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                     ''जाइए....मैं चाय बनाती हूँ।'' 
                    मास्टर ने खिसियाते हुए मुँह बनाकर उसकी नकल उतारी और दालान की 
                    ओर चले गए। वहाँ चौकी को झाड़-पोंछकर बिछावन लगाया। सब लोग आ 
                    गए तो बड़े प्रेम से बिठाया। राजदेव को चाय के लिए कहकर वे 
                    सबसे मुखातिब हो गए, ''एक बहुत ही ज़रूरी काम से मैंने आप 
                    लोगों को बुलाया है...अच्छा हुआ कि आप लोग घर पर ही मिल गए। 
                    आपलोगों को तो मालूम ही है कि संसद का चुनाव होनेवाला है।'' ''मालूम है।'' किसी ने कहा।
 ''मतदान में बीस दिन का समय रह गया है।''
 ''मालूम है।''
 ''चुनाव प्रचार तेजी से चल रहा है।
 ''मालूम है।''
 ''मैदान में पाँच उम्मीदवार हैं।''
 ''मालूम है।''
 ''फिर आपलोगों ने निर्णय लिया कि वोट किसे देना है?''
 ''तो क्या इसी जरूरी काम के लिए आपने बुलाया हमें?'' मुखिया जी 
                    ने कहा तो सब खिलखिलाकर हँस पड़े। मास्टर के माथे पर बल पड़ 
                    गया, वे और भी गंभीर हो गए, ''भाई तो क्या यह काम जरूरी नहीं 
                    है?''
 ''देखिए मास्टर साहब, यह तो बिल्कुल अपनी-अपनी पसंद और इच्छा 
                    पर निर्भर है। आप ही बताइए, हमलोग कोई एक राय बनाकर सब पर उसे 
                    थोपें, क्या यह न्यायसंगत होगा?''
 ''प्रोफेसर साहब, आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। मैं वही तो जानना 
                    चाहता हूँ कि आपलोगों ने अपनी-अपनी पसंद और इच्छा कायम की या 
                    नहीं।''
 ''इसके लिए अभी से इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? जब वक्त 
                    आएगा तो किसी को वोट दे देंगे। ऐसे भी जो लोग किसी पार्टी 
                    विशेष की विचारधाराओं और नीतियों में विश्वास करते हैं, वे तो 
                    उसी पार्टी के उम्मीदवार को वोट देंगे, यह जाहिर ही है।''
 ''इन्द्रनाथ भाई, यही मानसिकता हम लोगों को लगातार क्षतिग्रस्त 
                    कर रही है। वक्त आता है और हम व्यक्तिगत रूप से किसी को बगैर 
                    जाने-समझे वोट दे देते हैं। भुलावे में डालनेवाली पार्टी की 
                    विचारधाराओं और नीतियों से आकर्षित होकर उसके नाम पर खड़े माटी 
                    के माधो को भी वोट डाल देते हैं। लेकिन ज़रूरत है हमें यह 
                    समझने की कि नागरिक अधिकारों में मताधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण 
                    स्थान रखता है, जिसका उचित, सटीक एवं विवेकपूर्ण प्रयोग न होने 
                    से व्यक्ति एवं समाज के भूत-वर्तमान-भविष्य तीनों प्रभावित 
                    होते हैं। यही कारण है कि आज सर्वत्र अच्छाइयों का लोप हो रहा 
                    है, बुराइयाँ हर क्षेत्र में जड़ पकड़ रही हैं।''
 ''फिर आप चाहते क्या हैं?'' मुखिया, प्रोफेसर एवं पांडेय ने 
                    करीब-करीब एक साथ पूछा।
 
                    ''हम चाहते हैं कि पाँचों 
                    उम्मीदवारों का पूरा परिचय प्राप्त किया जाए, फिर सब अपना-अपना 
                    फैसला करें कि वोट किसे देना है। इसके लिए मतदाता विशेष में 
                    लगन एवं चिंता होनी चाहिए कि वे उम्मीदवारों को परखने में गलती 
                    न करें। अतएव उम्मीदवार से अधिक ज़िम्मेदारी हरेक मतदाता की है 
                    कि वे थोथे विज्ञापनों और प्रचारों की चकाचौंध से प्रभावित न 
                    हों, वरन खुद दौड़-धूप कर सही तथ्य का पता लगाएँ कि वोट के 
                    वाजिब हकदार कौन हैं।''''आप जैसा चाहते हैं, क्या वह देश के दो तिहाई निरक्षर एवं 
                    मूढ़ मतदाताओं के लिए संभव है?''
 ''हम एक तिहाई साक्षरों एवं बुद्धिजीवियों के लिए तो संभव है। 
                    हम इस समाज के आगे चलनेवाले लोग हैं...उन्हें सही दृष्टि 
                    देना...रास्ता सुझाना हमारा काम है।''
 ''ठीक है, जैसी आपकी मरज़ी!'' मुखिया जी ने विरक्त भाव से कहा 
                    तो चारों ने उसी मुद्रा में उनका समर्थन कर दिया।
 मास्टर जी उत्साहित हो उठे, ''आप लोगों से मुझे यही उम्मीद थी 
                    कि आप मेरी चिंता को ज़रूर गंभीरता से लेंगे। प्रजातंत्र का 
                    सबसे बड़ा हथियार है नागरिक मताधिकार। हम अपना राजा अंधा चुनें 
                    या त्रिकालदर्शी, यह हमीं पर निर्भर है...इसलिए...।''
 
 इन्द्रनाथ की सहन-शक्ति एकाएक चुक गई मानो, ''हम समझ गए...कोई 
                    और दूसरी बात भी है या हम चलें!'' इन्द्रनाथ खड़े हो गए तो 
                    उनके साथ अन्य लोग भी खड़े हो गए।
 
 मास्टर जी के उत्साह पर मानो घड़ों पानी पड़ गया, ''लगता है, 
                    आप लोगों की मुझसे वैचारिक सहमति नहीं बन पा रही। कृपया बैठिए, 
                    अगर ऐसी बात है तो अब ज़्यादा वक्त मैं आप लोगों का नहीं 
                    लूँगा। आप लोग मेरे मित्र हैं...मन की छटपटाहट आपसे न व्यक्त 
                    करूँ तो किससे कहूँ?''
 ''रामरूप जी, आप बड़े विचित्र रोग के शिकार हो रहे हैं।'' 
                    मुखिया जी ने यों कहा जैसे किसी बड़े भेद से पर्दा हटा रहे 
                    हों।
 ''मुखिया जी! आप इसे रोग कह रहे हैं? मैं तो सोच रहा हूँ कि आज 
                    से पहले मेरे दिमाग में इतनी ज़रूरी युक्ति ने क्यों दस्तक 
                    नहीं दी? समझने की कोशिश करेंगे तो आपको खुद-ब-खुद अपनी 
                    लापरवाही का ज्ञान होने लगेगा।''
 ''अच्छा, हम फिर आयेंगे अपना दिमाग फ्रेश करके। अभी तो सचमुच 
                    खोपड़ी में कुछ घुस नहीं रहा।'' वकील साहब का मकसद किसी भी तरह 
                    कन्नी काट लेना था।
 ''दो मिनट...सिर्फ़ दो मिनट,'' मास्टर जी घिघिया पड़े, ''राजू, 
                    ज़रा चाय लाना बेटे। कल से आप लोग दो-चार दिनों का समय 
                    निकालिए। देखिए, यह मेरी विनती है, इसे अस्वीकार मत कीजिए।''
 ''इन चार दिनों में करना क्या है, सो तो कहिए।'' बृजकिशोर ने 
                    पूछा।
 ''हम हरेक उम्मीदवार के गाँव जाकर उसके चरित्र, आचरण और 
                    योग्यता की सही जानकारी हासिल करेंगे। फिर हम तय करेंगे कि वोट 
                    की पात्रता किसमें है।''
 ''माफ कीजिए मास्टर जी। मैं नहीं जा सकूँगा। मेरी पत्नी की 
                    तबीयत खराब है।'' मुखिया जी ने अपनी जान छुड़ाई।
 ''मुझे भी कल से एस डी ओ ऑफ़िस जाना है, वहाँ मेरा एक काम अटका 
                    है।'' पांडेय जी ने अपनी असमर्थता की धूल झोंक डाली।
 ''कल मेरे ससुर जी आनेवाले हैं।'' अपना पल्ला झाड़ लने से 
                    इन्द्रनाथ क्यों बाज आते।
 ''मेरे सिर में दो-तीन दिनों से चक्कर आ रहा है।'' यह अचूक 
                    बहाना प्रोफेसर का था।
 ''कल से मेरे कुछ सीरियस मुकदमों की तारीखें हैं।'' वकील साहब 
                    तो पेशेवर बहानेबाज थे। पिंड छुड़ाने का वज़नदार रास्ता ढूँढ 
                    निकाला।
 
 टाल-मटोल के बेहद फूहड़ दृश्य से सामना करके मास्टर जी बहुत 
                    उदास हो गए, ''मतलब, आप सभी कल से धुआँधार व्यस्त हैं। लेकिन 
                    एक बार मैं फिर आप सभी से अनुरोध करना चाहूँगा कि यह व्यस्तता 
                    जो आप ओढ़ रहे हैं, इससे कई गुणा ज़्यादा ज़रूरी है मेरा कहा 
                    काम। आप जागरूक लोग भी इस तरह कन्नी काटेंगे...।''
 
 जाने के लिए वे पुन: एक साथ खड़े हो गए। मास्टर जी ने अंतिम 
                    कोशिश की, ''खैर, मैं कल से छुट्टी लेकर इस काम में लग रहा 
                    हूँ...रात में एकाग्रचित होकर आप भी इस पर विचार करें। शायद 
                    मैं अपनी बेचैनी को ठीक से शब्द नहीं दे पाया। बहरहाल, आप 
                    पढ़े-लिखे लोग हैं...अगर मेरे कहे का अर्थ निकल जाए तो सुबह आप 
                    लोगों का स्वागत है।''
 राजदेव चाय ले आया था। सभी लोगों ने जल्दी-जल्दी सुड़क लिया और 
                    तेज़ी से फुट गए। मास्टर जी बहुत खीज भरी मुद्रा में उन्हें 
                    जाते हुए देखते रहे। हुँह...मुखिया हैं...वकील हैं...प्रोफेसर 
                    हैं...लंद हैं...फंद हैं...खाक हैं। उनके कुछ दूर चले जाने के 
                    बाद उनकी एक समवेत हँसी का स्वर मास्टर जी के कानों से आकर 
                    टकराया। उन्हें बड़ा तरस आया - बेवकूफ़!
 अगले दिन से ही मास्टर रामरूप 
                    ने उम्मीदवारों के स्थायी आवास का पता कर लिया। फिर बारी-बारी 
                    से वहाँ जा-जाकर जानकारी इकट्ठी करने लगे। इस काम में उन्हें 
                    बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ा। एक-दो उम्मीदवार तो सुदूर 
                    दूसरे प्रदेश के थे, जिन्हें यहाँ लाकर उनकी पार्टी ने खड़ा कर 
                    दिया था। उन्हें खासी झुंझलाहट हुई...यह क्या तरीका है...दूसरी 
                    मिट्टी और जलवायु के आदमी को भला यहाँ की क्या समझ होगी? ख़ैर, 
                    इनके बारे में बिना ज़्यादा मगजपच्ची किए स्थानीय उम्मीदवारों 
                    पर ही उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया। वे लक्ष्य कर रहे 
                    थे कि आस-पड़ोस के लोग साफ़-साफ़ कुछ भी बताने से हिचक महसूस 
                    कर रहे थे। लेकिन धुन के पक्के मास्टर जी जब अपना उद्देश्य 
                    बताते तो लोग व्यंग्य से अपने दाँत निपोड़ लेते। इस उपहास पर 
                    मास्टर जी को बहुत कोफ्त हो उठती। कोई-कोई तो ढीठता से मसखरीवश 
                    उनसे पूछ लेता, ''क्या इनसे अपनी लड़की की शादी करनी है 
                    आपको?''
 मास्टर जी इस गाली को गरिष्ठ भोजन की तरह गले से उतारते हुए 
                    कहते, ''शादी करनी होती तो इतनी जाँच-पड़ताल नहीं करता। उसमें 
                    तो एक ही लड़की के भविष्य का सवाल रहता, लेकिन यहाँ तो 
                    लाखों-लाख के भविष्य का सवाल है।''
 इसी तरह इन फब्तियों को झेलते 
                    हुए वे अंतत: कोई न कोई नेक खयाल व्यक्ति की तलाश कर ही लेते, 
                    जिनसे उनका मकसद पूरा हो जाता और वे आश्वस्त हो जाते।
 एक उम्मीदवार उनके ससुराल का ही था, जो रिश्ते से करीब का साला 
                    लगता था। उसके बारे मे वे पहले से ही बहुत कुछ जानते रहे थे।
 
 अब जब सबके बारे में पूरा हुलिया एकत्रित हो गया तो मास्टर जी 
                    एकदम अचंभे में पड़ गए। सारे के सारे उम्मीदवार बेहद दाग़दार 
                    और दुष्टता की हद पर खड़े हुए थे। एक भी ऐसा नहीं था जिसे 
                    सर्वथा योग्य समझकर वोट दिया जाए। उनके साले पर पाँच खून और कई 
                    बलात्कार के मुकदमे चल रहे थे। एक उम्मीदवार तो एक समय का 
                    कुख्यात डाकू रह चुका था। एक तस्करी के मामले में कई बार जेल 
                    जा चुका था। एक कई हरिजन-बस्तियों को जलाने का रिकार्ड बना 
                    चुका था। एक बड़े भारी रईस बाप का रात दिन शराब के नशे में धुत 
                    रहने वाला निकृष्ट बेटा था जिसका अड्डा रात-दिन तवायफ़ों के 
                    कोठों पर टिका रहता था।
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