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पिता के शरीर के घाव, भाई का जुनून, सोडा वाटर की बोतलें, अल्लाह-हो-अकबर, सड़क पर बिखरा काँच, हर-हर महादेव, छुरेबाज़ी से घायल लोग, पुलिस की वर्दी, पुलिस का डंडा, पानी के फव्वारे, पुलिस की गोलियाँ, सायरन, बूटों की ठक-ठक, कर्फ़्यू सब याद है उसे ! स्कूल का बन्द होना, सब्ज़ी का गा़यब हो जाना, चेहरों पर चिपका हुआ डर, दिमाग़ों में भरी दहशत, अपनों का बेगा़नापन, बेगा़नों का अपनापन, कुछ भी नहीं भूला है उसे। फिर उसका नाम!

उसे उस छोटी उम्र में ही उन नामों से नफ़रत हो गई थी जो नाम धर्म से संचालित होते हों। क्यों यह नाम, जातों और धर्मों का सिलसिला ख़त्म होने में नहीं आता? किसी भी बच्चे के बस में नहीं कि वह अपना नाम स्वयं रख सके। तो क्यों उसे इस दुनिया में लानेवाले कोई भी नाम दे देते हैं जो कि उमर भर के लिए उसकी पहचान बन जाता है। क्यों नहीं उस बच्चे को छोड़ देते तब तक, जब तक बड़ा होकर वह स्वयं अपने लिए इक नाम की तलाश न कर ले। उसी दिन उसने अपने पिता को कहा था, "बाबू जी, मेरा नाम बदल दीजिए!"

बाबू जी की डांट-फटकार ने उसके फ़ैसले को और भी मज़बूत बना दिया था। बड़ा होते ही, उसने अपना नाम बदलने का जो प्रण लिया था उसे पूरा करने का समय आ गया था। उसे लगा था कि नाम उसका अपना है, वह जब चाहे, जैसे चाहे अपना नाम बदल लेगा। नाम बदलना ऐसा कौन-सा मुश्किल काम है।

नाम बदलना नाम कमाने से कम मुश्किल काम नहीं है। कचहरी के चक्कर, गज़ट में नाम निकलवाना और समाचार पत्र में इश्तहार देना-यह सब करना पड़ा तब कहीं जाकर वह आई.एम.तिवारी से आई.एम.हिन्दुस्तानी बन पाया। हाँ, यही उसका नया नाम था। अब वह किसी को अपने नाम आई.एम.का अर्थ नहीं बताता था। वह चाहता था कि सब लोग उसे केवल हिन्दुस्तानी कहकर पुकारें। हिन्दुस्तानी या फिर मिस्टर हिन्दुस्तानी। उसने प्रण कर लिया था कि किसी को भी अपना धर्म नहीं बताएगा।

पहली ही टक्कर में उसके प्रण के टुकड़ों का मलबा बिखरकर रह गया था। नौकरी के लिए फ़ार्म भरते समय उसे एक कॉलम भरना था - धर्म! उसने धर्म के सामने लिख दिया था-'नास्तिक'! बहुत बार सोचा करता था कि हमारे तो अधिकतर लेखक वामपंथी हैं तो इन लोगों ने नौकरियाँ पाने के लिए धर्म के कॉलम में क्या लिखा होगा। क्या इनका वामपंथ धर्म लिखने की अनुमति देता है? या फिर यह सब ढकोसलावादी वामपंथी हैं? सबने मकान ख़रीद रखे हैं। वामपंथ तो सम्पत्ति अर्जित करने के ख़िलाफ़ है। फिर यह सब क्या गोलमाल है?

नास्तिक होने का दंड उसे भुगतना पड़ा। साक्षात्कार में उससे एक भी सवाल उसकी पढ़ाई या काबलियत के बारे में नहीं पूछा गया। पैनल के हर सदस्य को केवल एक बात में रुचि थी कि वह नास्तिक क्यों है। और क्या नास्तिक-वाद भी कोई धर्म हो सकता है?

अपने मन में घुमड़ती हुई उत्तेजना को उसने जुबान दे ही दी, "सर, धर्म हमें हज़ारों साल पीछे ले जाता है। जब हम कोई कैमरा, फ्रिज़ या कार ख़रीदते हैं तो हमारी कोशिश यही रहती है कि नए से नया मॉडल ख़रीदें। किन्तु जहाँ कहीं भी धर्म की बात आती है, तो हर धर्मवाले अपने पुरातन से पुरातन ग्रंथ की डींग हाँकने लगते हैं। आदिम लोगों द्वारा लिखी गई पिछड़ी हुई बातों के लिए हम लोग कट मरते हैं। क्या यह सही है? क्या नास्तिक होना इस स्थिति से कहीं अधिक बेहतर नहीं है? और फिर एक धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसे सवाल का क्या औचित्य है?"

पैनल के सदस्य उसकी बातें सुनते रहे और अन्तत: वह नौकरी उसे नहीं मिली। उसे समझ आ गया कि धर्म की बाँह थामे बिना उसकी नैया पार नहीं लगनेवाली! किन्तु उसे तो किसी भी धर्म में विश्वास नहीं। तो किस धर्म की बाँह थामे? जब सभी धर्मोंवाले अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्मों को नीचा बताने में लगे हों तो वह किस ओर देखे?

नौकरी पाने के लिए उसने अपने जन्म-धर्म का ही हाथ थामा। अपने पासपोर्ट में भी वह हिन्दू हो गया। वह केवल हिन्दुस्तानी बना रहना चाहता था, किन्तु नौकरी ने उसे हिन्दू बनाकर ही दम लिया।

नौकरी मिली भी तो जेद्दाह में। वहाँ तो धर्म का दूसरा ही रूप था। औरतों पर पाबंदियाँ। उनके चेहरे बुर्के ओर नकाबों में ढके नज़र आते। गै़र-मुस्लिम औरतों को भी आबाया पहनना पड़ता था। दिन में पाँच बार नमाज़ के समय पूरा शहर जैसे जड़ हो जाता था। नमाज़ के दौरान सभी दुकानें बन्द।

वहाँ उसने विभिन्न स्तरों पर भेदभाव देखा। पहला फ़र्क तो मुस्लिम और गै़र-मुस्लिमों में था। मुस्लिमों में सऊदी और गै़र-सऊदी का फ़र्क था। अरबी और गै़र-अरबी मुसलमानों में अन्तर था। अमीर और गऱीब देशों के मुसलमानों में अन्तर था। फिर गै़र-मुस्लिमों में चमड़ी का अन्तर था-यानि गोरा और काला।

जीवन में पहली बार जेद्दाह से ताएफ़ जाते हुए उसने मुसलमानों के लिए आरक्षित सड़क देखी थी। मण्डल के कमण्डल का एक और रूप! वहाँ की धार्मिक पुलिस आपका इकामा चेक करेगी। इकामा-यानि कि 'वर्क परमिट'। यदि आपका इकामा हरे रंग का है तो आप मुस्लिम हैं और उस आरक्षित सड़क पर जा सकते हैं। अन्यथा आपको एक लम्बा-सा चक्कर लगाकर अनारक्षित सड़क से ताएफ़ पहुँचना होता था। उसी सड़क पर रास्ते में उसने बिल्डिंगों का एक समूह देखा था। उसे डिपोर्टी कैम्प कहते थे। यानि के वे लोग जिन्हें सऊदी अरब से निष्कासित किया गया हो पहले उन्हें उस कैम्प में रखा जाता था। अन्तत: एक उड़ान पर चढ़ा दिया जाता था जो उन विदेशियों को उनके देश की धरती पर पहुँचा देती थी। उस कैम्प में आप तभी दाखिल हो सकते हैं यदि आप स्वयं निष्कासित या तड़ीपार हैं या फिर आप पुलिसवाले हैं।

डिपोर्टी कैम़्प के बारे में सोचकर ही हिन्दुस्तानी को झुरझुरी-सी आ गई। कैसा व्यवहार होता होगा वहाँ के निवासियों के साथ?
हिन्दुस्तानी को जेद्दाह में सदा दहशत का माहौल ही दिखाई देता था। बिना किसी युद्ध-स्थिति के भी वहाँ डर का वातावरण बना रहता था। पुलिस में भी मुतव्वा यानि के 'धार्मिक पुलिस' का आतंक सर्वोपरि था। मुतव्वा से तो सऊदी नागरिक भी डरते हैं। अप्रवासी तो उन्हें देखकर घबरा ही जाते हैं।

ईराक-कुवैत लड़ाई के दिनों में तो यह डर का वातावरण और गहरा गया था। यदि उसे इतनी अच्छी पगार न मिल रही होती तो हिन्दुस्तानी कब का वापस अपने मुल्क आ गया होता। पैसा तो किसी को भी कहीं भी रोक लेता है। पैसे का चमत्कार तो हिन्दुस्तानी जेद्दाह और ताएफ़ में देख चुका था। रेत में पेड़ खड़े कर दिए गए थे।

इराक के साथ युद्ध के समय सी.एन.एन. का अतिक्रमण सऊदी पर भी हुआ। सी.एन.एन. के कार्यक्रमों का खुलापन वहाँ के कठमुल्लाओं को सहन नहीं हुआ। कुछ समय बाद स्टार टी.वी. के डिश एँटेना पर राजघराने की बिजली गिरी। डिश एँटेना को शैतान की कटोरी कहा गया और 'एड्स' की कुंजी। कठमुल्लाओं ने ऐलान कर दिया कि डिश एँटेना लगाने से एड्स हो जाएगी। हिन्दुस्तानी अपने एक मित्र के यहाँ जाकर केबल टी.वी. देख लेता था।

हिन्दुस्तानी उस समय भी धर्म की जटिलताओं को समझ नहीं पा रहा था। एक ही धर्म के दो देश आपस में लड़ते हैं। दूसरे धर्म के कई देश मिलकर एक देश को ध्वस्त करने में जुट जाते हैं। यानि कि धर्म एकता की गारंटी नहीं है! पुत्र द्वारा पिता की हत्या को धर्म नहीं रोक सकता। तो फिर धर्म के नाम पर हत्याएँ क्यों? क्या यह सब केवल आडम्बर है?

हिन्दुस्तानी का दिमाग बेलगाम घोड़े की तरह भागता जा रहा था। तर्क, वितर्क, कुतर्क सब उसके दिमाग में ज्वार-भाटा खड़ा किए जा रहे थे। "एक समय ऐसा भी तो होगा जब मनुष्य को मालूम ही नहीं होगा कि भगवान भी किसी चीज़ का नाम है। यानि कि इंसान ने भगवान का आविष्कार नहीं किया होगा। फिर किसी ने पहली बार भगवान के होने का अहसास किया होगा। उसने पहले धर्म का ऐलान किया होगा। फिर किसी दूसरे ने किसी और भगवान के होने का एहसास किया होगा। तो दूसरा धर्म उत्पन्न हो गया होगा। इसी तरह फिर तीसरा, चौथा और पाँचवा धर्म बने होंगे।" इस सबका निष्कर्ष हिन्दुस्तानी ने यही निकाला, "जब-जब कोई भी व्यक्ति भगवान को देखता है या उससे तारतम्य बना लेता है तो सभ्यता और बँट जाती है।"

प्रकृति ने तो सभी इंसानों के जन्म और मरण का तरीका एक ही रखा है। इंसान ही क्यों उस बच्चेके पालन-पोषण से लेकर क्रियाकर्म तक भिन्न-भिन्न तरीके अपनाता है। आज जिस देश में हिन्दुस्तानी रह रहा था, वहाँ तो किसी दूसरे धर्म के लोगों को अपने इष्ट देवों की मूर्तियाँ रखने या पूजा करने का अधिकार तक नहीं दिया गया था। फिर भी लोग छुप-छुपकर पूजा करते हैं। क्या धर्म के साथ जुड़ाव इतना बल देता है कि इंसान सरकारी आदेश के विरूद्ध भी काम करने से नहीं डरता।

नास्तिक होने के चक्कर में हिन्दुस्तानी विवाह भी नहीं कर पा रहा था। अब तो लगभग पैंतीस-छत्तीस का हो गया है। पर उसे किसी धार्मिक विधि से विवाह नहीं करना। माँ-बाप को कोर्ट की शादी स्वीकार नहीं। और फिर कोर्ट-कचहरी भी तो धर्म पूछती हैं! साले कोर्ट-कचहरी भी धार्मिक हो गए हैं।

इसीलिए जेद्दाह में अकेला रहता था हिन्दुस्तानी। उसके साथियों ने उसे डरा दिया था, "बनेमलिक इलाके में कभी मत जाना। उस इलाके में सभी दो नम्बर के काम होते हैं। नकली पासपोर्ट, नकली वीज़ा, यहाँ तक कि नकली इकामा (यानि कि `वर्क परमिट') भी। हिन्दुस्तानी हैरान! इतनी सारी पुलिस, असली पुलिस! इतनी दहशत, फिर भी इतने सारे नकली काम! हिम्मतवाले लोगों की कमी तो किसी भी देश में नहीं होती है।

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