इस समय भी उसे अपना नाम याद नहीं
आ रहा था। उसकी आँखों में आँसू आ गए थे, लाल आँसू!
वह कभी उस दूर तक फैले मलबे को दख रहा था, तो कभी सामने बने
कच्चे-पक्के मन्दिर को। उस टूटे हुए मलबे में से रह-रहकर अज़ान
की आवाज़ें निकलकर जैसे हवा में लहरा रही थीं। पूरे वातावरण का
तनाव रह-रहकर उसकी नसों-नाड़ियों में घुसा जा रहा था। मन्दिर
में से आ रही आरती की आवाज़ भी उसके तनाव को ढीला नहीं कर पा
रही थी। आस-पास के लोगों के चेहरों पर अविश्वास और असुरक्षा की
भावना जैसे गर्म लोहे से अंकित कर दी गई थी।
आज से लगभग तीस वर्ष पहले भी
ऐसे ही बदहवास चेहरे उसने देखे थे। पल भर में घर के करीबी
मित्र बेगाने हो गए थे। तब वह स्कूल में पढ़ता था। उस समय उसका
एक नाम भी था - इन्द्रमोहन। स्कूल के लिए इन्द्रमोहन तिवारी।
अपने नाम से उस बेहद लगाव था। अंग्रेज़ी में अपना नाम बहुत
मज़े से बताता था- "आय. एम. तिवारी"-यानि कि मैं तिवारी हूँ और
खिलखिलाकर हँस पड़ता था।
उस शाम भी वह खिलखिलाकर हँस
रहा था कि उसके पिता ने घायल अवस्था में घर में प्रवेश किया
था। उसकी माँ तो पागलों की तरह छातियाँ पीटने लगी थी। बड़े
भैया ने तो लाठी उठा ली थी, "आज दो-चार को तो ढेर कर ही
दूँगा।''
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