छत से फ़र्श तक के लंबे शीशों से
जड़ी उस बड़ी सी बैठक में खूब सारी दिन की रौशनी भरी हुई थी।
फ़र्श पर बिछी सफ़ेद चादरों पर सफ़ेद वस्त्र पहने ढेर सारे लोग
उस रौशनी का ही हिस्सा लग रहे थे। कमरे में घुसते ही तारक को
लगा जैसे उस श्वेतता में घुले मौत के सर्दपन और जड़ता ने अचानक
उसके भीतर को जकड़ लिया है। बीचोबीच फूलों की माला चढ़ी एक
बड़ी-सी रति की तस्वीर थी जिसका धूप, दीप और गीता के श्लोकों
से अभिषेक किया जा रहा था। रति अब तस्वीर भर थी! तारक की
स्तब्ध पनियायी आँखें निस्सहाय-सी रजत को खोजने लगी।
रजत सारा वक्त लोगों से घिरा ही
रहा था। उसकी माँ, उसके बच्चे, और दूसरे रिश्तेदार, कोई न कोई
उसके आसपास था ही। उन दोनों की आँख एक दूसरे से दो एक बार
मिली। पर रजत अपने से बाहर नहीं आ पाया था। तारक ने किसी तरह
अपनी शोकभावना व्यक्त कर दी थी। न भी व्यक्त करता तो क्या, रजत
को तो खुद भी अहसास होगा उसकी अंतर्भावना का। एक वही तो है इस
भीड़ में जो जानता है कि वह क्यों यहाँ है। बाकी तो तारक किसी
से परिचित ही नहीं। सिवाय कुछेक रति के कुलीग्ज के।
एक दो
कुलीग्ज से ही उसकी बात हुई रति के बारे में। वे उसे परिवार का
मित्र मानकर बात कर रहे थे।
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