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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


यों परिवार का मित्र तो वह था ही, पर इससे अलग या ऊपर भी कुछ था, यह शायद रजत के इलावा और कोई नहीं जानता था। जबकि रजत भी पूरा कहाँ जानता है, ख़ास तौर से वह सब कुछ जो तारक महसूस करता रहा है, या जो कुछ तारक और रति के बीच में रहा या अभी भी जिसका बहुत कुछ बचा था।

यों तारक ने बहुत बार सोचा कि अब रति नहीं रही तो उसके यहाँ जाने का कोई फ़ायदा नहीं, उसकी तकलीफ़ बढ़ेगी ही, फिर लगा कि नहीं उसे रजत से मिलने जाना होगा। रजत भी तो उसका दोस्त है। यों रति उन दोनों के बीच न होती तो वे शायद बहुत गहरे दोस्त हो सकते थे। फिर भी वह खुद को कई तरह से रजत के करीब महसूस करता था और रजत भी बहुत मामलों में उसी से सलाह करके चलता था। उस पर भरोसा करता था जो कि उसके मन के दोस्ती के भाव को ही जताती थी। चूँकि तारक की विशेषता दिल के रोगों में थी, वह रति के हार्टअटैक के बाद से उस से अक्सर रति के बारे में सलाह लेता। यहाँ तक कि रति से भी कोई शिकायत होती तो तारक से ही कहता, ''देखो न! इसका कोलेस्ट्राल इतना हाई चल रहा है और मैड़म चीज़, मीट सभी कुछ खाती है। अभी रेस्तराँ ले चलो पूरा का पूरा स्टेक गटक जाएगी। कैसे करूँ, यह तो खुद को नुकसान पहुँचाने से बाज़ नहीं आती।''
और तारक तब टिका देता, ''कैसी डाक्टर हो तुम रति? मरीज़ों को उपदेश देती रहती हो और खुद..."
फिर उसने खुद ही एक विशेषण गढ़ा था रति के लिए ''नानकंप्लायंट'' यानि कि जो कुछ भी कहा जाएगा उसका विरोध ही करेगी रति। और किसी वजह से नहीं बल्कि विरोध करने के लिए विरोध!
तब रति और भी तेवर चढ़ाकर बोलती, ''रजत तो पहले ही मेरे पीछे पड़ा रहता है, अब तुम भी इसीसे मिल गए हो। वाह जी वाह! दोस्त किसके हो तुम? मेरे या रजत के?''

तारक तब चुप रह जाता था, रजत भी कुछ नहीं कहता। एक प्रिय अप्रिय सत्य! शायद रति भी इसीलिए कहती थी कि तारक तब लाजवाब हो जाएगा। क्योंकि रति जानती है कि जो वह तारक के लिए है वह और कोई नहीं हो सकता, और रजत को भी इसका अंदाज़ है। इसीसे रजत ने शुरू में चाहे कितना विद्रोह किया हो, कितना लड़ाई झगड़ा, फिर धीरे-धीरे मान लिया था इस रिश्ते को। रति के लिए ही अंगीकार कर लिया था तारक को भी। रति ने ही उसे बतालाया था जब रजत ने उसे बाहों में भरकर कहा था, ''इतना प्यार करता हूँ तुम्हें कि यह भी स्वीकारने के लिए राजी हूँ।''

एक हूक सी उठी थी तारक के भीतर जिसे इतना प्यार मिला हो, इतना वह इस तरह से उन दोनों की ज़िंदगी को ही सूना करके रुख़सत हो ली। तारक के मन में गुस्सा भी आया, शायद अपनी सेहत का ध्यान रखती तो कुछ और जी जाती! उन दोनों से ही तो चार-पाँच साल छोटी थी वह, जी भी सकती थी! पर अब और तारक ने लंबी साँस भरी!

रति की एक कुलीग बता रही थी, ''परसों तो काम पर आई हुई थी रति। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि इतना भारी स्ट्रोक हो सकता है कि एक ही लपेट में ले जाए म़ुझे तो विश्वास ही नहीं होता।''
तारक को भी विश्वास नहीं होता था। उसी दिन सुबह रति ने उससे फोन पर बात की थी और उससे मज़ाक किया था, ''मेरे जन्मदिन पर आओगे?''
दरअसल सारा झगड़ा कुछ साल पहले रति के जन्मदिन को लेकर ही शुरू हुआ था, वर्ना शायद रजत को उन दोनों के बीच बढ़ते रिश्ते की तनिक ख़बर न लगती।

रति ने उसे बतलाया था कि उसके जन्मदिन पर वह और रजत आम तौर पर शाम को बाहर किसी बढ़िया से फ्रेंच रेस्तरां में खाना खाने जाते हैं तब तारक ने कहा था, ''ठीक है तो लंच तुम मेरे साथ लेना।''
रति मान गई थी। उसने उसी दिन रति के शहर पहुँचने के लिए फ्लाईट भी बुक करवा ली थी, पर जब ठीक जन्मदिन आनेवाला था तो रति ने उसे बतलाया था कि रजत को ठीक नहीं लग रहा मेरा तुम्हारे साथ लंच पर जाना। वह पूछ रहा था कि इतना इम्पॉर्टंट कैसे हो गया यह आदमी कि तुमको उसे जन्मदिन पर ज़रूर मिलना है।
''तुमने क्या कहा?'' तारक जिज्ञासु हो उठा था।
''यही कि तुमको किसी काम से शहर में होना था इसलिए लंच पर मिलने की बात की। इस पर उसने कहा कि अगले दिन मिल लो। जन्मदिन वाला दिन तो उसी के लिए है, कोई और क्यों?''
फिर वह बोली, ''इसी पर उसे शक हो रहा है कि यह कोई आम दोस्त नहीं..."
तारक ने जोड़ दिया था, ''प्रेमी है''
''हाँ यही शक हो रहा है उसे!''
''तो हूँ या नहीं..."
''शायद हो, यही मुसीबत है।''
तारक ने कहा था, ''अब तो टिकट ली हुई है। मैं तो आऊँगा ही, तुम मिल सको तो मिलना वर्ना न मिलना। चाहे पाँच मिनट के लिए या कॉफी के लिए भी आ जाओगी तो मेरे लिए वही काफी होगा। तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें देख भर लूँ।''
''तुम भी कमाल के रोमाँटिक हो, पर सच कहूँ तो मैं भी तुमसे मिलना चाहती हूँ उस दिन क़ुछ न कुछ तो जुगाड़ना पड़ेगा।''
''मेरे लिए तुम्हारा जन्मदिन मेरी ज़िंदगी का बहुत अहं दिन है, समझी।''
एयरपोर्ट पहुँच कर तारक ने फोन किया था।
रति बोली थी, ''रजत कह रहा है तुम हमें डिनर पर जॉयन कर लो।''
तारक बहुत हैरान हुआ था, पर रति ने फोन रजत को पकड़ा दिया था। तारक एकदम संकट में पड़ गया था। उसने खुद को बचाने की कोशिश की, ''सॉरी मैं तो यहाँ आया था तो सोचा रति से मिल लूँगा। पर इस तरह आप लोगों के प्रोग्राम में।''
रजत ने जोर देकर कहा था, ''नहीं भाई, बहुत तारीफ़ें सुन रहा हूँ बीवी से, ज़रा हम भी तो मिलें आपसे। आप चाहे तो घर पर आ जाइए, या फिर सीधे रेस्तरां पर मिलेंगे।
''पर आप लोगों का तो डिनर पर साथ जाने का कार्यक्रम था न।''
''आप लंच पर फ्री है तो लंच पर मिल लेते हैं। यों मुझे तो डिनर ही पसंद है, जैसा आप कहे।''

रजत बिल्कुल दोस्ताना ढंग से बात कर रहा था। एक पल को उसकी टोन में कुछ तनाव तारक को महसूस हुआ था पर अगले ही पल आवाज़ फिर सहज हो गई थी। तारक मान गया पर टैक्सी लेकर पहले होटल में सामान छोड़ा और इस दौरान खुद को मानसिक तौर पर तैयार भी करता रहा कि कैसे पेश आना है अपने रकीब से। देखा जाय तो रिश्ता रकीब का ही था। बाकी वे कितने भी सभ्य या समझदार इंसानों की तरह एक दूसरे से बर्ताव करे, आखिर वे तीनों सम्मानित पेशे के थे। तारक हार्ट स्पेशालिस्ट था तो रजत अंग्रेज़ी साहित्य का प्रोफेसर और रति सायकायट्रिस्ट, इंसानी मन की कमज़ोरियों को समझना, मनोरोगों का इलाज करना रति की विशेषता तो थी ही, पर इंसानी आकर्षण, एक दूसरे के प्रति खिंचाव या ऐसे रिश्तोंको समझने की संस्कृति तो कहीं तीनों में ही थी।

रजत इस बात को खूब समझता था कि किसी भी औरत के लिए किसी दूसरे पुरुष के प्रति खिंचाव हो जाना बहुत सहज था, वहीं एक पति और पत्नी से प्रेम करने वाले के रूप में वह रति के इस व्यवहार से ईर्ष्यालु भी हो उठता था। एक सभ्य इंसान के नाते वह ईर्ष्या को दबा कर तारक के प्रति भी मित्रवत व्यवहार करना चाहता था पर वही उसे रति के व्यवहार से कष्ट पहुँचता था कि वह उसके इलावा भी किसी दूसरे पुरुष को चाह सकती है, जिससे उसके मन में आक्रोश और वितृष्णा का भाव उठता, कभी वह अपने को उदार बना कर यह कहना चाहता कि रति अगर किसी दूसरे को चाहती है तो बेशक उसको भी क्यों न पाये। साथ ही जब क्रोध होता तो एक तरह से जैसे वह रति को सजा देने के लिए कह डालता, ''तुम जाओ, दोनों साथ रहो।'' पर जो पीड़ा वह उसमें सह रहा होता वह रति और तारक दोनों के लिए ही असह्य होती।
रति ने कहा था, ''क्या तारक और मैं दोस्त नहीं हो सकते? और इतने दोस्त है एक वह व्यक्ति जिससे बात करके मुझे खुशी मिलती है वह दोस्त क्यों नहीं बन सकता। सिर्फ़ इसलिए कि उसके मन में तीखी भावना है मेरे लिए... या शरीरों का आकर्षण भी है..."

रजत तब तर्क से सारी बात को समझने समझाने की कोशिश करता। हाँ करते करते कह देता, ''औरत आदमी में दोस्ती हो ही नहीं सकती क्योंकि जहाँ शरीरों का आकर्षण हो वहाँ दोस्ती जैसा निष्कपट भाव कैसे पनप सकता है?'' तब रति दोस्ती का एक और पक्ष पेश करती, ''तुम्हारे कहने का मतलब तो वही दकियानूसी बात हुई कि शरीर पाप का मूल है जबकि तुम खुद ही यह पहले कह चुके हो कि शरीरों का मसला हल हो जाए तो औरत मर्द बहुत खुबसूरत दोस्त हो सकते हैं, शरीर को अहमियत दी क्यों जाए? शरीर मिल जाने से उनका दोस्ती में बाधा बनने का मसला ख़त्म हो जाता है।''
रजत रति की बात मान भी जाता था, पर रति फिर तारक को यह भी बताती थी, ''वन कांट टेक हिम फॉर ग्रांटेड। कल को वह अपना कोई नया तर्क दे देगा।''

शायद इसीसे तारक भी अचानक हिम्मत हारने लगा था। कैसे सामना करेगा वह रजत का? यों वह रजत से एकाध बार पहले मिल चुका था पर तब उसको यह अंदाज़ा नहीं था कि रति और उसके बीच कुछ था, जबकि तारक तब भी कुछ आत्मसजग सा हो रहा था पर कुछ मिनटों की मुलाक़ात को सँभाल लेना कोई बड़ी बात नहीं थी और यों भी रजत उसे भला आदमी लगा था। यह भी सोचा था कि अगर रति उन दोनों के बीच न होती तो यह व्यक्ति उसका दोस्त हो सकता था। यों रति के होने के बावजूद अंतत: वे दोस्त बने ही पर इस दोस्ती का तानाबाना वैसा न था जैसे खालिस दोस्ती का होता है। इसमें रति के रेशे बुने हुए थे, जो एक और ही रंगत लिए थे और वह रंगत तारक को बहुत प्यारी थी, उस दोस्ती से ज़्यादा।

तारक ने होटल पहुँच कर फोन कर दिया था कि डिनर पर मिलना ही ठीक रहेगा और वह अपना काम इस दौरान कर लेगा। रजत आसानी से यह बात मान गया और कहा कि वह ड्रिंक्स पर पहले घर पर आ जाए, उसके बाद रेस्तराँ खाना खाने चले जाएँगे।

शाम को जब वह चलने लगा तो फोन बजा था। दूसरी ओर रति थी, हैलो कहते ही रति ने कहा, ''सुनो तुम मत आना, मेरे घर में बहुत टेंशन चल रही है।''
इससे पहले कि वह कुछ कहता रति ने फोन डिसकनैक्ट कर दिया।
रात को कोई फ्लाईट नहीं जाती थी वर्ना वह उसी वक्त शहर छोड़ के चला जाता।

आधे घंटे बाद ही घंटी फिर बजी। रति पूछ रही थी कि आ रहे हो? तारक बौखला गया कि आखिर हो क्या रहा है? क्या यह रति के मन की उलझन है या कि रजत की, या दोनों की या रति सिर्फ़ रजत की उलझन को व्यक्त कर रही थी। बोली थी, ''जल्दी आ जाओ, हम लोग इंतज़ार कर रहे हैं।''

वह पहुँचा तो रति ने अकेले ही उसका स्वागत किया था। वह जानता था कि दोनों बच्चे कॉलेजों में हैं पर रजत काफी देर तक बैठक में नहीं आया तो तारक हैरान हुआ। रति बोली, ''वह नहा रहा है।'' फिर मुस्करा कर जोड़ा, ''शायद हम दोनों को कुछ वक्त देना चाहता है।''

तारक तब कुछ नर्वस हुआ था। उसे आगे बढ़कर रति को चूमने का हौसला नहीं हुआ। उसे लगा कि रति भी सहज नहीं थी जैसे कि आम तौर पर होती है, पर उसने कुछ कहा नहीं। वह खुद भी तो सहज नहीं हो पा रहा था, जैसे लड़की के बाप के घर में शादी का प्रस्ताव लेकर जा रहा हो, कुछ कुछ इसी तरह का महसूस हो रहा था। वहीं डट कर परचा करना था कि इम्तहान में फेल न हो जाए।

रजत ने कमरे में आते ही बड़े तपाक से हैलो किया, कुछ औपचारिक सी बात की। फिर उससे ड्रिंक पूछा और किचन में बर्फ़ वगैरह का इंतज़ाम करने के लिए फिर से गायब हो गया। तारक को लगा कि सहज होने की बहुत कोशिश के बावजूद रजत बहुत असहज है।

विस्की का घूँट लेते हुए तारक ने ही रजत से उसके काम के बारे में पूछना शुरू किया। बात कही जा नहीं रही थी, तभी रति एक नयी किताब की चर्चा करने लगी जिसका रिव्यू सुबह के अखबार में छपा था। तारक ने हवाई जहाज़ में ही उसके बारे में पढ़ा था, फिर तो बातचीत खूब गरमागरम होने लगी। रजत ने दक्षिण एशियाई अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में अपने विचार झाड़ने शुरू कर दिए। यहाँ तक कि रति ने अचानक घड़ी देखी तो पता लगा कि रेस्तराँ की रिज़र्वेशन का वक्त हो चुका था। रजत ने रेस्तराँ को फोन किया कि कुछ मिनट लेट पहुँचेंगे और तारक को बोला कि जल्दी से ड्रिंक खत्म कर ले या गाड़ी में ही ले चले। दोनों ने दो तीन ड्रिंक चढ़ा रखे थे। मौज सी भी आई हुई थी, रजत ही कार चला रहा था और तारक पीछे वाली सीट पर बैठा था। अचानक रजत कुछ नशे और कुछ अपनी धुन में बोला, ''तो तुम मेरी बीवी से प्यार करते हो!''
तारक भौंचक-सा हो गया। यों ही बैठा रहा जैसे रजत की बात को सुना न हो या वह गंभीरता से लेने लायक न हो!

रजत ने अपनी बात को सवाल बनाकर दुबारा पेश किया, ''क्यों तारक? मेरी बीवी से प्यार करते हो या नहीं?''
तारक ने कहा, ''हाँ।'' और चुप कर गया। उसे लग रहा था वह जो भी जवाब देगा, खतरे से खाली नहीं, पर यह जवाब सच था, तो सच बोल कर ही मार खायी जाए। उसे किसी लड़की के पिता से हाथ माँगने नहीं जाना पड़ा था, आज यह भी सही।
''तुम भी प्यार करते हो, वह भी करती है तो तुम दोनों साथ क्यों नहीं रहते?''
तारक बोल पड़ा था, ''यह इतना आसान नहीं।''

रजत इस पर आक्रमण करता-सा बोला, ''कमाल है! प्यार भी करते है और ज़िम्मेवारी भी नहीं निभाना चाहते।'' तारक को महसूस हो रहा था कि रजत कह तो कुछ रहा है और पहुँचाना कुछ और चाहता है। फिर भी वह जवाब तो उसी बात का दे सकता था जो कि पूछी जा रही थी। यह कह कर उसे नाराज़ भी नहीं करना चाहता था कि रजत सिर्फ़ अपने भीतर के आक्रोश, आतंक और आग को आवाज़ दे रहा था। बोला, ''यह बात नहीं, में आज भी रति के साथ ज़िंदगी शुरू करने को तैयार हूँ। जहाँ तक मैं जानता हूँ रति अपने शहर को छोड़ कर और कहीं नहीं जाएगी, न वह तुमको छोड़ने को तैयार होगी, जहाँ तक मैं रति को जानता हूँ...।''
रति चुपचाप अपने पर अंकुश लगाए दोनों की बात सुन रही थी। न तो वह रजत के पक्ष में कुछ बोलना चाहती थी न तारक के पक्ष में ही बोल सकती थी। फिर भी दोनों के बीच तारतम्य बिठाए रखने की ज़िम्मेवारी भी उसी की थी और वह समझ नहीं पा रही थी कि किस तरह इस बातचीत को सीमायें लाँघने से बचाया जाए। उपर से उसे डर लग रहा था कि आवेश में रजत कहीं टक्कर न मार दे।

रेस्तराँ बहुर दूर था भी नहीं। बात पूरे चरम पर चल रही थी कि रेस्तराँ आ गया। रति ने टोका, ''रजत पार्किंग ढूँढ़ो, रेस्तराँ आ गया।'' रेस्तराँ के साथ ही पार्किंग गैराज में गाड़ी छोड़ कर तीनों अंदर चले गए।

वेटर ने उनको मेज पर बिठाया और ड्रिंक के लिए पूछा तथा मेन्यू लाकर दिए। तीनों के तीनों उस मेज पर इस तरह खामोश और भरे बैठे थे कि मेन्यू में सिर डुबोना एक राहत बन गया था।
तीनों ने अपने-अपने आर्डर दिए पर बात कुछ बन नहीं रही थी। हर कोई कुछ भी कहने में ज़्यादा ही सतर्क हो रहा था।

अचानक रति बोली, ''रजत, तुमको इतनी ज़्यादा तकलीफ़ थी तो तुमने मना क्यों नहीं कर दिया। मैं तो तारक को कह चुकी थी कि आज साथ खाना नहीं होगा। तुम्हीं ने ज़ोर दिया कि ज़रूर बुलाओ, अब इस तरह क्यों बर्ताव कर रहे हो।''
रजत और भड़क गया, ''मैं तो सिर्फ़ यह कह रहा हूँ कि तुम लोग एक दूसरे को प्यार करते हो तो मैं क्या कर रहा हूँ यहाँ? तुम जाओ एक दूसरे के साथ रहो।''
दोनों की आवाज़ें ऊँची हो रही थी और दूसरी मेजों पर बैठे लोगों की निगाहें इस ओर उठ आई थी।
तारक ने धीरे से सुझाया था, ''मेरे ख़याल से हमें ये बातें यहाँ नहीं करनी चाहिए।''
सहसा रति ने होश में आते कहा, ''हाँ इतने बढ़िया रेस्तराँ में खाना खाने आए हैं। कुछ खाने पर भी तो ध्यान दें, फिर आज मेरा जन्मदिन है, आई वांट टू हैव ए गुड मील।''

फिर भी खाने पर तीनों मे से किसी का ध्यान नहीं लग सका। तीनों औपचारिक-सी बात में लग गए थे। तारक ने ही शहर के नवीनतम रेस्तराँओं के बारे में ताज़ी पढ़ी समीक्षा का ज़िक्र छेड़ दिया था।

रजत ने कार से जब उसे होटल छोड़ा तो तारक ने उपर कमरे में आकर ड्रिंक लेने के लिए कहा पर जैसा कि वह अपेक्षा कर रहा था रजत ने देर होने का बहाना बना छुट्टी माँग ली थी। रति तब भी कुछ नहीं बोली थी, शायद उसे डर था कि उसका कुछ भी कहना रजत के लिए घाव पर नमक छिड़कने जैसा होगा, या उसकी कोई भी बात का गलत मतलब निकाल कर रजत भड़क सकता था। यों देर हो भी चुकी थी।

पर तारक यह भी जानता था कि रति एक नंबर की जिद्दी थी, जो उसे चाहिए था, चाहिए ही था, उसे रोका नहीं जा सकता था। वह उपर से मान जाएगी पर भीतर से कभी माफ़ नहीं करेगी। शायद इसी से रजत भी बिगड़ी हुई लाड़ली बेटी की तरह रति की हर चाह या माँग को विरोध करके भी अंतत: मान जाता था।

लौट आने के दो चार दिन बाद ही उसके फोन पर रति ने संदेस छोड़ा था, ''तुम्हारा आना ठीक नहीं हुआ। सॉरी, तुम्हें बुलाकर भी मिल नहीं पाई। अब लगता है कभी नहीं मिलूँगी। लैट अस स्टॉप दिस हियर, प्लीज मुझसे संपर्क मत करना।''
तारक बहुत दिन परेशान घूमता रहा था, पर रति को फोन भी नहीं किया, उसने मना जो कर डाला था। उसे फोन करते हुए तारक को लगता कि वह खुद को उस पर लाद रहा है और यह स्थिति उसे कभी गँवारा नहीं थी। हर दिन किसी ज्वालामुखी-सा लावे से लदा हुआ गुज़रता। अंदर ही अंदर सब तप रहा था।
महीने भर बाद रति ने फोन किया था, ''गुस्सा हो न मुझसे, तुमसे माफी भी नहीं माँग सकी।''
''उसकी तो कोई ज़रूरत नहीं।''
''फिर भी, सोचा था तुमसे कभी बात नहीं करूँगी। इसीसे तुमको संपर्क करने से मना किया था। रजत को भी यही मालूम है कि तुमसे रिश्ता तोड़ दिया है पर अब मुझी से बात किए बिना रहा नहीं जा रहा।''
''रजत को मालूम है मुझसे बात कर रही हो?''
''वह बेहद गुस्सा है तुमसे जैसे कि सारा दोष तुम्हारा हो क़ि तुमने उसकी बीवी को फँसा लिया।''

वे इसी तरह जब मौका लगता बात कर लेते। तारक के दिल दिमाग पर रति ही छायी रहती। वह ऐसे ही पलों के दौरान जीता जब दोनों के बीच कुछ संपर्क होता, बाकी के पल उन पलों के इंतज़ार में गुज़रते।

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