जाता, वही अचानक गुस्सा, ईष्या उभर आते और वह अक्सर बेरूखी दिखाता। अचानक तारक को ऐसा महसूस हुआ जैसे रति उससे खुद यह सब कह रही हो। पल भर को वह भूल ही गया कि रति के ही अंत्येष्टि कर्म में वह शामिल हुआ है और दरअसल उसके यहाँ आने की एक वजह यह भी है कि वह रति को लिखे अपने खत वापस ले जाना चाहता है। उसे डर है कि कहीं वे खत रजत के हाथ न पड़ जायें।

तारक रति के साथ काम करनेवाली इस महिला डॉ. लोपेज़ से पहले मिला हुआ था। इस भीड़ में एक वही जानपहचान की थी। तारक का मन हुआ उससे पूछे कि क्या वह रति की दराज में उसके कागज़ात पर नज़र मार सकता है। तारक को अंदाज़ था कि उसके खत वह दफ्तर की मेज़ की दराज में रखती थी। पर वह जानता था कि ऐसा करना मुमकिन था नहीं। आखिर तारक को कैसे हक पहुँचता था रति की दराज खुलवाने का, वह तो एक परिवार के मित्र की हैसियत से वहाँ था। रजत ही कह सकता था, देखा जाए तो वे लोग खुद भी रजत से ही कहेंगे कि रति का सामान वह ले जाए। तब तो रजत की आँख ज़रूर उन पर पड़ेगी, तब शायद उसको बुरा लगेगा कि रति के साथ तारक का एक अपना रिश्ता था, उन तीनों की आपसी दोस्ती के बाहर। रजत को बेतहाशा चोट लगेगी, अब जबकि वह रति से जवाबतलबी भी नहीं कर सकता। रति अब कोई सफ़ाई नहीं पेश कर पाएगी। तारक के हक में कुछ भी नहीं कह सकेगी। किसी तर्क़ से रजत को लाजवाब नहीं कर पाएगी। नहीं वह ऐसा नहीं कर सकता, न यह रति के प्रति सही होगा न रजत के प्रति। उसे किसी न किसी तरह से खत पाने है।

रास्ते में आते हुए हवाई जहाज़ में तारक जब लगातार रति के साथ की अपनी ज़िंदगी के गुज़रे पल दुहरा रहा था, बार-बार उसे ध्यान आता कि जब से रति को दिल का दौरा हुआ था, वह उससे कहना चाहता था कि उसके खत विनष्ट कर दे। एक बार उसने बात उठाई तो रति बोली, ''क्यों? तुम्हारे खत मेरे दफ्तर की दराज में सेफ पड़े हैं।''

शायद वह बिना कहे यह भी समझ गई थी कि तारक का इशारा किस ओर है, तभी बोली, ''देखो जब तक मैं ज़िंदा हूँ, मैं उनको फाड़ कर न तो फेक सकती हूँ न जला सकती हूँ। एक बार मर गई तो क्या फ़र्क पड़ता है कि कोई क्या करेगा उनके साथ। तुमको तो फिक्र होनी नहीं चाहिए, अब तो वे मेरी अमानत है।'' यह बातचीत दो एक महीने पहले की ही होगी। तारक ने सोचा था बात कभी फिर उठाएगा, पर उससे पहले ही।

तारक को भी तब यह अंदाज़ नहीं था कि रति के इलावा रजत से भी उसका नाता था। रति के जाने के बाद वह खुद को रजत के बहुत करीब महसूस कर रहा था और उसे लगा कि उसके खत रजत को उससे फिर दूर धकेल सकते थे। पर वह किसी तरह भी रजत को खोना नहीं चाहेगा, रजत कैसे रति का ही एक हिस्सा था।

उसने देखा लोगों से घिरा रजत का चेहरा बेहद निचुड़ा हुआ, रक्तहीन और सूखा-सा लग रहा था। रात भर सोया नहीं होगा इसलिए आँखों के नीचे कालापन उतर आया था। आँखें काफी अंदर को धँसी हुई थी, तारक को लगा कि वह शायद रजत से बेहतर हालत में है। फिर उसे रश्क भी हुआ, रजत अपने गम का खुला इज़हार कर सकता है, तारक को यह सुविधा नहीं थी। वह किसी उजड़े आशिक के रूप में इस महफ़िल, इस मौत का सोग करनेवालों की महफिल में अपना असली चेहरा, अपना आशिक का चेहरा नहीं दिखा सकता था। अचानक उसकी आँखें भर आई अपने खोने की शिद्दत के अहसास से।

रति के वाक्य उसके कान में सरसराने लगे। जबसे उसे दिल का दौरा पड़ा था, वह जीवन की क्षणभंगुरता या इंसान के नाचीज़ होने के अस्तित्ववादी दर्शन को बहुत बघारने लग गई थी। शायद अपने जाने का अहसास उसे कहीं बहुत गहरे उदास कर जाता था। पर वही वह उस जाने को एक अवश्यंभावी, अकाट्य सत्य की तरह स्वीकार करके उससे समझौता भी करने लग गई थी। एक दिन उसने हडसन नदी के दूसरे सिरे से मैनहैटन की ओर देखते हुए कहा था, ''देखो तो इन छोटे छोटे डिब्बा में कितने लाखों लोग रहते है। कितने छोटे है हम लोग! इतनी तंग ज़मीन पर कितनी बड़ी तादाद में समा जाते हैं। एकदम हज़ारों की संख्या में साथ-साथ जुड़े कीड़ों की तरह! फिर भी अपने आप को कितना बड़ा मानते हैं! राजनीति, धर्म और नैतिकता की तख्तियाँ चिपका कर कितना बड़ा होने का भुलावा देते रहते हैं खुद को!''

रजत को रति की इंसान को नाचीज़ करार देने वाली बातों से हमेशा बहुत चिढ़ छूटती थी। बोला था, ''धर्म नैतिकता जीवन के सत्य है, इनको तुम भुलावा देने वाली चीज़ कैसे कह सकती हो? इंसान इसीलिए तो बाकी जीवों से अलग है कि वह सोच सकता है।''
''और सोच के धरातल पर हर चीज़ को गलत या सही साबित कर सकता है। नैतिकता को गढ़ सकता है या पूरा सत्यानास कर सकता है, ठीक है, मुझे तो उसमें कोई नुकसान नहीं।''
''हाँ नुकसान किसी का है तो मेरा ही।'' रजत ने कहा तो तारक झट से बोल पड़ा था, ''नुकसान तो तब होता जो मैं उसे भगा के ले जाता!''
रजत ने संजीदगी से कहा, ''अब इसका दिल बँट गया है त़ो आधी संपत्ति तो लुट ही गई न! तुम भगा ले जाओ तो भी फ़र्क नहीं पड़ेगा। यह आधावाला हिस्सा तब भी यहीं रहेगा।''

सचमुच रजत का यह विश्वास सही था। रति और उसके रिश्ते की शुरुआत के दिनों में भावना के प्रवाह में बहता तारक रति के साथ एक नई ज़िंदगी के किवाड़ खोलने की बात सोच पाया था पर जल्द ही उसे अहसास हो गया था कि रति कहीं बहुत गहरे जुड़ी थी रजत के साथ कि वह कभी उस रिश्ते को तोड़ेगी नहीं। यों रजत भी शुरू के दिनों में भीतर से हिल गया था। यह झटका कि रति रजत को छोड़ किसी और को मन में ला सकती है उसे बहुत दूर जा फेंक आया था। फिर रति ने खोये विश्वास को वापस लौटा दिया। रजत अपने आधे नुकसान के साथ धीरे-धीरे शायद समझौता करना सीख गया था।

तारक को लगा कि वह आधे के साथ समझौता करना सीख गया था।
तारक को लगा कि वह आधे के साथ समझौता नहीं था। रजत के भीतर कहीं पूरे का भरोसा भी था, जैसे कि रति को सिर्फ़ एक बदलाव चाहिए था, जो तारक था। वर्ना वह पूरी रजत की ही थी, क्योंकि मौका आने पर रजत अपना पूरा हक जताने से चूकता नहीं था। हमेशा यही मानता था कि पहला हक उसी का है। तारक हमेशा बाद में आएगा, जैसे कि पेट भर लेने पर बचा हुआ भोजन किसी को भी दिया जा सकता है क़ुछ ऐसा रूख।

पर रति बचा हुआ भोजन नहीं थी, किसी तरह से भी उच्छिष्ट या अवशिष्ट नहीं, जो उसने रति में पाया था वह पहले ज़िंदगी में कभी नहीं मिला था। रति ने उसकी पहचान करायी थी परिपूर्णता से। रति को जानना ही जैसे उस संपूर्णता को छूना था। शायद रजत ने भी रति में ऐसा कुछ पाया था जो आम औरतों से अलग था। रति शादी के इतने बरस बाद भी उसे अपने में उलझाये थी और वह उससे मुक्त नहीं होना चाहता था। रति में बाहरी खूबसूरती के बावजूद व्यक्ति के दिमाग को भी उलझाये रखने का जो गुण था, उससे सच में जो भी पास आता, और खिंचता जाता। रति में भरपूर प्यार लेने की चाह थी तो भरपूर देने की क्षमता भी। इसीसे अभी भी उससे जी तो नहीं भरा था रजत का, शायद वह ऐसी औरत थी जो हमेशा नित नवीन होती रहे, सौंदर्य की एक परिभाषा यह भी तो दी गई है कि जो नित नूतन होता रहे वही सौंदर्य है। रति भी कभी पुरानी नहीं पड़ती। रोज़ कुछ नया होता है उसके पास, कोई नया ख़याल, कोई नई सूझ, कोई नई उकसाने उलझाने वाली बात, शायद इसे दिमागी सौंदर्य कहना होगा, जो कुछ भी उसमें था, बस खींचता था अपनी ओर, मोहता था, शायद क्या पर उँगली धरना उसे परिधि में बाँधने की भोंडी कोशिश होती!

कुछ द्वंद्व उठता तो रति रजत के ही हक में बोलती थी। रजत के हितों को सुरक्षित कर लेने के बाद ही वह तारक को उसका हक देती। तारक को खीझ भी होती कि रजत उसके जीवन में चूँकि पहले आ गया था इसीलिए हर चीज़ में ही पहला हक उसी का बनता है। पर उसने रति से अपनी यह मन:स्थिति कभी ज़ाहिर नहीं होने दी थी। पिछले साल वैलन्टाईन डे पर ऐसा ही तो हुआ था। दरअसल दोनों को अंदाज़ नहीं था कि उस वीकैंड पार वैलन्टाईन डे पड़ता था। तारक को किसी काम से रति के शहर आना था और दोनों ने मिलने का कार्यक्रम बना डाला था। रजत से रति की बात हुई होगी तो उसने भुनकर कहा था, ''तो वह तुम्हारा वैलन्टाईन है जो उस दिन आ रहा है।'' रति के कहने पर कि उसे तो याद भी नहीं था, वह बोला था, ''मैं नहीं मान सकता कि तारक ने यों ही आने का बनाया है इस वीकैंड पर।''

रति ने तारक से सारी बात बतलायी तो उसने सोचा था वह खुद फोन पर रजत से कहेगा कि उसे सचमुच याद नहीं था, पर फिर बात बढ़ाने न देने के लिए चुप रह गया था और जाने का प्रोग्राम भी स्थगित कर डाला था। तब उसे दो बातें तकलीफ़ देती रही थी, एक तो यह कि रजत हमेशा उसके सामने प्राथमिकता ले जाएगा, दूसरी यह कड़वी सच्चाई कि रति कभी भी उसकी ज़ाहिरी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं बन सकती थी। उसकी कमर में हाथ डाल कर वह कभी किसी से यह नहीं कह सकता था ''रति मेरी है।'' तब उसे बेहद रश्क होता रजत से। क्या रजत को सचमुच अहसास है कि रति तारक के लिए क्या है, कि वह उसकी ज़िंदगी का केन्द्र, उसकी ज़िंदगी का अर्थ बन चुकी है। यह कोई हल्का फुल्का ठरकपन नहीं, उसकी ज़िंदगी का रेशा रेशा गुँथ गया है रति से। शब्द में अर्थ की तरह समायी है रति उसके अस्तित्व में।

इस गुथन में वह खुद ही घुटता रहेगा हमेशा।

अब रति नहीं है तो वह घुटन और भी कस रही है उसे! क्या अब वह रजत से कह पाएगा? अचानक उसका मन हुआ कि रजत से कह दे, ''तुमको मालूम है कि मुझे सचमुच पता नहीं था कि उस दिन वैलन्टाईन डे था, वर्ना ऐसी जुर्रत न करता।'' कि वह जानता है, अच्छी तरह समझता है अपनी और उसकी टैरीटरी की परिधियों को! कि रजद शायद कभी जान न पाएगा पर उसने हमेशा एक दोस्त की तरह रजत का, रजत की ज़रूरतों का ख़याल रखा है स़िर्फ उपर उपर से सामाजिक उपचार की तरह नहीं, भीतर से किसी दिली रिश्ते से फिर वह रिश्ता चाहे रति के ज़रिये से ही बना हो!

हो सकता है रजत यह सब महसूस करता हो, या न भी करता हो! पर उसके चेहरे पर भी मित्रता का स्वागतमय भाव हमेशा दिखा है तारक को, सिवा उन क्षणों के जब कि सचमुच उन दोनों के बीच ''टैरिटोरियल'' झगड़े हुए। तब भी वे शायद इंसानी आचार या परस्पर सद्भाव की सीमाओं को कभी लाँघे नहीं।

पर फिर भी तारक का रति के साथ का रिश्ता ऐसा नहीं कि रजत के साथ जिसे बाँट सके। रति उसकी हस्ती का अभिन्न हिस्सा है। वह कोई और कैसे हो सकता है। रजत रति नहीं हो सकता, चाहे उसके कितने ही करीब रहा हो।

उसे किसी न किसी तरह से अपने खत पाने ही है। लेकिन कैसे?
और यही तारक बार बार उलझ जाता है। अपनी यह परेशानी वह किसी के साथ बाँट नहीं सकता! रजत से तो कतई नहीं।
ख़त अगर सचमुच रजत के हाथ पड़ गए तो?
लेकिन रति ने यह भी तो कहा था कि अगर वह नहीं रही तो क्या फ़र्क पड़ता है? पर रजत सचमुच ख़त पढ़ ले तो शायद उसकी पीड़ा पर तब क्रोध और घृणा का कोई विकराल भूत हावी हो सकता है, हो सकता है कि खत पढ़कर रजत रति को खुद से छिटक दे! लेकिन उससे क्या! तब शायद रति और भी तारक के करीब आ जाए! और भी उसकी अपनी हो जाए! सिर्फ़ उसी की समूची!

एक रात पहले उसे ऐसा ही कुछ सपना आया था। रति की मौत की ख़बर के बाद यही उसका याद रह जानेवाला सपना था। वह रति की अंत्येष्टि में गया है और एक अंधेरा-सा बैठकनुमा कमरा है, कमरे में कुछ काग़ज़ बिखरे पड़े हैं, वह एक काग़ज़ उठाता है, वह उसी का रति को लिखा खत है और कई लोग उसके आसपास हैं और वह सोचने लगता है कि कहीं इन लोगों ने भी तो उन्हें नहीं पढ़ा, तभी रजत का चेहरा उसकी ओर बढ़ता है और वह काग़ज़ छिपाने की तरकीब सोचने लगता है, इसी उधेड़बुन में उसकी आँख खुल गई थी तो जिस्म पसीने में नहाया हुआ था।

एक रजत ही यहाँ उसके सबसे करीब है और रजत ही उसे अजनबी-सा लगने लगा है। अब तक उसका रति का संदर्भ था, अचानक उस संदर्भ से कटकर न होने जैसा हो रहा है। तारक को अजीब-सी मानसिक दूरी और भयंकर अकेलापन सा महसूस हुआ। वह यहाँ आया ही क्यों था? रति की नामौजूदगी में कितना बेमानी है उसका यहाँ होना। रजत को भी कितना फिज़ूल सा लग रहा होगा उसका यहाँ उपस्थित होना, जिन लोगों से घिरा है वे तो सचमुच उसके अपने हैं, तारक तो दूर से भी अपना नहीं, मृत से तारक का जो भी नाता रहा हो, उसके किसी दूसरे से तो नहीं था। उसके कॉलेज कामों से लौटे बच्चे भी तारक को पहचानते नहीं थे। तारक ने ही उनकी शक्लों और व्यवहार से अंदाज़ लगाया था और हॉलवे में लगी तस्वीरों से उन्हें पहचान पाया था।

तारक के पास रजत से कहने का कुछ नहीं था। उसका कुछ भी कहना रजत को खल सकता था। उल्टे तारक को लगने लगा कि रजत शायद सोच रहा हो कि अब क्यों ज़ख्मों को याद दिलाने आ गए हो! कुछ भी हो तारक ने उसे पीड़ा तो पहुँचायी ही थी। क्या अब उसका कुछ भी करना रजत के कष्ट को कम कर सकता था? उसने निगाहों से ही अपना दुख बयान कर दिया था, जो शायद रजत ने स्वीकार भी लिया था, शायद एक औपचारिकता की तरह, जैसे वह दूसरे बहुत से जमा लोगों की शोकाभिव्यक्तियाँ स्वीकार रहा था, उससे कुछ अलग नहीं। शायद तारक का वहाँ होना ही रजत को खल रहा हो पर वक्त की नाजुकी की वजह से वह कुछ कहना न चाह रहा हो! तारक एकदम परेशान-सा उठ खड़ा हुआ।

कुछ लोग रजत के गले लग रहे थे, शायद उससे बिदा लेकर जा रहे थे। तारक ने सोचा वह अब कहेगा कि रति के पास कुछ उसके ज़रूरी काग़ज़ात थे, अगर रजत उसे काग़ज़ों वाली जगह पर ले चले तो वह खुद ही देख लेगा। तारक यंत्र की गति से रजत की ओर बढ़ा।

रजत जैसे किसी को देख कर भी देख नहीं रहा था। उसकी आँखें किसी शून्य पर टिकी थी। तारक को लगा उस लोगों के घिराव में, जिसमें उसके अपने अज़ीज़ दोस्त और रिश्तेदार थे, रजत ने उसे कोई विशेष लक्ष नहीं किया। तारक के भीतर अजीब सूनापन-सा आ घिरा, लगा जैसे रति रजत में कहीं नहीं थी।

सिर्फ़ भ्रम-सा हुआ था उसे उसके वहाँ होने का! जैसे कि उसके रति के नाते से वहाँ होने में ही कोई भारी असंगति थी। उसे लगा वहाँ बैठे अजनबी से लोग उसे घूर रहे थे। उसके वहाँ होने पर प्रश्नचिह्न लगा रहे थे। पता नहीं कितने ही अजनबियों से घिर गया था तारक! यहाँ तक कि रति की उस तस्वीर में भी उसे रति नज़र नहीं आ रही थी। वह भी कोई अजनबी छाया थी।

यह दुनिया उसकी नहीं थी। अगर वह रति की दुनिया रही भी हो तो जिस रति को वह जानता था उस रति के लिए भी यह दुनिया अनस्तित्व थी, विसंगत भी।
उसने रजत को बहुत सँभलते-सँभलते गले से लगाने की औपचारिकता की। उसे लगा जैसे वह किसी अजनबी को गले लगा रहा था। रति जितने उसके अपने पास थी, उतने और कहीं नहीं, किसी के पास नहीं। दरअसल रति और कहीं नहीं थी, उसके भीतर थी, बस। उसे रति को वही, अपने भीतर ही कहीं संजोये रखना था, भीतर ही खोजना था, भीतर ही तसल्ली करनी थी। किसी और से बाँट नहीं सकता था रति को।

रजत के दोनों कंधों को हल्के से दबाकर उसने धीरे से कहा, ''टेक केयर'' और मुड़ा तो बिना पीछे देखे बाहर निकल गया।

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जनवरी २००४

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